व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामलों को सावधानी से निपटाया जाना चाहिए, मौलिक अधिकारों के सम्मान और निष्पक्ष जांच के बीच संतुलन स्थापित किया जाना चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट

Shahadat

28 May 2022 10:06 AM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट, दिल्ली

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित मामलों को सावधानी से निपटा जाना चाहिए। इसके लिए उसके मौलिक अधिकारों के सम्मान और स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के बीच भी संतुलन बनाना होगा।

    जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376डी, 506 और 34 के तहत दर्ज एफआईआर में व्यक्ति को जमानत देते हुए यह टिप्पणी की।

    यह शिकायतकर्ता, याचिकाकर्ता की सगी बहन का मामला यह है कि विचाराधीन घटना कथित रूप से मार्च 2019 में हुई थी। जब शिकायतकर्ता के वकील से एफआईआर दर्ज करने में देरी के कारण के बारे में पूछा गया तो उसने कहा गया कि चूंकि यह संवेदनशील मामला है, इसलिए उनके पिता के कहने पर, जिनका दुर्भाग्य से अक्टूबर, 2021 में निधन हो गया था, शिकायतकर्ता ने कोई शिकायत दर्ज नहीं की।

    यह कहा गया कि परिवार की प्रतिष्ठा उसके लिए सर्वोपरि है। उसने अपने पिता के परामर्श के बाद, जिनका बाद में निधन हो गया था, वर्तमान एफआईआर अप्रैल, 2022 को यानी कथित घटना के लगभग तीन साल बाद दर्ज कराई थी। राज्य या शिकायतकर्ता के वकील द्वारा कोई अन्य कारण नहीं बताया गया।

    अदालत का विचार था कि उसे सचेत रहना होगा और ध्यान रखना होगा कि इस मामले में दो भाइयों द्वारा सगी बहन का यौन उत्पीड़न और याचिकाकर्ता की पत्नी की संलिप्तता भी शामिल है, जो कथित रूप से उस कमरे के बाहर पहरा दे रही थी जहां कथित घटना हुई थी।

    अदालत ने कहा,

    "मेरा विचार है कि प्रथम दृष्टया वर्तमान एफआईआर दर्ज करने में तीन साल की देरी है और आईपीसी की धारा 164 के तहत बयान में यह उल्लेख किया गया कि चूंकि उसके पिता ने उससे इसका खुलासा न करने का अनुरोध किया था, इसलिए उसने एफआईआर दर्ज करने से परहेज किया था।"

    कोर्ट का यह भी प्रथम दृष्टया विचार था कि शिकायतकर्ता का ही मामला है कि तीन साल तक ध्यान से सोचने के बाद उसने एफआईआर दर्ज कराई थी।

    कोर्ट ने आगे कहा,

    "इसलिए जब एफआईआर न तो जल्दबाजी में दर्ज की गई और न ही धमकी के तहत। वीडियो रिकॉर्डिंग को अभी भी एफआईआर में उल्लेख नहीं किया गया है।"

    शुरुआत में कोर्ट ने देखा:

    "हालांकि, विभिन्न मामलों में माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के मद्देनजर, यह न केवल लगाए गए आरोपों की गंभीरता है, बल्कि मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की भी जांच करने की आवश्यकता है कि अगर मामले में आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया जाता है तो वह न्याय से भागेगा या नहीं और अगर वह जांच में सहयोग करेगा या गवाहों को प्रभावित करने या सबूतों से छेड़छाड़ करने का प्रयास करेगा या नहीं।

    कोर्ट ने कहा,

    "किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता के मामलों को सावधानी से निपटाया जाना चाहिए, उसके मौलिक अधिकारों के सम्मान और स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के बीच भी संतुलन बनाना होगा।"

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील ने यह तर्क दिया कि वह पेशे से वकील हैं और जमानत मिलने की स्थिति में उनके देश छोड़ने या इस अदालत द्वारा लगाई गई किसी भी शर्त का पालन नहीं करने का कोई सवाल ही नहीं है।

    इसी के तहत कोर्ट ने जमानत दे दी।

    केस टाइटल: निजामुद्दीन खान बनाम राज्य और अन्य।

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