आपदा या महामारी हमारी जिंदगी को बाधित कर सकती है, लेकिन अनुच्छेद 21 की सुरक्षा लिए अदालतों के दरवाजे खुले रहने चाहिएः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

LiveLaw News Network

27 Nov 2020 4:11 AM GMT

  • आपदा या महामारी हमारी जिंदगी को बाधित कर सकती है, लेकिन अनुच्छेद 21 की सुरक्षा लिए अदालतों के दरवाजे खुले रहने चाहिएः इलाहाबाद उच्च न्यायालय

    इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह देखते हुए कि "छुट्टियों के कारण ड्यूटी न करना, सत्र न्यायाधीशों/ मजिस्ट्रेटों की ओर से कर्तव्य की एक गंभीर अवहेलना है", बुधवार (25 नवंबर) को लखनऊ/हरदोई और राज्य के मजिस्ट्रेटों/ न्यायाधीशों को अपना कर्तव्य निभाने में असफल रहने के कारण फटकार लगाई।

    जस्टिस अताउ रहमान मसूदी की खंडपीठ ने विशेष रूप से कहा, "एक व्यापक आपदा या महामारी कई मायनों में हमारी जिंदगी और शासन प्रणालियों को गंभीर रूप से बाधित कर सकती है, लेकिन भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के संरक्षण के लिए कानून की अदालतों के दरवाजे जरूर खुले रहने चाहिए।"

    मामला

    उच्च न्यायालय के समक्ष दायर दो जमानत आवेदनों में कानून का एक समान प्रश्न शामिल था। पहला आवेदन ((Bail No. 5384 of 2020) अभिषेक श्रीवास्तव ने दायर किया था और दूसरा आवेदन (Bail No. - 5756 of 2020) संजीव यादव ने दायर किया था।

    दोनों आवेदनों में, भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त अधिकार पर जोर दिया गया था। चूंकि आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) के तहत प्रदान की गई वैधानिक अवधि के भीतर अभियोजन पक्ष की ओर से आरोप पत्र दायर नहीं किया गया था, इसलिए डिफ़ॉल्ट आधार पर जमानत की मांग की गई ‌थी।

    पृष्ठभूमि

    अभिषेक श्रीवास्तव के मामले में, 2020 की जमानत याचिका संख्या 5384 में, 16 जनवरी, 2020 को पहला रिमांड आदेश पारित किया गया था, उसके बाद समय-समय पर न्यायिक हिरासत जारी रही और अंत में, रिमांड को 11 / 12 मार्च 2020 को चौदह दिनों की अवधि के लिए यान‌ी 25 मार्च 2020 तक के लिए बढ़ा दिया गया।

    इसके बाद, COVID के कारण 24 मार्च, 2020 से अदालतें बंद हो गई, और केवल पहले/ताजा रिमांड मामलों को ही किया गया और 25 मार्च, 2020 से 26 जून, 2020 तक कोई रिमांड आदेश पारित नहीं किया जा सका।

    2020 की जमानत अर्जी संख्या 5384 में 90 दिनों की अवधि 14 अप्रैल, 2020 को समाप्त हो गई और 25 मार्च, 2020 के बाद से किसी भी रिमांड आदेश के अभाव में, आवेदक (अभिषेक श्रीवास्तव) एक मई, 2020 को चार्जशीट दाखिल होने तक जेल में रहा। और उसके बाद 18 जून, 2020 को मजिस्ट्रेट द्वारा डिफॉल्ट जमानत की अस्वीकृति तक, वह जेल में रहा।

    इस संदर्भ में, कोर्ट ने कहा, "अभियुक्त आवेदक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अभियोजन पक्ष या न्याय के अभिभावक यानी अदालत के ध्यान के बिना झूलती रही। राज्य का कर्तव्य यह ‌था कि अदालत को अवगत कराकर आवेदक को स्वतंत्र किया जाता...। न्यायिक कर्तव्य का गैर-प्रदर्शन भी महामारी COVID-19 के कारण लागू देशव्यापी लॉक-डाउन की विफलता को दर्शाता है।"

