"हत्या सोच-समझकर या पूर्व नियोजित नहीं थी": इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 27 साल पुराने मामले में चार लोगों की मौत की सजा को बदला

LiveLaw News Network

24 Feb 2022 3:53 PM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट


    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंगलवार को 27 साल पुराने हत्या के एक मामले में यह देखते हुए कि मामला 'दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों' की श्रेणी में नहीं आता है, चार लोगों को दी गई मौत की सजा को बदल दिया।

    जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस विवेक वर्मा की खंडपीठ निचली अदालत की इस राय से सहमत नहीं थी कि हत्या सोच-समझकर और पूर्व नियोजित थी। ट्रायल कोर्ट का निष्कर्ष था कि मौत की सजा से कम पर्याप्त और उचित नहीं होगी।

    पृष्ठभूमि

    10-11 नवंबर, 1994 की दरमियानी रात को चार अपीलार्थ‌ियों कृष्णा मुरारी, राघव राम वर्मा, काशीराम वर्मा और राम मिलन वर्मा ने 2-3 अन्य लोगों के साथ संपत्ति विवाद संबंधित एक मुकदमे में चार लोगों की हत्या कर दी।

    पीड़ितों के रिश्तेदार रमाकांत वर्मा (पीडब्ल्यू-1) ने मामले में एफआईआर दर्ज कराई और फैजाबाद पुलिस स्टेशन में अपीलकर्ता के खिलाफ धारा 147, 148, 149, 302, 120 बी आईपीसी के तहत मामला दर्ज किया गया।

    अभियुक्तों/अपीलकर्ताओं को गिरफ्तार कर ट्रायल पर रखा गया। ट्रायल शिकायतकर्ता रमाकांत वर्मा पीडब्लू-1 और उमाकांत वर्मा पीडब्लू-2, जो मृतक के परिवार के सदस्य हैं, की प्रत्यक्ष गवाही पर आधारित था, जिसमें अपीलकर्ताओं की दोषसिद्धि हुई थी और दो व्यक्तियों को बरी किया गया था।

    चार दोषियों/अपीलकर्ताओं की मौत की सजा की पुष्टि के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 366 (1) के तहत ट्रायल कोर्ट द्वारा किए गए संदर्भ से मौजूदा मौत की सजा संदर्भ उत्पन्न हुआ।

    कोर्ट द्वारा सबूतों का विश्लेषण

    चूंकि निचली अदालत का निर्णय पीडब्लू-1 और पीडब्लू-2 की गवाही पर आधारित था, अपीलकर्ताओं ने हाईकोर्ट के समक्ष प्राथमिक तर्क यह दिया कि पीडब्लू- 1 और पीडब्लू- 2 की गवाही पर भरोसा नहीं किया जा सकता क्योंकि वे हितधारी और मृतक के परिजन हैं। घटना स्‍थल पर उनकी उपस्थिति संदिग्ध है।

    इस पर, हाईकोर्ट ने शुरू में कहा कि यदि न्यायालय संतुष्ट है कि परिवार के किसी सदस्य का साक्ष्य विश्वसनीय है, तो ऐसे गवाह पर भरोसा करने में न्यायालय पर कोई रोक नहीं है।

    इसके अलावा, अदालत ने दोनों गवाहों की गवाही का विश्लेषण किया और पाया कि वे दोनों पूरी तरह से सच्चे गवाह थे क्योंकि उन्होंने हमले के तरीके के बारे में एक ही विवरण प्रस्तुत किया था और उनके साक्ष्य से निपटने के दौरान, अदालत ने यह भी पाया कि उनके बयान के संबंध में मृतक पर हमला चिकित्सा साक्ष्य के अनुरूप था।

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि हालांकि पीडब्लू-1 राम कांत वर्मा और पीडब्लू-2 उमा कांत वर्मा से व्यापक रूप से जिरह की गई, हालांकि, उनसे कुछ भी नहीं निकला जो उनकी विश्वसनीयता को खराब कर सकता है। अदालत को कोई बड़ा विरोधाभास नहीं मिला, या तो गवाहों के साक्ष्य में, या चिकित्सा या दृश्य संबंधी साक्ष्य में, जो दोषियों/अपीलकर्ताओं के पक्ष में संतुलन को झुका सकता है।

    इसके अलावा, अदालत ने अपीलकर्ताओं द्वारा दिए गए तर्कों को भी खारिज कर दिया कि हथियार की कोई बरामदगी नहीं हुई थी, अपराध करने का कोई मकसद नहीं था, और अभियोजन पक्ष के मामले को साबित करने के लिए किसी भी स्वतंत्र गवाह की जांच नहीं की गई थी।

    अदालत ने कहा, "अभियोजन उन सभी गवाहों को पेश करने के लिए बाध्य नहीं है, जिनके बारे में कहा गया है कि उन्होंने घटना को देखा।"

    नतीजतन, यह पाया गया कि पीडब्ल्यू 1-राम कांत वर्मा और पीडब्ल्यू 2-उमा कांत वर्मा के साक्ष्य विश्वासनीय लगते हैं, और उनके साक्ष्य घटना में अपीलकर्ता कृष्ण मुरारी, राघव राम, काशी राम और राम मिलन की संलिप्तता को स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं। न्यायालय को कृष्ण मुरारी, राघव राम, काशीराम और राम मिलन को धारा 149 आईपीसी और धारा 148 आईपीसी के साथ पठित धारा 302 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दोषी ठहराने के ट्रायल कोर्ट के आदेश में कोई समस्या नहीं मिली।

    फांसी की सजा पर चर्चा

    शुरुआत में, कोर्ट ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य और मच्छी सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य सहित कई फैसलों पर भरोसा किया, जहां यह देखा गया कि,

    "यह तय करने में कि क्या कोई मामला दुर्लभ से दुर्लभतम की श्रेणी में आता है, अपराध की क्रूरता और/या भीषण और/या जघन्य प्रकृति ही एकमात्र मानदंड नहीं है। न्यायालय को उसके दिमाग की स्थिति को ध्यान में रखना होगा, उसकी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि आदि को ध्यान में रखना होगा। मौत की सजा देना एक अपवाद है और आजीवन कारावास का नियम है। "

    सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को ध्यान में रखते हुए, हाईकोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ताओं को मौत की सजा सुनाते समय, ट्रायल कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला है कि अपीलकर्ताओं ने सोच-समझकर और नियोजित तरीके से मृतक की हत्या का अपराध किया था, इसलिए वही 'दुर्लभ मामलों में से दुर्लभतम' की श्रेणी में आता है।

    हालांकि, हाईकोर्ट ट्रायल कोर्ट की इस राय से सहमत नहीं था कि हत्या सोच-समझकर और पूर्व नियोजित तरीके से की गई थी।

    "यह सच है कि जिस तरह से गंडासा और बांका द्वारा अपीलकर्ताओं ने अपराध किया है, वह क्रूर और भीषण है, लेकिन यह बताने के लिए कोई सबूत नहीं है कि अपीलकर्ताओं द्वारा अपराध करने का क्या कारण हो सकता है। यह हताशा, मानसिक तनाव या भावनात्मक विकार के कारण हो सकता है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए।"

    कोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि मौजूदा मामला 'दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों की की श्रेणी में नहीं आता है। इसलिए दोषियों/अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 सहपठित धारा 149 के तहत दी गई फांसी की सजा को आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया गया।

    केस शीर्षक - यूपी राज्य बनाम कृष्णा मुरारी उर्फ ​​मुरली और अन्य और जुड़े मामले

    केस उद्धरण: 2022 लाइव लॉ (एबी) 65

    निर्णय पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें

    Next Story