न्यायिक आदेश के तहत रिमांड होम में रहने वाली नाबालिग लड़की को गैर कानूनी रूप से कारावास/डिटेंशन में नहीं माना जा सकता, हैबियस कार्पस याचिका सुनवाई योग्य नहीं : पटना हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
21 Oct 2020 9:45 AM IST
पटना हाईकोर्ट ने शुक्रवार (16 अक्टूबर) को कहा है कि यदि न्यायिक आदेश के तहत किसी लड़की को नाबालिग मानते हुए रिमांड होम भेजा गया है तो उसके रिमांड होम में रहने को गैरकानूनी कारावास/ डिटेंशन नहीं कहा जा सकता, इसलिए इस तरह के आदेश के खिलाफ दायर बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति एस कुमार की खंडपीठ ने आगे स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में याचिकाकर्ता न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के खिलाफ आपराधिक रिट याचिका दायर करके या न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए/ रिवीजन याचिका दायर करते हुए हाईकोर्ट का रूख कर सकता है।
मामले के तथ्य
13 मार्च 2019 को याचिकाकर्ता के पिता (अनिल प्रसाद सिंह/सूचना देने वाला) द्वारा उजियारपुर पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करवाई गई थी, जिसके चलते केस नंबर 17/2019 आईपीसी की धारा 366,366ए रिड विद 34 के तहत दर्ज किया गया था। उसने बताया था कि उसकी 16 साल की नाबालिग लड़की अनुराधा कुमारी 7 मार्च 2019 को सुबह कोचिंग संस्थान गई थी। इस दौरान प्रभास कुमार व अन्य ने उसका अपहरण कर लिया।
पीड़ित लड़की/ शिकायतकर्ता की बेटी को पुलिस ने 5 अप्रैल 2019 को बरामद कर लिया था। पीड़ित का बयान सीआरपीसी की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज किया गया था,जिसमें उसने अपनी उम्र 19 साल बताई थी और यह भी कहा था कि उसने अपनी मर्जी से सोनपुर के राधा कृष्ण मंदिर में 13 मार्च 2019 को प्रभाष कुमार के साथ विवाह रचाया है और उसका न तो अपहरण हुआ है और न ही उसे कोई भगाकर ले गया है।
उसने अपने वैवाहिक घर में निवास करने की इच्छा व्यक्त की। अदालत ने पीड़ित लड़की की उम्र 16 साल होने का आकलन किया, हालांकि, उसने खुद को 19 साल का बताया था।
गौरतलब है कि बिहार स्कूल परीक्षा द्वारा जारी एक प्रमाण पत्र के अनुसार, वह 17 साल पूरे कर चुकी है और ही बालिग होने वाली है।
न्यायालय के समक्ष मामला
याचिकाकर्ता ने न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित उस आदेश को चुनौती दी, जिसके तहत उसे रिमांड होम भेज दिया गया था। उसने रिमांड होम की अपनी डिटेंशन को चुनौती दी,परंतु उसने अपनी याचिका के साथ उस आदेश (एसीजेएम द्वारा पारित) को संलग्न नहीं किया,जिसके तहत उसे रिमांड होम भेजा गया था।
इस पर कोर्ट ने कहा,
''जैसा कि, यह अदालत उन कारणों को जानने की स्थिति में नहीं है, जिसके चलते एसीजेएम ने याचिकाकर्ता का बयान दर्ज करने के बाद ,उसे रिमांड होम में भेज दिया।''
इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि,
''इसी तरह की प्रकृति के कई मामलों में इस अदालत ने कहा है कि यदि न्यायिक आदेश के तहत एक लड़की को नाबालिग मानते हुए अगर रिमांड होम भेजा जाता है जो उसके रिमांड होम में रहने को गैरकानूनी कारावास/डिटेंशन नहीं माना जा सकता है। इसलिए बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सुनवाई योग्य नहीं है और याचिकाकर्ता न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश के खिलाफ आपराधिक रिट याचिका दायर करके या न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए/ रिवीजन याचिका दायर करते हुए हाईकोर्ट का रूख कर सकती है।''
इस प्रकार, याचिकाकर्ता द्वारा दायर की गई बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया क्योंकि वह सुनवाई योग्य या अनुरक्षणीय नहीं थी। साथ ही याचिकाकर्ता को स्वतंत्रता दी है कि वह न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित उस आदेश को चुनौती दे सकती है,जिसके तहत उसे नाबालिग मानते हुए रिमांड होम भेज दिया गया था। साथ ही उसे अपनी पसंद के अनुसार रहने और बालिग के रूप में काम करने की भी अनुमति दी है।
पूर्वोक्त अवलोकन और स्वतंत्रता के साथ, रिट याचिका का निस्तारण कर दिया गया था।
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