पत्नी को पति की संपत्त‌ि मानने की मध्ययुगीन धारणा अब भी मौजूद, चाय देने से इनकार करना एकाएक या गंभीर रूप से भड़कने का कारण नहींः बॉम्बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

25 Feb 2021 5:43 AM GMT

  • पत्नी को पति की संपत्त‌ि मानने की मध्ययुगीन धारणा अब भी मौजूद, चाय देने से इनकार करना एकाएक या गंभीर रूप से भड़कने का कारण नहींः  बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने यह देखते हुए कि पत्नी को पति की संपत्त‌ि मानने की मध्ययुगीन धारणा अब तक मौजूद है, सदोष हत्या का प्रयास, जिसमें हत्या न हुई हो, के दोषी एक व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार की उदारता दिखाने से इनकार कर दिया।

    जस्टिस रेवती मोहिते डेरे ने पति की इस दलील को खारिज कर दिया कि उसकी पत्नी ने चाय बनाने से इनकार करके उसे एकाएक और गंभीर रूप से भड़कने का कारण दिया। उन्होंने दलील को "भद्दा, स्पष्ट रूप से अस्थिर और अरक्षणीय" बताया।

    पति ने चरित्र पर शक करने और चाय बनाने से इनकार करने के कारण उसे हथौड़ से मार दिया था, जिसके बाद पत्नी ने गंभीर चोट के कारण दम तोड़ दिया।

    कोर्ट ने कहा, "ऐसे मामले, लैंगिक असंतुलन को दर्शाते हैं - विषम पितृसत्ता, सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश, जिसमें एक व्यक्ति पला-बढ़ा है, जिनसे अक्सर वैवाहिक रिश्ते में प्रभावित होते हैं। लैंगिक भूमिका में असंतुलन है, पत्नी से एक गृहिणी के रूप में घर के सभी काम करने की उम्मीद की जाती है।"

    जस्टिस डेरे ने आगे कहा कि विवाह में भावनात्मक श्रम पत्नी द्वारा किए जाने की उम्मीद की जाती है।

    उन्होंने कहा, "समीकरण में इन असंतुलनों के साथ, अपेक्षा और अधीनता का असंतुलन है, महिलाओं की सामाजिक स्थिति, उन्हें अपने जीवनसाथी को सौंप देने को मजबूर करती है। इस प्रकार, पुरुष, ऐसे मामलों में, खुद को पहला भागीदार और पत्नी को, 'संपत्त‌ि' मानते हैं। "

    "पत्नी को संपत्त‌ि मानने की मध्ययुगीन धारणा, दुर्भाग्य से, अभी भी बहुमत की मानसिकता में बनी हुई है। यह पितृसत्ता की धारणाओं के अलावा कुछ नहीं।"

    अदालत ने दंपति की छह साल की बेटी की गवाही पर पूरा भरोसा किया, पत्नी के चाचा के अतिरिक्त न्यायिक कबूलनामे और खून से सने हथौड़े की बरामदगी पर काफी हद तक भरोसा किया। बेटी ने घटना को देखा था,जबकि पति ने चाचा को बताया था कि उसने पत्नी को हथौड़े से मारा है।

    निचली अदालत के जज ने बच्चे की गवाही को खारिज कर दिया था, क्योंकि यह घटना के 10-12 दिनों बाद दर्ज की गई थी।

    जस्टिस डेरे ने उल्लेख किया कि बच्चे के बयान को उसकी मां के निधन के पांच दिन बाद और सीआरपीसी की धारा 164 के तहत उसके बयान के लगभग 15 दिनों के बाद दर्ज किया गया हो सकता है, हालांकि वह जिरह के दरमियान कमजोर नहीं पड़ी। अदालत ने कहा कि ऐसे क्रूर तरीके से मां को खो देने के बच्चे को हुए आघात को ध्यान में रखना होगा।

    बच्चे ने माता-पिता को झगड़ते हुए देखा था। उसके पिता ने उसकी मां के सिर पर प्रहार किया था। बाद में मां के खून को साफ किया और उसे अस्पताल ले गए।

    "यह ध्यान में रखना होगा, पहले बच्चे का आघात, 6 साल की उम्र में मां के साथ पिता को मारपीट करते देखना; न केवल मारपीट को देखने का आघात, बल्कि मां को एक घंटे तक वहां पड़ा देखना; जिस दौरान, पिता (अपीलकर्ता) ने मां को खून साफ करने के लिए नहलाया और साथ ही उस जगह को साफ किया।"

    जस्टिस डेरे ने कहा कि वह आदमी अपनी पत्नी की जान बचा सकता था, यदि उसने खून साफ ​​करने में एक घंटा भी बर्बाद नहीं किया होता।

    "यदि अपीलकर्ता पत्नी को अस्पताल ले जाता, तो संभवतः उसकी जान बचाई जा सकती थी और बेटी अपनी मां को नहीं खोती थी।"

    पृष्ठभूमि

    अभ‌ियोजन पक्ष का मामला था कि महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के विठ्ठल अस्पताल के सर्वेंट क्वार्टर में रहने वाले 35 वर्षीय संतोष महादेव अटकर पत्नी के साथ अक्सर झगड़ा किया करता था। उसे संदेह था कि वह उसे धोखा दे रही है।

    19 दिसंबर, 2013 को लगभग 6:00 बजे पीड़िता मनीषा बिना चाय तैयार किए घर से जा रही थी, जिसके कारण दंपति में झगड़ा हुआ और अटकर ने अपनी पत्नी के सिर पर पीछे से हथौड़े से हमला कर दिया।

    उसके बाद आरोपी ने पत्नी को स्नान कराया और खून के धब्बों को मौके से मिटा दिया। उसके बाद वह उसे अस्पताल ले गया। मनीषा की हालत गंभीर थी और वह बोलने में असमर्थ थी। आखिरकार 25 दिसंबर, 2013 को उसने दम तोड़ दिया।

    एक जुलाई, 2016 को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, पंढरपुर ने अटकर को आईपीसी की धारा 304 (II) के तहत दोषी ठहराया और उसे 5000 रुपये के जुर्माने के साथ 10 साल जेल की सजा सुनाई।

    अदालत सजा के खिलाफ उसकी अपील पर सुनवाई कर रही थी।

    कोर्ट ने कहा, "अपराध में शामिल होने की ओर इशारा करते, रिकॉर्ड पर मौजूद पर्याप्त सबूतों पर विचार करते हुए, पैरा 2 में उल्लिखित अपराधों के लिए अपीलकर्ता को दोषी ठहराए जाने और सजा देने के फैसले और आदेश को लागू करने में कोई दुर्बलता नहीं पाई जा सकती है। रिकॉर्ड के तथ्य भी सजा में कोई कमी नहीं करते हैं। तदनुसार, अपील खारिज कर दी गई है।"

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