    आवेदक का मामला यह था कि मजिस्ट्रेट ने सीमा अवधि से परे चार्जशीट दाखिल होने के बावजूद, (18 जून, 2020 के आदेश से), चार्जशीट के दाखिल होने पर डिफॉल्ट जमानत के अधिकार को समाप्त मानते हुए, जमानत की अर्जी खारिज कर दी।

    ऐसा ही मामला 2020 की जमानत संख्या 5756 में भी था, जिसे संजीव यादव ने दायर किया था। उनकी डिफॉल्ट जमानत का अधिकार 29 अप्रैल, 2020 (90 दिन पूरा होने) पर लागू हो गया। यह अधिकार 5 मई, 2020 को अदालत में चार्जशीट दायर किया जाने तक भी जीव‌ित रहा, और उसके बाद भी बचा रहा, हालांकि, उन्हें भी डिफॉल्ट जमानत से वंचित कर दिया गया।

    तर्क

    आवेदकों की ओर से पेश वकीलों ने तर्क दिया था कि पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने के लिए सीमा समाप्त होने के बाद राज्य द्वारा डिफॉल्ट जमानत के अप‌रिहार्य अधिकार से उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता है।

    यह तर्क दिया गया कि इस तथ्य के बावजूद कि रिहाई के लिए प्रार्थना की गई थी या नहीं, कर्तव्य को मजिस्ट्रेट पर स्थानांतरित कर दिया गया, जिसे संविधान के अनुच्छेद 21 के जनादेश के अनुसार आवेदकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सुव्यवस्थित और सुरक्षित करना चाहिए था...

    इसके अलावा, यह तर्क दिया गया था कि "लॉक-डाउन, जिसके कारण अदालतों को बंद कर दिया गया था, को न्याय‌िक हिरासत को वैध बनाने के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है, यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21, धारा 167 (2) में निर्धारित प्रक्रिया के साथ पढ़े, का उल्लंघन है।"

    दूसरी ओर, एजीए ने प्रस्तुत किया कि मजिस्ट्रेट की ओर से डिफ़ॉल्ट जमानत देने में कोई चूक नहीं की गई है, विशेषकर तब जब वर्तमान मामलों में से एक में पुलिस रिपोर्ट समय सीमा यानी 29 अप्रैल, 2020 को तैयार थी। [2020 की जमानत संख्या 5756 में, जिसे संजीव यादव ने दायर किया था] हालांकि अदालत के बंद होने के कारण दायर नहीं की जा सकी।

    2020 की जमानत संख्या 5384 के संबंध में, जिसे अभिषेक श्रीवास्तव ने दायर किया था, जिला न्यायाधीश ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पूर्णतया लॉक-डाउन के कारण अदालतों के बंद होने के कारण 25 मार्च 2020 से 16 जून, 2020 तक कोई रिमांड नहीं थी।

    यह उल्लेख किया गया कि चार्जशीट एक मई, 2020 पर रिमांड मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर की गई थी।

    यह उल्लेख किया गया कि अदालतों को अगले आदेश तक बंद कर दिया गया था, इसलिए, आरोपियों के रिमांड और बेल को अवकाश अभ्यास के रूप में करने के लिए निर्देशित किया गया था। यह अंतिम रूप से उल्लेख किया गया था कि अवकाश अभ्यास के अनुसार केवल पहले/ताजा रिमांड किया जाता था।

    उल्लेखनीय रूप से, उच्च न्यायालय ने 25 मार्च, 2020 को जारी अपने निर्देश में अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देश दिया था कि गिरफ्तार व्यक्ति की रिमांड और बेल अवकाश अभ्यास के अनुसार की जाएगी।

    जनरल रूल्स (क्रिमिनल), 1977 के नियम -186 के साथ-साथ हाईकोर्ट इलाहाबाद के एक सर्कुलर यानी C.L.NO. 102/ VIIb47 दिनांक 5 अगस्त, में कहा गया, "छुट्टी के दिन आपराधिक अदालत तत्काल प्रकृति के ऐसे कार्य का निस्तारण कर सकती है, जैसे जमानत या रिमांड देना या ऐसे अन्य काम करना, जो औचित्य के साथ कोर्ट से बाहर किया जा सकता है, और किसी भी कार्य को करने या आदेश देने से केवल इस आधार पर इंकार करना उचित नहीं होगा कि उक्त दिन राजपत्रित अवकाश है।"

