पत्नी द्वारा केवल आपराधिक मामला दर्ज करवाना और अलग घर की मांग 'क्रूरता' नहीं : कर्नाटक हाईकोर्ट ने तलाक की डिक्री खारिज की

LiveLaw News Network

28 March 2022 1:25 PM GMT

  • पत्नी द्वारा केवल आपराधिक मामला दर्ज करवाना और अलग घर की मांग क्रूरता नहीं : कर्नाटक हाईकोर्ट ने तलाक की डिक्री खारिज की

    Karnataka High Court

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि केवल इसलिए कि पत्नी एक अलग घर की मांग कर रही थी और उसे वैवाहिक घर छोड़कर अपनी बहन और माता-पिता के घर जाने की आदत थी, इसे पति द्वारा तलाक की डिक्री मांगने के उद्देश्य से 'क्रूरता' नहीं कहा जा सकता है।

    जस्टिस आलोक अराधे और जस्टिस एस विश्वजीत शेट्टी की खंडपीठ ने यह भी कहा कि,

    ''विवाह की असाध्य विफलता के आधार पर तलाक का डिक्री केवल भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट न्यायालय द्वारा दी जा सकती है। ऐसी राहत अन्य अदालतों द्वारा नहीं दी जा सकती है।''

    पत्नी द्वारा की गई क्रूरता और परित्याग के आधार पर पति के पक्ष में जारी की गई तलाक की डिक्री को रद्द करते हुए यह अदालत ने यह टिप्पणी की है।

    मामले की पृष्ठभूमिः

    इस जोड़े ने 2002 में हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी की थी। पति ने फैमिली कोर्ट, बैंगलोर का दरवाजा खटखटाकर शादी को भंग करने की मांग करते हुए कहा था कि अपीलकर्ता ने शादी के तुरंत बाद ही एक अलग घर लेने की मांग कर दी थी। पति ने बताया कि वह अपने घर में अपनी विधवा मां और एक छोटे भाई के साथ रहता था और उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी उस पर थी। इसलिए, उसने अलग घर लेने की अपीलकर्ता की मांग को खारिज कर दिया था।

    आगे यह भी कहा गया कि पत्नी को उसके परिवार के सदस्यों के साथ बिना वजह झगड़ने की आदत थी और वह उसे या उसकी मां या उसके भाई को सूचित किए बिना ही ससुराल छोड़कर अपनी बहन या अपनी मां के घर चली जाती थी। पत्नी के इस व्यवहार और आचरण के कारण उसका जीवन दयनीय हो गया था। जनवरी 2007 में, अपीलकर्ता-पत्नी ने उसे बताए बिना बच्चे के साथ ससुराल छोड़ दिया और उसके बाद वह वापस नहीं लौटी।

    पत्नी ने अपने पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए, 323, 504, 506 के रिड विद धारा 34 और दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत मामला दर्ज करवाया था, जिसमें उन्हें बरी कर दिया गया है।

    यह भी दावा किया गया कि पत्नी का उसके साथ रहने और अपने वैवाहिक दायित्व को निभाने का कोई इरादा नहीं था और सुलह की कोई संभावना नहीं है। इसलिए उसने क्रूरता के साथ-साथ परित्याग के आधार पर विवाह को भंग करने की मांग की थी।

    पत्नी ने याचिका का विरोध किया और अपने ऊपर लगे सभी आरोपों से इनकार किया था। सबूतों और पार्टियों द्वारा पेश किए गए दस्तावेजों पर विचार करने के बाद ट्रायल कोर्ट ने पति की याचिका को स्वीकार कर लिया और 15 मार्च 2016 के आदेश के तहत इस शादी को भंग कर दिया। पत्नी ने हाईकोर्ट के समक्ष इस आदेश को चुनौती दी।

    पत्नी का तर्कः

    यह कहा गया कि फैमिली कोर्ट के न्यायाधीश ने तलाक की डिक्री देने में गलती की है क्योंकि पति अपनी पत्नी के खिलाफ क्रूरता और परित्याग के आधार को साबित करने में विफल रहा है। फैमिली कोर्ट ने याचिका को मुख्य रूप से इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि पत्नी ने पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ आपराधिक मामला दायर किया था।

    इसके अलावा, पत्नी के पास अपने पति से दूर रहने का एक वैध कारण था और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि उसने पति को छोड़ दिया था। पर्याप्त दहेज न लाने के कारण पति ने पत्नी को घर से निकाल दिया था और बाद में उसने उसे वापिस घर लाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। इसके बजाय, उसने तुरंत तलाक के लिए कानूनी नोटिस भेज दिया।

