मुस्लिम महिला अधिनियम 1986| तलाकशुदा मुस्लिम महिला जब तक कि दोबारा शादी नहीं करती भरण-पोषण की हकदारः इलाहाबाद हाईकोर्ट

Avanish Pathak

5 Jan 2023 1:58 PM IST

  • Allahabad High Court

    Allahabad High Court

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 के अनुसार, एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला अपने पूर्व पति से न केवल 'इद्दत' की अवधि पूरी होने तक भरण-पोषण प्राप्त करने की हकदार है, बल्कि जब तक कि वह पुनर्विवाह नहीं कर लेती, शेष जीवन के लिए भी भरण-पोषण की हकदार है।

    जस्टिस सूर्य प्रकाश केसरवानी और जस्टिस मो अजहर हुसैन इदरीसी ने फैमिली कोर्ट के एक आदेश को रद्द करते हुए उक्त टिप्पणी की। फैमिली कोर्ट के फैसले में तलाकशुदा मुस्लिम महिला को केवल इद्दत की अवधि के लिए भरण-पोषण की हकदार पाया गया था।

    न्यायालय ने कहा कि फैमिली कोर्ट ने डेनियल लतीफी और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2001) 7 एससीसी 740 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ध्यान में नहीं रखकर स्पष्ट कानूनी त्रुटि की है।

    हाईकोर्ट ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने उचित व्यवस्‍था और भरण-पोषण के संबंध में 1986 के अधिनियम की धारा 3 की व्याख्या की थी और कहा था कि "यह तलाकशुदा पत्नी के जीवन में तब तक विस्तारित होगी, जब तक कि वह दूसरा विवाह नहीं कर लेती।"

    धारा 3 (2) के तहत,

    एक मुस्लिम तलाकशुदा, मजिस्ट्रेट के समक्ष एक आवेदन दायर कर सकती है, यदि पूर्व पति ने उसे उचित व्यवस्‍था और भरण-पोषण या महर का भुगतान नहीं किया है या उसे उसके रिश्तेदारों या दोस्तों, या पति या उसके किसी रिश्तेदार या दोस्तों द्वारा शादी से पहले या शादी के समय दी गई संपत्तियों को नहीं दिया है।

    धारा 3(3) उस प्रक्रिया का प्रावधान करती है जिसमें मजिस्ट्रेट पूर्व पति को निर्देश दे सकता है कि वह तलाकशुदा महिला को इस तरह की उचित व्यवस्‍था और भरण-पोषण का भुगतान करे, जैसा कि वह तलाकशुदा महिला की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए उचित समझे।

    मामला

    ग़ाज़ीपुर निवासी ज़ाहिद खातून (अपीलकर्ता-पत्नी) ने 1989 में नुरुल हक खान (प्रतिवादी-पति) से विवाह किया था, जो डाक विभाग में एक कर्मचारी है। करीब 11 साल साथ रहने के बाद पति ने पत्नी को तीन तलाक देकर दूसरी महिला से विवाह कर लिया।

    हालांकि, उसने न तो महर का भुगतान किया और न ही भरण-पोषण की राशि का भुगतान किया और न ही आवेदक/अपीलकर्ता (पत्नी) से संबंधित वस्तुओं को वापस लौटाया।

    इससे व्यथित होकर खातून ने गाजीपुर के मजिस्ट्रेट कोर्ट में 1986 अधिनियम की धारा 3 के तहत भरण-पोषण की मांग करते हुए आवेदन दायर किया। साल 2014 में यह केस गाजीपुर के फैमिली कोर्ट में ट्रांसफर हो गया।

    पिछले साल सितंबर में फैमिली कोर्ट ने पति को पत्नी को केवल इद्दत की अवधि यानी 3 महीने और 13 दिन के लिए पंद्रह सौ रुपये प्रति माह की दर से गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था. इस फैसले को पत्नी (अपीलकर्ता) ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी।

    आदेश

    प्रारंभ में, न्यायालय ने प्रतिवादी-पति द्वारा उठाए गए तर्क को खारिज कर दिया कि निचली अदालत के पास आक्षेपित निर्णय पारित करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था। कोर्ट ने कहा कि उसने फैमिली कोर्ट के समक्ष आपत्ति नहीं जताई और वास्तव में, उसने फैसले को चुनौती नहीं दी, बल्कि आक्षेपित फैसले को स्वीकार कर लिया।

    इसके अलावा, यह कहते हुए कि 1986 का अधिनियम एक लाभकारी कानून है, न्यायालय ने डेनियल लतीफी (सुप्रा) और सबरा शमीम बनाम मकसूद अंसारी, (2004) 9 SCC 616 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ध्यान में रखा कि एक तलाकशुदा पत्नी न केवल इद्दत की अवधि तक बल्कि उसके बाद भी जब तक वह दोबारा शादी नहीं कर लेती, भरण-पोषण की हकदार होगी।

    नतीजतन, अदालत ने फैमिली कोर्ट के फैसले को रद्द कर दिया और प्रतिवादी-पति द्वारा कानून के अनुसार आवेदक-अपीलकर्ता (पत्नी) को भरण-पोषण की राशि और संपत्तियों की वापसी का निर्धारण करने के लिए मामले को वापस संबंधित मजिस्ट्रेट को भेज दिया। मामले को सकारात्मक रूप से तीन महीने के भीतर तय करने का निर्देश दिया गया।

    न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि तीन महीने की अवधि के लिए या मामले का निर्णय होने तक, जो भी पहले हो, यहां प्रतिवादी-पति आवेदक/अपीलकर्ता को हर महीने के 10वें दिन से पहले प्रति माह 5000/- रुपये की राशि का भुगतान करेगा। यह अंतरिम भरण-पोषण के रूप में होगा।

    केस टाइटल: जाहिद खातून बनाम नुरुल हक खान [फर्स्ट अपील नंबर- 787/2022]

    केस साइटेशन: 2023 लाइवलॉ (एबी) 5

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