नैतिक अधमता से जुड़े मामले में बरी हो जाना मात्रा पर्याप्त नहीं: सिक्किम हाईकोर्ट ने सिविल जज की नियुक्ति को वापस लेने के फुल कोर्ट के फैसले का समर्थन किया
LiveLaw News Network
11 May 2021 7:48 PM IST
सिक्किम हाईकोर्ट ने सोमवार को एक फैसले में कहा कि किसी व्यक्ति को संदेह का लाभ देकर नैतिक अधमता से जुड़े मामले में बरी करना, उसे रोजगार देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
चीफ जस्टिस जितेंद्र कुमार माहेश्वरी की बेंच ने कहा कि नियुक्ति पाने के लिए, मौजूदा मामले में न्यायिक नियुक्ति, बरी होना सम्मानजनक होना चाहिए।
कोर्ट ने कहा, "नियोक्ता को सभी उपलब्ध प्रासंगिक तथ्यों और पिछले जीवन पर विचार करने का अधिकार है और औचित्य और निष्ठा के मानक को देखते हुए रोजगार में कर्मचारी की निरंतरता पर उचित निर्णय ले सकता है। नियोक्ता को सिविल पद पर उम्मीदवार को नियुक्त करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, यदि उसे सम्मानजनक रूप से बरी नहीं किया गया है।"
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में राजस्थान राज्य बनाम लव कुश मीणा मामले में कानून की उक्त स्थिति को स्पष्ट किया था।
कोर्ट ने कहा था, "बरी होना पर्याप्त नहीं होगा, बल्कि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि यह सबूतों की गैर मौजूदगी पर आधारित साफ-सुथरी रिहाई है या..मामले को उचित संदेह से परे साबित करने का...पैमाना पूरा नहीं हो पाया हे, और संदेह का लाभ आरोपी को दिया गया है।"
मौजूदा मामले में, याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट की एक फुल कोर्ट के रिजॉल्यूशन को चुनौती दी थी, जिसने सार्वजनिक दस्तावेज के छेड़छाड़ के कारण आईपीसी की धारा 420/467/471 के तहत दर्ज एक आपराधिक मामले में कथित संलिप्तता के आधार पर सिविल जज-कम-ज्यूडिसियल मजिस्ट्रेट के पद पर उसकी नियुक्ति को वापस लेने की अनुशंसा की थी।
फुल कोर्ट ने सभी सामग्रियों की जांच करने के बाद, सर्वसम्मति से यह तय किया था कि याचिकाकर्ता का आचरण संदेह से परे नहीं है और इसलिए उसे न्याय प्रशासन का कार्य नहीं दिया जा सकता है।
दूसरी ओर, याचिकाकर्ता ने दलील दी कि वह अपने खिलाफ लगाए गए आरोपों से बरी हो चुका है और केवल एक आपराधिक मामला, जिसमें अदालत ने उसे बरी कर दिया है, उसे सिविल जज के रूप में नियुक्ति से वंचित करने का आधार नहीं हो सकता है।
हाईकोर्ट ने आदेश में कहा कि मुकदमे के दरमियान, अभियोजन पक्ष एक उचित संदेह से परे याचिकाकर्ता के खिलाफ मामले को साबित करने में विफल रहा, जिससे वह बरी हो गया (यह सम्मानजनक रिहाई नहीं थी)।
अदालत ने कई पुरानी मिसालों का उल्लेख किया, जैसे-
केंद्र शासित प्रदेश, चंडीगढ़ प्रशासन और अन्य बनाम प्रदीप कुमार और अन्य (2018) 1 SCC 797 में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि आपराधिक मामले में बरी होना संबंधित पद पर उम्मीदवारों की उपयुक्तता के लिए निर्णायक नहीं है, किसी व्यक्ति के बरी या आरोपमुक्त होने से हमेशा यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि उसे गलत तरीके से फंसाया गया था या उसका कोई अपराधिक इतिहास नहीं था।
मध्य प्रदेश और अन्य बनाम परवेज खान (2015) 2 SCC 591 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उम्मीदवार के आपराधिक इतिहास के आधार पर, जिन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया था या उन्हें आरोपमुक्त कर दिया गया था, उसे यह मानने की अनुमति नहीं दी जाएगी कि वह पूरी तरह से छूट गया था।
पुलिस आयुक्त, नई दिल्ली और अन्य बनाम मेहर सिंह, (2013) 7 SCC 685 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिन उम्मीदवारों को बरी करना सम्मानजनक नहीं है, वे सरकारी सेवा के लिए उपयुक्त नहीं हैं और इससे बचा जाना चाहिए।
आशुतोष पवार बनाम मध्य प्रदेश हाईकोर्ट, 2018 (2) MPLJ 419 में, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की एक पूर्ण पीठ ने कहा था कि न्यायिक अधिकारी से अपेक्षाएं बहुत अधिक हैं।
न्यायालय ने कहा था, "ऐसे उम्मीदवार, जो सिविल जज के रूप में नियुक्ति चाहते हैं, कि निष्ठा, ईमानदारी और अंखडता के संबंध में कोई समझौता नहीं किया जा सकता है। एक उम्मीदवार का व्यक्तिगत आचरण, जिसे न्यायिक अधिकारी के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, को किसी भी आरोप से मुक्त होना चाहिए। उसे औचित्य और निष्ठा के उच्चतम मानक के अनुरूप होना चाहिए।
यहां आचरण का मानक सामान्य नागरिक की अपेक्षा अधिक है और साथ ही कानून के पेशेवर की अपेक्षा भी अधिक है। ऐसा कहा जाता है कि आपराधिक मामले में दोषमुक्त होना यह मानने के लिए पर्याप्त नहीं है कि उम्मीदवार का चरित्र अच्छा है।"
इस पृष्ठभूमि में, सिक्किम हाईकोर्ट ने कहा, "तकनीकी कारण या महत्वपूर्ण गवाहों को पेश ना होने के कारण या गवाह पक्षद्रोही होने के कारण या पक्षकारों के बीच समझौता होने के कारण या अन्यथा अभियोजन पक्ष द्वारा आरोप नहीं साबित होने के कारण, बरी होना उचित संदेह से परे "सम्मानजनक बरी" होने की श्रेणी में नहीं आ सकता। और ऐसा बरी होना "सम्माननीय" की तुलना में कुछ और है...नौकरी की प्रकृति और उम्मीदवार की उपयुक्तता के संबंध में निर्णय लेने की इस प्रकार की कार्यवाही का विवेक नियुक्ति प्राधिकारी के पास होगा।"
केस टाइटिल: तारा प्रसाद शर्मा बनाम सिक्किम और अन्य।
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