"अपमानजनक शब्दों की अभिव्यक्ति मात्र से धारा 124A या 153A आकर्षित नहीं होती है", जम्‍मू व कश्मीर उच्च न्यायालय ने देश, सरकार और सेना के खिलाफ अपमानजनक ‌‌टिप्‍पणी करने के आरोपी पार्षद को जमानत दी

LiveLaw News Network

25 Sep 2020 10:01 AM GMT

  • अपमानजनक शब्दों की अभिव्यक्ति मात्र से धारा 124A या 153A आकर्षित नहीं होती है, जम्‍मू व कश्मीर उच्च न्यायालय ने देश, सरकार और सेना के खिलाफ अपमानजनक ‌‌टिप्‍पणी करने के आरोपी पार्षद को जमानत दी

    जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय ने गुरुवार (24 सितंबर) को LAHDC (लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, लेह) के एक निर्वाचित पार्षद को जमानत दे दी, जिस पर देश के नेतृत्व और सशस्त्र बलों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने का आरोप था।

    ज‌स्ट‌िस संजय धर की खंडपीठ जाकिर हुसैन (लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित LAHDC के पार्षद) की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें यह कहा गया था कि याचिकाकर्ता को 2020 की एफआईआर संख्या 33 के मामले में झूठा फंसाया गया है।

    बलवंत सिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा करते हुए हाईकोर्ट ने माना कि अपमानजनक या आपत्तिजनक शब्दों की अभिव्यक्ति आईपीसी की धारा 124 ए या 153 ए में निहित प्रावधानों को लागू करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकती है। उक्त प्रावधान तभी लागू होंगे जब लिखित या बोले गए शब्दों में हिंसा का सहारा लेकर अव्यवस्था या सार्वजनिक शांति भंग करने की प्रवृत्ति या इरादा हो।

    "इस अदालत के लिए इस सवाल पर टिप्पणी करना समय से पहले होगा कि क्या याचिकाकर्ता द्वारा की गई कथित बातचीत और सोशल मीडिया पर उसे अपलोड करने में हिंसा का सहारा लेकर सार्वजनिक शांति को भंग करने या अशांति पैदा करने की प्रवृत्ति है। याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप तय करते समय ट्रायल कोर्ट को उसी पर विचार करना होगा, जिसके खिलाफ, इस जमानत याचिका के लंबित होने के दौरान चालान दायर किया गया है।"

    आरोपी के खिलाफ धारा 124 ए (राजद्रोह), 153 ए (धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा, आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना और सद्भाव के रखरखाव के खिलाफ पूर्वाग्रहपूर्ण कार्य करना) 153 बी (प्रतिष्ठा, राष्ट्रीय-एकीकरण के खिलाफ पक्षपातपूर्ण दावे, आरोप), 505 (2) (वर्गों के बीच शत्रुता, घृणा या दुर्भावना की स्थिति पैदा करने या प्रचार करने वाले बयान) और 188 (पुलिस कर्मचारी, लोक सेवक द्वारा विधिवत पारित आदेश की अवज्ञा) के तहत पुलिस स्टेशन, कारगिल में एफआईआर दर्ज की गई थी।

    याचिकाकर्ता ने प्रधान सत्र न्यायाधीश, कारगिल की अदालत में जमानत की अर्जी दायर की थी, हालांकि उसे 28.07.2020 को खारिज कर दिया गया था।

    अभियोजन पक्ष द्वारा यह आरोप लगाया गया है कि याचिकाकर्ता ने देश और उसके सशस्त्र बलों के खिलाफ अत्यधिक आपत्तिजनक और अपमानजनक टिप्पणी की है और सोशल मीडिया पर उक्त टिप्पणी को अपलोड किया है, इसलिए, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है।

    केस की पृष्ठभूमि

    अभियोजन के मामले के अनुसार, 18.06.2020 को, पुलिस को विश्वसनीय स्रोतों से जानकारी मिली कि देश के सशस्त्र बलों के बारे में एक आपत्तिजनक बातचीत का ऑडियो क्लिप, जिसमें गलवान घाटी में भारतीय सेना और चीन की सशस्त्र सेनाओं के बीच झड़पों का संदर्भ था, सोशल मीडिया पर वायरल है।

