मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कथित बलात्कार पीड़िता को सीआरपीसी की धारा 311 के तहत खुद को दोबारा गवाही के लिए बुलाने की अनुमति देने वाला निचली अदालत का आदेश रद्द किया

LiveLaw News Network

29 April 2022 11:12 AM GMT

  • मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कथित बलात्कार पीड़िता को सीआरपीसी की धारा 311 के तहत खुद को दोबारा गवाही के लिए बुलाने की अनुमति देने वाला निचली अदालत का आदेश रद्द किया

    Madhya Pradesh High Court

    मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने हाल ही में निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया है जिसमें एक बलात्कार के मामले में पीड़िता की तरफ से दायर एक आवेदन को अनुमति दे दी थी। पीड़िता ने इस मामले में खुद को गवाह के रूप में फिर से बुलाने की मांग की थी।

    हाईकोर्ट ने माना कि निचली अदालत ने आक्षेपित आदेश पीड़िता की दलीलों को 'पूर्ण सत्य' के रूप में स्वीकार करते हुए पारित किया है, जबकि उस बारे में कोई जांच नहीं की गई।

    जस्टिस अतुल श्रीधरन निचली अदालत के आदेश को चुनौती देते हुए आवेदक की तरफ से सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर एक आवेदन पर विचार कर रहे थे। निचली अदालत ने सीआरपीसी की धारा 311 के तहत पीड़िता की तरफ से दायर आवेदन को अनुमति दी थी।

    आवेदक का मामला यह है कि वह भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 498ए और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3, 4 के तहत दंडनीय अपराधों के लिए एक मुकदमे का सामना कर रहा है। मुकदमे के दौरान, पीड़िता ने निचली अदालत के समक्ष सीआरपीसी की धारा 311 के तहत एक आवेदन दिया था। जिसमें यह कहा गया कि जिरह के दौरान उसके द्वारा दिया गया बयान आरोपी और कुछ अन्य व्यक्तियों के दबाव में दिया गया था।

    आवेदक ने तर्क दिया कि आक्षेपित आदेश में निचली अदालत का यह निष्कर्ष कि आवेदक/अभियुक्त टालमटोल की रणनीति अपना रहा है, कानूनन गलत है। उन्होंने आगे कहा कि ट्रायल कोर्ट ने यह गलत तरीके से माना है कि पीड़िता ने अपने एग्जामनेशन-इन-चीफ के दौरान अपना प्रारंभिक बयान बदल दिया था। अंत में, उन्होंने जोर देकर कहा कि निचली अदालत ने मामले की जांच करवाने के लिए कोई प्रयास किए बिना ही पीड़िता के बयान को पूर्ण/सुसमाचार सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यदि पीड़िता वास्तव में दबाव में थी, तो वह जिरह के समय सीधे अदालत को सूचित कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। तद्नुसार, उन्होंने आक्षेपित आदेश को रद्द करने के लिए न्यायालय द्वारा निर्देश देने की मांग की।

    राज्य ने प्रस्तुत किया कि पीड़िता और उसके माता-पिता का आवेदक ने अपहरण कर लिया था और फिर उसे आरोपी/आवेदक के पक्ष में बयान देने के लिए मजबूर किया गया। इसलिए, यह तर्क दिया गया कि आक्षेपित आदेश में न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

    दोनों पक्षों की दलीलें और मामले के ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को ध्यान में रखते हुए, हाईकोर्ट ने माना कि ऐसा नहीं था कि पीड़िता ने अपने पिछले बयानों से पूरी तरह से मुंह मोड़ लिया था, हालांकि उसने अपने पहले के बयानों का खंडन किया था। अदालत ने आगे कहा कि अभियोजन पक्ष ने न तो उसे और न ही उसके माता-पिता को मुकरा हुआ गवाह घोषित किया है।

    बचाव पक्ष का एडवोकेट अपनी क्षमता के कारण पीड़िता से जिरह करके कुछ विरोधाभासों को सामने लाया है। यह एक ऐसा मामला नहीं है जहां पीड़िता ने एग्जामनेशन-इन-चीफ में दिए अपने बयान को पूरी तरह से त्याग दिया हो और अपनी जिरह में एक पूरी तरह से अलग मामला रखा हो। उसने अपनी जिरह में कहीं भी यह नहीं कहा है कि घटना नहीं हुई है, लेकिन विरोधाभासों के चलते अदालत पीड़िता के बयान पर संदेह कर सकती है।

    जहां तक उसके माता-पिता के बयानों का संबंध है, जो कि 6.12.2019 को ही दर्ज किए गए थे, उन्होंने केवल इतना कहा है कि वे अपनी बेटी यानी पीड़िता के साथ जो हुआ है, उससे संबंधित तथ्यात्मक पहलुओं को नहीं जानते हैं। उन्हें भी मुकरा हुआ गवाह घोषित नहीं किया गया है और न ही बचाव पक्ष ने उनसे जिरह की, क्योंकि बचाव पक्ष के एडवोकेट ने ऐसा करने की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की थी।

    अदालत ने आगे कहा कि निचली अदालत को सीआरपीसी की धारा 311 के तहत दायर पीड़िता के आवेदन पर विचार करने से पहले पीड़िता द्वारा लगाए गए अपहरण के आरोपों पर गौर करना चाहिए था। इसके बजाय, ट्रायल कोर्ट ने मामले की जांच किए बिना ही उसके बयान पर विश्वास कर लिया-

    सीआरपीसी की धारा 311 के तहत दायर आवेदन में आरोप लगाने के अलावा और ऐसा कुछ नहीं है, जो पीड़िता द्वारा आवेदन में कहीं बातों की पुष्टि कर सके। निचली अदालत ने किसी भी प्रकार की जांच नहीं की या पुलिस को उक्त घटना की जांच करने के लिए नहीं कहा और आवेदन में लगाए गए आरोपों को केवल पूर्ण सत्य के रूप में लिया है, जो कि अस्वीकार्य है। इसलिए, आवेदक द्वारा पीड़िता का अपहरण करने से संबंधित निष्कर्ष भी निराधार और रद्द किए जाने योग्य है।

    सीआरपीसी की धारा 311 के दायरे को स्पष्ट करते हुए कोर्ट ने कहा-

    सीआरपीसी की धारा 311 के तहत एक आवेदन को सिर्फ पूछने या अनुमति मांगने से ही स्वीकार नहीं किया जा सकता है,जैसा कि इस विशेष मामले में निचली न्यायालय द्वारा किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार ट्रायल कोर्ट को याद दिलाया है कि सीआरपीसी की धारा 311 के तहत निर्धारित परिधि और दायरा कोई अवसर नहीं है,जो अभियोजन पक्ष या बचाव पक्ष को उनके द्वारा छोड़ी गई कमी (पहली बार में गवाहों से ठीक से पूछताछ न करके) को कवर करने के लिए दिया जा सके।

    उपरोक्त टिप्पणियों के साथ, न्यायालय ने आक्षेपित आदेश को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि यह तथ्यों और कानून के अनुसार अस्थिर है। कोर्ट ने यह भी कहा कि आक्षेपित आदेश के अनुसरण में, यदि पीड़िता का कोई बयान दर्ज किया गया है, तो वह कानून की नजर में अवैध है और निचली अदालत के समक्ष विचाराधीन मामले का फैसला करते समय इस पर विचार न किया जाए। तद्नुसार आवेदन का निराकरण कर दिया गया।

    केस का शीर्षक- संदीप यादव बनाम मध्य प्रदेश राज्य व अन्य

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