पुलिस के खिलाफ खबरें प्रकाशित करने भर से पुलिस में असंतोष नहीं पैदा होगा, ना ही उन्हें सरकार के खिलाफ उकसाएगा: बॉम्बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

1 Dec 2020 10:57 AM GMT

  • पुलिस के खिलाफ खबरें प्रकाशित करने भर से पुलिस में असंतोष नहीं पैदा होगा, ना ही उन्हें सरकार के खिलाफ उकसाएगा: बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने सोमवार (23 नवंबर) को फैसला सुनाया कि एक पुलिस अधिकारी पर लगा आरोप कि वह आपराधिक गतिविधियों में शामिल था और इस संबंध में समाचार रिपोर्ट प्रकाशित करवाना, सरकार के खिलाफ कार्रवाई के लिए उकसाती नहीं है। पुलिस (इन्साइटमन्ट टू ड‌िसफेक्‍शन) एक्ट, 1922 की धारा तीन के अर्थों में)।

    जस्टिस टीवी नलवाडे और जस्टिस श्रीकांत डी कुलकर्णी की खंडपीठ ने आवेदक की याचिका को अनुमति देते हुए उसके खिलाफ पुलिस (इन्साइटमन्ट टू ड‌िसफेक्‍शन) एक्ट, 1922 की धारा तीन के तहत दर्ज मामले को रद्द कर दिया।

    मामला

    आवेदक के खिलाफ एक एफआईआर दर्ज की गई ‌थी, जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि उसने प्रतिवादी संख्या चार (हर्षवर्धन गोविंद गवली, पुलिस निरीक्षक) और उप-विभागीय पुलिस अधिकारी श्री दिलीप टिपर के खिलाफ, वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष और स्थानीय समाचार पत्रों में समाचार प्रकाशित करके, झूठे आरोप लगाए।

    प्रतिवादी संख्या चार का तर्क था कि उसने 'खदतर प्रवास' समाचार पत्र में देखा कि कि एक महिला पुलिस अधिकारी द्वारा दी गई रिपोर्ट के आधार पर उसके खिलाफ बलात्कार का अपराध दर्ज किया गया है।

    दलील दी गई कि उक्त समाचार रिपोर्ट में कई अन्य आरोप भी लगाए गए थे।

    तर्क दिया गया था कि समाचार के कारण वह परेशान और उदास हुए, क्योंकि समाचार से समाज में उनकी बदनामी हुई।

    यह भी तर्क दिया गया था कि यह आवेदक था, जिसके कहने पर समाचार प्रकाशित किया गया और इसलिए, उसने पुलिस (इन्साइटमन्ट टू ड‌िसफेक्‍शन) एक्ट, 1922 की धारा तीन और आईपीसी की धारा 500 के तहत अपराध किए।

    इस रिपोर्ट के आधार पर, आवेदक के खिलाफ CR No 2/2019 के तहत अपराध दर्ज किया गया और मामला लंबित रहने के दौरानी ही इन अपराधों की चार्जशीट दायर की गई।

    तर्क सामने रखे

    आवेदक की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कल्पना के किसी भी स्तर पर और प्रतिवादी संख्या चार द्वारा लगाए गए आरोपों को स्वीकार करने के बाद भी, जैसा कि वे हैं, यह नहीं कहा जा सकता है कि आवेदक ने 1922 एक्ट की धारा 3 के तहत दंडनीय अपराध किया है।

    पुलिस (इन्साइटमन्ट टू ड‌िसफेक्‍शन) एक्ट, 1922 की धारा तीन के अनुसार,

    3. "असंतुष्टि पैदा करने के लिए दंड, आदि: - जो कोई जानबूझकर करता है या करने का प्रयास करता है, या ऐसा कोई कार्य करता है, जिसे वह जानता है कि ऐसा करने से भारत में कानून द्वारा स्‍थापित सरकार के खिलाफ पुलिस बल के सदस्यों में असंतोष पैदा होगा, या प्रेरित करता या प्रेरित करने का प्रयास करता है, या ऐसा कोई कार्य करता है, जिसे वह जानता है कि पुलिस बल के किसी सदस्य को अपनी सेवाओं को वापस लेने या अनुशासन भंग करने के लिए प्रेरित होने की संभावना है, दोषी ठहराए जाने पर, उस अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जा सकता है जो तीन साल के लिए विस्तारित हो सकती है, या जुर्माने के साथ दंडित किया जा सकता है, जो पांच हजार रुपए तक हो सकता है, या कारावास से दंडित किया जा सकता है, जो छह महीने तक बढ़ सकता है, या जुर्माना जो दो सौ रुपए तक हो सकता है, या दोनों के साथ हो सकता है।