    कोर्ट के सामने सवाल

    न्यायालय के समक्ष व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की पवित्रता का प्रश्न उठा था। प्रश्न था कि क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत अधिकार को सरकार द्वारा जारी लॉक-डाउन निर्देशों के कारण खत्म किया जाएगा या उच्च न्यायालय कोई जारी कोई निर्देश, जो छुट्टी के दिन लागू हो, वह धारा 167 (2) सीआरपीसी के तहत सन्निहित शासनादेश के विपरीत होगा?

    कोर्ट का अवलोकन

    कोर्ट ने कहा, जिला जज का बाध्यकारी कर्तव्य था कि लॉक-डाउन की अवधि में वह मजिस्ट्रेट / सत्र न्यायाधीशों की अदालतों को रिमांड ड्यूटी सौंपें और इस तथ्य के बावजूद कि अदालतें बंद थीं, रिमांड मामलों उठाए जाने के लिए बाध्य थे और जहां भी जेल में कैद एक अभियुक्त को दी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपरिहार्य अधिकार है, उसे सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित तरीके से ड‌‌िफॉल्ट जमानत की पेशकश की जानी चाहिए।"

    उच्च न्यायालय ने उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (2001) 5 एससीसी 453 के मामले में सुप्रीम कोट के निर्णय का हवाला दिया और यह देखा गया कि एक बार जेल में बंद अभियुक्त द्वारा डिफॉल्ट जमानत के लिए आवेदन दायर किए जाने के बाद पुलिस रिपोर्ट दाखिल करने मात्र से ड‌िफॉल्ट का अधिकार समाप्त नहीं होगा, और रिहाई के लिए डिफॉल्ट का अधिकार हमेशा उपलब्ध रहेगा।

    विशेष रूप से, एस कासी बनाम पुलिस निरीक्षक के माध्यम से राज्य, 2020 एससीसी ऑनलाइन एससी, 529 हाल ही में आयोजित किया गया है,

    "हम, इस प्रकार, इस विचार के हैं कि न तो यह न्यायालय 23 मार्च, 2020 के अपने आदेश से, सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत निर्धारित समय को समाप्त कर सकती है और न ही लॉकडाउन की घोषणा के बाद लगाए गए प्रतिबंध, निर्धारित समय के भीतर चार्जशीट नहीं जमा होने पर, डिफॉल्ट जमानत पाने के अभियुक्त के अपरिहार्य अधिकार, जिसे धारा 167 (2) द्वारा संरक्षित किया गया है, पर किसी भी प्रकार का प्रतिबंध लगाते हैं।"

    जमानत याचिका के संबंध में आदेश

    यह देखते हुए कि "2020 की जमानत आवेदन संख्या 5384 (अभिषेक श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) में कर्तव्य की स्पष्ट अवहेलना है और जिला न्यायाधीश की रिपोर्ट से स्थिति स्पष्ट है," अदालत ने कहा कि डिफ़ॉल्ट जमानत दी जाती है।

    मजिस्ट्रेट की अदालत को तदनुसार आवेदक अभिषेक श्रीवास्तव को रिहा करने का निर्देश दिया गया।

    2020 की एक अन्य जमानत आवेदन संख्या 5756 (संजीव यादव बनाम राज्य) के संबंध में, अदालत ने कहा कि कि अभियोजन पक्ष का अजीब तर्क है कि अदालत बंद रहने के कारण वह चार्जशीट दायर नहीं कर पाए। कोर्ट ने कहा कि आवेदक संजीव यादव जमानत के हकदार हैं।

    मामले में सदस्य सचिव, यूपी राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को निर्देश दिया गया है कि वह संबंधित जिलों के सभी प्रासंगिक विवरणों के साथ अगली तारीख पर पेश हो।

    मामले को गुरुवार (10 दिसंबर 2020) को आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है।

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