    इस जानकारी के आधार पर, पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज की और मामले की जांच शुरु की गई। मामले की जांच के दौरान, 6.3 मिनट की अवधि का एक ऑडियो क्लिप जब्त किया गया, जिसमें याचिकाकर्ता/अभियुक्त, जाकिर हुसैन और सह-अभियुक्त निसार अहमद खान के बीच एक बातचीत पाई गई थी।

    बातचीत में याचिकाकर्ता द्वारा देश, देश के नेतृत्व और भारतीय सशस्त्र बलों के खिलाफ, कथित रूप से बेहद आपत्तिजनक अभिव्यक्ति और वाक्य इस्तेमाल किए गए थे, जिसके बाद याचिकाकर्ता को 19.06.2020 को गिरफ्तार किया गया।

    याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि भले ही यह मान लिया जाए कि याचिकाकर्ता ने बातचीत की थी और सोशल मीडिया पर इसे अपलोड किया गया था; फिर भी, याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 124A और 153A के तहत अपराध नहीं बनता है।

    उनके अनुसार, आईपीसी की धारा 124 ए के तहत एक मामला बनाने के लिए, यह आवश्यक है कि आपत्तिजनक टिप्पणी या भाषण से जनता के बीच किसी प्रकार की हिंसा या आंदोलन होना चाहिए, जो कि यहां मामला नहीं है।

    याचिकाकर्ता के वकील ने बलवंत सिंह व अन्य बनाम पंजाब राज्य (1995) 3 SCC 214 के मामले का हवाला दिया।

    बलवंत सिंह (सुप्रा) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि अपमानजनक या आपत्तिजनक शब्दों की अभिव्यक्ति आईपीसी की धारा 124 ए या 153 ए में निहित प्रावधानों को लागू करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हो सकती है।

    उक्त प्रावधान केवल तब लागू होंगे जब लिखित या बोले गए शब्दों में हिंसा का सहारा लेकर अव्यवस्था या सामूहिक शांति भंग करने की प्रवृत्ति हो।

    कोर्ट का विश्लेषण

    कोर्ट की राय थी कि कोर्ट के लिए इस सवाल पर टिप्पणी करना असामयिक होगा कि क्या याचिकाकर्ता द्वारा की गई कथित बातचीत और सोशल मीडिया अपलोड में हिंसा का सहारा लेकर अव्यवस्था या सामूहिक शांति भंग करने की प्रवृत्ति है।

    कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोप तय करते समय ट्रायल कोर्ट को इस पर विचार करना चाहिए। इसके अलावा, अदालत ने कहा कि मामले में चालान दायर किया गया है, जिसका अर्थ है कि मामले की जांच पूरी हो गई है।

    न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्ता ने ऐसा अपराध नहीं किया है, जिससे उसे मृत्युदंड दिया जाए, जैसे, दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 (1) (i) मामले में आकर्षित नहीं होता है।

    कोर्ट ने कहा,"याचिकाकर्ता की समुदाय में गहरी जड़ें हैं और वह LAHDC का निर्वाचित प्रतिनिधि है, जैसे कि, न्याय से उसके भागने की संभावना बहुत कम है ... केस डायरी से पता चलता है कि याचिकाकर्ता द्वारा कथित अपराध के तुरंत बाद, एक माफी प्रकाशित की गई थी और पछतावा व्यक्त किया गया था। कथित अपराध के बाद याचिकाकर्ता का यह आचरण, ऐसे ही अपराध की पुनरावृत्ति न होने का आश्वासन देता है।"

    उक्त कारणों के साथ न्यायालय ने याचिककर्ता की जमानत याचिका स्वीकार कर ली।

    मामले का विवरण

    केस टाइटिल: ज़ाकिर हुसैन/ पुलिस महानिदेशक और अन्य के माध्यम से यूटी ऑफ लद्दाख

    केस नंबर: बेल एप्‍ल‌िकेशन नंबर 6/2020

    कोरम: ज‌स्टिस संजय धर

    प्रतिनिधित्व: एडवोकेट एमए राठौर (याचिकाकर्ता के लिए); ASGI टीएम शम्सी, (उत्तरदाताओं के लिए)

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