    स्पष्टीकरण- सरकार के खिलाफ, वैध तरीकों से उन्हें परिवर्त‌ित करने के लिए, अपनी नापसंदगी जाहिर करना,

    या सरकार की प्रशासनिक या अन्य कार्रवाई के ‌खिलाफ नापसंदगी की अभिव्यक्ति, इस धारा के तहत अपराध का गठन नहीं करते हैं, जब तक कि उनसे असंतोष नहीं पैदा होता या असंतोष पैदा करने के उद्देश्य सं नहीं किए जाते हैं।"

    आवेदक की ओर से पेश वकील ने भरत देसाई, संपादक, टाइम्स ऑफ इंडिया और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य में गुजरात हाईकोर्ट के फैसले का हवाला दिया।

    इस मामले में, अलग-अलग मौकों पर टाइम्स ऑफ इंडिया में विभिन्न लेख प्रकाशित किए गए थे, जो कि अहमदाबाद के नए नियुक्त पुलिस आयुक्त के खिलाफ थे। नतीजतन, टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक, भारत देसाई के खिलाफ एक अपराध दर्ज किया गया था।

    राज्य की दलील थी कि इस तरह के समाचारों के कारण पुलिस बल के सदस्यों के बीच असंतोष पैदा होने की आशंका है और इसने आशंका पैदा कर दी है कि पुलिस आयुक्त के अधीनस्थ उनके आदेशों को मानने से इनकार कर सकते हैं और इससे अनुशासनहीनता भी फैल सकती है।

    हाईकोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाने वाली टिप्पणियों से यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि प्रकाशक का पुलिस को प्रेरित करने या उकसाने का इरादा था जो अधिनियम की धारा 3 की आवश्यकता है।

    आगे कहा गया कि इस तरह का असंतोष पुलिस के बीच पैदा करने की जरूरत है और यह सरकार के खिलाफ होना चाहिए।

    कोर्ट का अवलोकन

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने धारा 3 के के मद्देनजर तात्कालिक मामले में कहा कि भरत देसाई केस में गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा की गई धारा 3 की व्याख्या को "वर्तमान मामले में भी स्वीकार किए जाने और उपयोग किए जाने की आवश्यकता है।"

    इसके अलावा, बॉम्बे हाईकोर्ट ने एन सेंगोडन बनाम सरकार के सचिव, गृह (निषेध और उत्पाद शुल्क) विभाग, चेन्नई और अन्य, में सुपीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि, "धारा 3 के तहत दंडनीय असंतोष पैदा करने के लिए, यह साबित करना है कि संबंधित व्यक्ति ने जानबूझकर ऐसा किया है या किसी ऐसे कार्य को करने या करने का प्रयास किया है, जिससे इस देश में कानून द्वारा स्थापित सरकार के सदस्यों के ‌खिलाफ असंतोष पैदा होने की संभावना है...."

    तत्काल मामले में, अदालत ने कहा कि प्रतिवादी संख्या 4 का तर्क था कि आरोप निराधार थे और उसे बदनाम किया गया था।

    इस पर कोर्ट ने कहा, "अधिनियम की धारा 3 के शब्दों को ध्यान में रखते हुए, यह कहा जा सकता है कि मामले के प्रकाशन का उद्देश्य पुलिस के बीच असंतोष पैदा करना या उन्हें सरकार के खिलाफ कार्रवाई के लिए उकसाना नहीं था। इस प्रकार, प्राथमिकी में भले ही आरोप लगाए गए हों,उन्हें वैसे ही स्वीकार किया जाता है, जैसे वे हैं, वे अधिनियम की धारा 3 के तहत दंडनीय अपराध का गठन नहीं कर सकते हैं। "

    इसके अलावा, अदालत ने कहा कि आवेदक द्वारा लगाए गए आरोप "आईपीसी की धारा 500 के तहत मानहानि के अपराध में हो सकते हैं" और "प्रतिवादी संख्या 4 के लिए खुला है कि वह अपने खिलाफ लगे आरोपों को लगाने वाले के खिलाफ कानून के तहत उचित कार्रवाई करे।"

    अंत में, अदालत ने कहा कि आवेदक के खिलाफ अधिनियम की धारा 3 के तहत दंडनीय अपराध के लिए दायर मामले को "रद्द करने की आवश्यकता है।"

    केस टाइटिल - रविंद्र बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य [2020 की आपराधिक आवेदन संख्या 356]

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