"बहुत ही जघन्य", दलित को हिरासत में पेशाब प‌िलाने के आरोपी सब इंस्पेक्टर को अग्र‌िम जमानत देने से कर्नाटक की कोर्ट ने किया इनकार

LiveLaw News Network

3 Jun 2021 4:23 AM GMT

  • बहुत ही जघन्य, दलित को हिरासत में पेशाब प‌िलाने के आरोपी सब इंस्पेक्टर को अग्र‌िम जमानत देने से कर्नाटक की कोर्ट ने किया इनकार

    यह देखते हुए कि "घटना जघन्य प्रकृति की है। न केवल पीड़ित के ऊपर पेशाब की गई है, बल्कि उसे फर्श से पेशाब चाटने के लिए मजबूर किया गया है। ऐसा अत्याचार किसी भी व्यक्ति की गरिमा को नष्ट कर देता है", चिक्कमगलुरु के विशेष जज ने मंगलवार को पुलिस सब-इंस्पेक्टर अर्जुन गौड़ा को अग्रिम जमानत देने से इनकार कर दिया।

    पुलिस ऑफिसर के खिलाफ 22 मई को गोनीबीडु पुलिस थाने में आईपीसी की धारा 323, 342, 504, 506, 330, 348 के तहत दंडनीय अपराधों और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम 2015 की धारा 3(1)(ए), 3(1)(ई), 3(1)(आर), 3(2)(वीए), 3(2)(vii) के तहत मामला दर्ज किया गया था।

    ऑफिसर के खिलाफ आरोप था कि 10 मई को शिकायतकर्ता केएल पुनीत, किरुगुंडा गांव के अपने घर में थे। उसी समय केई रमेश, केबी परमेश और उनका ग्रुप उनके घर आया और उन्हें अपने साथ चलने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि वे शिकायतकर्ता से किसी अनुया को किए गए फोन कॉल के बारे में बात करना चाहते हैं। हालांकि वहां बहुत भीड़ ‌‌थी, इसलिए शिकायतकर्ता उनके साथ नहीं गया और 112 पर फोन कर मदद मांगी।

    पुलिस मौके पर पहुंची, लेकिन उक्त भीड़ नहीं मानी, इसलिए उन्होंने आरोपी को बुलाया, जो गोनीबीडु पुलिस स्टेशन का पीएसआई है। आरोपी वहां आया और शिकायतकर्ता से बिना पूछताछ किए उसे जीप पर चढ़ने को कहा। शिकायतकर्ता ने जब आरोपी की कार्यवाई पर सवाल उठाया तो उसने शिकायतकर्ता के साथ गंदी भाषा में गाली-गलौज की और मारपीट की। बाद में उसे पुलिस थाने ले जाया गया जहां कथित तौर पर उसके कपड़े उतार दिए, उसके हाथ और पैर एक खंभे से बांध दिए और उसकी जांघ के आरपार लोहे की सरिया रख दी और उसे लटका दिया। बाद में आरोपी ने उसके साथ मारा और उससे उसके और अनुया के साथ संबंध के बारे में पूछा।

    आगे आरोप है कि आरोपी के अत्याचारों के कारण शिकायतकर्ता आरोपी की बात मानने के लिए तैयार हो गया, इसके बावजूद आरोपी ने उसके साथ मारपीट की और उसकी जाति का नाम लेकर गाली-गलौज की। प्यासा होने के कारण शिकायतकर्ता ने आरोपी को पानी उपलब्ध कराने को कहा और उस समय आरोपी ने चेतन नाम के एक अन्य आरोपी को बुलाया और आरोपी के निर्देशानुसार चेतन ने शिकायतकर्ता के मुंह में पेशाब किया, इसके बाद आरोपी ने पीड़ित से पेशाब को चटवाया।

    आरोपी ने अपने आवेदन में कहा है कि वह निर्दोष है और उसने कोई कथित अपराध नहीं किया है। यह मानने का कोई उचित आधार नहीं है कि उसने खुद पर आरोपित अपराध किए हैं। इसके अलावा, वह एक सम्मानित पुलिस अधिकारी है और वह एक सम्मानित परिवार से है, जिसकी समाज में गहरी जड़ें हैं। उसने अपने परिवार के सदस्यों की देखभाल की है। चूंकि जांच पहले ही बंद कर दी गई है और आगे की जांच की कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए उसे अग्रिम जमानत दी जानी चाहिए।