    पति का तर्कः

    यह प्रस्तुत किया गया कि वह दोनों वर्ष 2007 से अलग-अलग रह रहे हैं और सुलह के लिए किए गए सभी प्रयास विफल हो गए हैं। इसलिए, विवाह पूरी तरह से विफल हो गया है और इस तरह के विवाह को जारी रखने का कोई मतलब नहीं है।

    इसके अलावा, यह भी कहा गया कि पत्नी ने बिना किसी वैध कारण के अपने पति का घर छोड़ दिया था। इतना ही नहीं वह अपने पति और उसके रिश्तेदारों के खिलाफ केवल उन्हें परेशान करने और मजबूर करने के इरादे से झूठी शिकायत दर्ज करने की भी दोषी है।

    न्यायालय का निष्कर्षः

    पीठ ने कहा, ''संबंधित मजिस्ट्रेट ने उक्त मामले (पति के खिलाफ पत्नी द्वारा दर्ज) में आरोपी व्यक्तियों को इस आधार पर बरी कर दिया था कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे आरोपियों के अपराध को साबित करने में विफल रहा है और इसलिए, वे संदेह का लाभ पाने के हकदार हैं। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि पत्नी ने पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ झूठी शिकायत दर्ज कराई थी।''

    यह भी कहा कि,

    ''केवल एक आपराधिक मामला दर्ज करने को ''क्रूरता'' नहीं कहा जा सकता है। अधिनियम की धारा 13 (1) (ia) के उद्देश्य के लिए, ''क्रूरता'' ऐसे चरित्र का जानबूझकर और अन्यायपूर्ण आचरण हो सकता है जिससे जीवन, अंग या स्वास्थ्य, शारीरिक या मानसिक तौर पर को खतरा हो या इस तरह के खतरे की उचित आशंका को जन्म दे रहा हो।''

    अदालत ने कहा कि पति ने किसी स्वतंत्र गवाह को पेश कर यह साबित नहीं किया है कि उसकी पत्नी को ससुराल छोड़ने की आदत थी और वह अपनी बहन या माता-पिता के घर उनको बिना बताए ही चली जाती थी।

    कोर्ट ने ओम प्रकाश बनाम रजनी मामले में दिए गए फैसले का हवाला दिया,जिसमें दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि पत्नी द्वारा अलग निवास की मांग करना सभी मामलों में ''क्रूरता'' नहीं मानी जाएगी।

    अदालत ने मंगयाकारसीब बनाम एम.युवराज,एआईआर 2020 एससी 1198 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भी भरोसा किया और कहा, ''मौजूदा मामले में, मुकदमा करने वाले पक्षों की एक बेटी है, जिसकी उम्र लगभग 19 साल है और वह अपीलकर्ता-पत्नी की कस्टडी में है। इस मुकदमे के परिणाम का निश्चित रूप से उसके भावी जीवन पर असर पड़ेगा और इसका उसकी शादी की संभावनाओं पर भी असर पड़ सकता है।''

    इसके अलावा बेंच ने श्रीमती रोहिणी कुमारी बनाम नरेंद्र सिंह,एआईआर 1972 एससी 459 के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया है कि स्पष्टीकरण के साथ पढ़े जाने वाले हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 10(1)(ए) के तहत परित्याग का अर्थ केवल एक अलग निवास और अलग रहना नहीं है। इसके लिए वैवाहिक संबंध और सहवास को समाप्त करने का संकल्प होना भी आवश्यक है।

    पीठ ने कहा, ''एनिमस डिसेरेन्डी के बिना अधिनियम की धारा 10 (1) (ए) के अर्थ के तहत कोई परित्याग नहीं हो सकता है। वर्तमान मामले में, पति यह साबित करने में विफल रहा है कि पत्नी का इरादा वैवाहिक संबंधों और सहवास के संबंध को पूरी तरह से खत्म करने का था। दूसरी ओर, रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री यह दर्शा रही है कि पत्नी और उसके परिवार के सदस्यों ने पति से समझौता करने के लिए सभी प्रयास किए थे, लेकिन वे सभी व्यर्थ गए थे।''

    जिसके बाद हाईकोर्ट ने 15 मार्च 2016 को चतुर्थ अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट,बंगलौर की अदालत द्वारा पारित निर्णय और डिक्री को रद्द कर दिया।

    केस का शीर्षक- एस श्यामला उर्फ कात्यायनी बनाम बी एन मल्लिकार्जुनाइया

    केस संख्या- विविध प्रथम अपील संख्या 3352/2016

    साइटेशन- 2022 लाइव लॉ (केएआर) 94

    आदेश की तिथि- 14 मार्च, 2022

    प्रतिनिधित्व-अधिवक्ता रमेश पी. कुलकर्णी अपीलकर्ता के लिए, एडवोकेट लीलाधर.एच.पी प्रतिवादी के लिए

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