    दूसरी ओर अभियोजन पक्ष ने यह कहकर आवेदन का विरोध किया कि याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 18(2) के तहत याचिकाकर्ताओं को अग्रिम जमानत देने पर स्पष्ट रोक है। याचिकाकर्ता पीएसआई है, और अगर उसे जमानत पर रिहा किया जाता है, तो वह अपने प्रभाव का उपयोग कर सकता है और याचिकाकर्ता द्वारा अभियोजन पक्ष के मामले में छेड़छाड़ की संभावना है। याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोपित अपराध प्रकृति में जघन्य हैं। अपराध की गंभीरता को देखते हुए मामले को सीआईडी को दिया गया है।

    न्यायालय के निष्कर्ष

    विशेष न्यायाधीश के एल अशोक ने कहा कि चूंकि आरोपी एक पुलिस सब-इंस्पेक्टर है, इसलिए यह विचार करना आवश्यक है कि क्या वह सीआरपीसी की धारा 197 के तहत दी गई सुरक्षा का लाभ उठा सकता है। इसमें कहा गया है, "जाहिर तौर पर अवैध हिरासत और हिरासत में यातना पुलिस अधिकारियों के कर्तव्य का हिस्सा नहीं है। इसलिए सीआरपीसी की धारा 197 के तहत संरक्षण, सीन में नहीं आता है और ऐसे पुलिस अधिकारी के खिलाफ आगे बढ़ने के लिए किसी पूर्व मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी।"

    इसने कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा 24.05.2021 को आपराधिक याचिका संख्या 996/2021 में एस शिव कुमार और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य के मामले चिक्कबल्लापुरा ग्रामीण पुलिस और एक अन्य के द्वारा, में पारित आदेश का भी उल्लेख किया, जिसमें माना गया है क‌ि अवैध हिरासत और हिरासत में यातना के मामलों में, कोई पूर्व मंजूरी आवश्यक नहीं है।

    अदालत ने शिकायत दर्ज करने में देरी को लेकर आरोपी द्वारा उठाई गई दलील पर विचार किया। यह तर्क दिया गया कि मामला अपने आप में संदिग्ध है और देरी से ही यह स्थापित होता है कि कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं है। कथित घटना 10.05.2021 को हुई थी, लेकिन 12 दिनों के अंतराल के बाद केवल 22.05.2021 को पुलिस शिकायत दर्ज की गई थी।

    अदालत ने कहा, "इस मामले में, यह ध्यान रखना उचित है कि कथित अपराध एक पुलिस अधिकारी द्वारा किया गया है। पीड़ित एक आम आदमी है, जिसका कोई प्रभाव नहीं है। जब उसे पकड़ कर पुलिस स्टेशन ले जाया गया और उसे हिरासत में प्रताड़ित किया गया, पीड़ित को यह नहीं पता होगा कि उसे आगे क्या करना चाहिए। वह अपनी भविष्य की कार्रवाई के बारे में केवल एक खाली तस्वीर खींचेगा।

    वह सीधे पुलिस स्टेशन में नहीं जा सकता और प्रभारी अधिकारी के खिलाफ शिकायत दर्ज नहीं कर सकता। वह पूरी तरह से अकल्पनीय है। वह उच्च अधिकारियों से भी संपर्क नहीं कर सकता। पीड़ित, जो एक देहाती ग्रामीण है और एक कमजोर समुदाय से आता है, उच्च अधिकारियों के कार्यालय में जाए, और उन्हीं के अधीनस्थ के खिलाफ शिकायत दर्ज कराए, यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। ऐसा मामले में पीड़ित को अपनी स्थिति का आकलन करने में कुछ समय लगता है और उसके बाद वह कोई भी संभावित कार्रवाई कर सकता है।"

    अदालत ने यह भी कहा कि "घटना की कथित प्रकृति प्रकृति में सबसे जघन्य है। न केवल पीड़ित के ऊपर पेशाब किया गया है, बल्कि उसे फर्श से पेशाब चाटने के लिए मजबूर किया गया है। अत्याचार का ऐसा कार्य किसी की व्यक्तिगत गरिमा को नष्ट कर देता है। व्यक्तिगत गरिमा किसी की आंतरिक भावना, आत्म-प्रेम, आत्म-देखभाल, आत्म-सम्मान और आत्म-प्रशंसा का दृष्टिकोण है। यह वह तरीका है जो कोई अपने बारे में सोचता और महसूस करता है।

    एक व्यक्ति, जिसने इस तरह के कथित अत्याचार का सामना किया है पूरी तरह से सदमे में होगा और निश्चित रूप से सामान्य रूप से किसी को भी घटना का खुलासा करने या उसके निवारण की स्थिति में नहीं होगा। उसे चीजों को संसाधित करने में समय लगता है। उसे अपने निकट और प्रिय को घटना का खुलासा करने का साहस जुटाना होगा यह आसान नहीं होगा और इसमें कुछ समय लगेगा। इसलिए शिकायतकर्ता से जल्द से जल्द पुलिस शिकायत दर्ज करने की उम्मीद नहीं है। इसलिए इस स्तर पर यह नहीं माना जा सकता है कि पुलिस शिकायत दर्ज करने में देरी किसी भी तरह से आरोपी की मदद करती है।"

    समुदाय के सदस्यों के साथ चर्चा करने से शिकायत मनगढ़ंत हो जाती है?

    आरोपी द्वारा उठाया गया अगला तर्क यह था कि शिकायत गढ़ी गई है क्योंकि शिकायतकर्ता ने समुदाय के सदस्यों के साथ इस पर चर्चा की थी। जिस पर अदालत ने कहा, "इस तरह के सदमे से पीड़ित व्य‌क्ति उसे दबाए नहीं रख पाएगा और यह स्वाभाविक है कि उसने अपने समुदाय के नेताओं के साथ इस पर चर्चा की है। केवल समुदाय के नेताओं के साथ कार्रवाई के अगले चरण मके बारे में चर्चा का मतलब यह नहीं है कि शिकायत मनगढ़ंत है। यह केवल एक व्यक्ति का सामान्य आचरण है, जिसने अत्याचार किया है। इसलिए यह तर्क अच्छा नहीं है।"

    प्रथम दृष्टया आरोपी के खिलाफ मामला

    अदालत ने कहा, "जब पीड़ित को पुलिस थाने ले जाया गया, तो उसके खिलाफ कोई अपराध दर्ज नहीं किया गया था, न ही वह संदिग्ध था। कुछ भी न होने पर भी आरोपी ने पीड़ित को थाने में घसीटा, जहां पीड़ित को अवैध हिरासत में रखा गया था और हिरासत में उसे यातना का सामना करना पड़ा। यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि आरोपी के पास पीड़ित को थाने तक घसीटने का कोई अधिकार नहीं था। पीड़ित को किसी भी प्रकार की कानूनी सहायता नहीं दी गई। उसे गिरफ्तार नहीं किया गया, उसके खिलाफ समय पर मामला दर्ज किया गया था। जैसा कि पहले चर्चा की गई थी, घटना प्रकृति में जघन्य है। यह एक व्यक्ति की गरिमा को चकनाचूर करती है और उसे नहीं पता होता कि क्या करना है।"

    हिरासत में यातना

    अदालत ने शिकायतकर्ता के शरीर पर मिली चोटों के मेडिकल रिकॉर्ड और तस्वीरों को देखने के बाद कहा, "इन तस्वीरों से पता चलता है कि पीड़ित के हाथों और पैरों पर चोटें आई हैं, जिनकी चिकित्सा प्रमाण पत्र में पुष्टि हुई हैं। यह अवैध हिरासत और हिरासत में यातना के मामले की पुष्टि करता है। एक पुलिस अधिकारी से इस प्रकार के कार्य करने की अपेक्षा नहीं की जाती है। एक पुलिस अधिकारी जनता के विश्वास का संरक्षक होता है। उससे निर्दोषों की रक्षा करने की अपेक्षा की जाती है।"

    अदालत ने कहा, "जब कथित घटना जघन्य हो तो अग्रिम जमानत देने से समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह एक गलत संदेश देगा..। अदालत ने अग्र‌िम जमानत आवेदन को खारिज करते हुए कहा, "आरोपी की स्थिति पर विचार करना आवश्यक है। आरोपी एक शक्तिशाली पुलिस अधिकारी है जिसने यह कथित रूप से यह प्रदर्श‌ित किया है कि वह कानून को अपने हाथ में ले सकता है और किसी भी हद तक जा सकता है। अगर उसे अग्रिम जमानत की अनुमति दी जाती है तो निश्चित रूप से पीड़ित सुरक्षित नहीं होगा। पीड़ित के जीवन और स्वतंत्रता के लिए निरंतर खतरा रहेगा। साथ ही जांच अपनी प्रारंभिक अवस्था में है और निष्पक्ष जांच के लिए यह उचित और आवश्यक होगा कि आरोपी अपनी शक्ति का प्रयोग करने और जांच को प्रभावित करने की स्थिति में ना हो। जैसा कि पहले चर्चा की गई है, जब अभियुक्त के खिलाफ स्पष्ट प्रथम दृष्टया मामला होता है, तो अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 18 ए का प्रावधान आरोपी को अग्रिम जमानत देने पर रोक लगाता है।"

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