यौन शोषण के मामलों में ट्रायल कोर्ट को पीड़िता से अशिष्ट, अश्लील व अभद्र सवाल पूछने की अनुमति नहीं देनी चाहिए : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

21 Aug 2020 3:05 PM GMT

  • यौन शोषण के मामलों में ट्रायल कोर्ट को पीड़िता से अशिष्ट, अश्लील व अभद्र सवाल पूछने की अनुमति नहीं देनी चाहिए : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने कहा है कि बलात्कार के मामलों में पीड़िता से ''अशिष्ट, अश्लील व अभद्र सवाल'' पूछने की अनुमति ट्रायल कोर्ट को नहीं देनी चाहिए। साथ ही हाईकोर्ट ने गुरुवार को अपने रजिस्ट्रार जनरल से कहा है कि वह पंजाब,हरियाणा व चंडीगढ़ में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध के मामलों को सुनने वाले पीठासीन अधिकारियों/विशेष कोर्ट को उनकी उपरोक्त टिप्पणी का प्रसार कर दें या उनको इस संबंध में सूचित कर दें।

    न्यायमूर्ति अरविंद सिंह सांगवान ने कहा कि ट्रायल कोर्ट का इस तरह का आचरण 'पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह (1996) मामले' में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों का उल्लंघन है। इस मामले में अपना फैसला देते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि यौन उत्पीड़न के मामलों में पीड़िता से जिरह करते समय न्यायालय को सतर्क रहना चाहिए ताकि बचाव पक्ष का वकील पीड़िता से बलात्कार का विवरण जानने के लिए पूछे जाने वाले सवालों को जारी रखने के लिए कोई रणनीति न अपना पाए। न ही अदालत को उस समय मूकदर्शक बनकर बैठना चाहिए,जब बचाव पक्ष का वकील पीड़िता से जिरह कर रहा हो। अदालत को दर्ज की जानी वाली गवाही को प्रभावी तरीके से नियंत्रित करना चाहिए ताकि पीड़िता को प्रताड़ित न किया जा सकें।

    एकल न्यायाधीश की पीठ बलात्कार के एक मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा सुनाई गई सजा के आदेश के खिलाफ दायर कई सारी अपील पर सुनवाई कर रही थी।

    सिंगल बेंच ने कहा कि आरोपियों की ओर से प्रति परीक्षण या जिरह करते समय, उनके वकीलों ने पीड़िता से कुछ सवाल किए थे। जो ''इस अदालत की राय में'', बलात्कार पीड़िता से आरोपी की बेगुनाही साबित करने के लिए नहीं किए जा सकते थे।

    अपने फैसले में जस्टिस सांगवान ने कहा कि

    ''एक प्रश्न और इसका उत्तर इस प्रकार है- 'प्रश्न' क्या आरोपी अशरफ मीर ने अपनी पूर्ण संतुष्टि में आपके साथ संभोग किया था या नहीं और क्या संभोग का कार्य पूरा हुआ था? 'जवाब' मैंने अपने कपड़े उतार दिए थे और कोई पुरुष एक महिला के साथ संभोग करते समय जो भी करता है,वो सब आरोपी मोहम्मद अशरफ मीर ने पूरी तरह से मेरे साथ किया था।''

    सिंगल बेंच ने कहा कि

    ''अगर बचाव पक्ष के वकील पीड़िता की गवाही को तोड़ नहीं पा रहे थे तो ट्रायल कोर्ट को इस तरह के सवालों को पीड़िता से पूछने की अनुमति नहीं देनी चाहिए थी।''

    हाईकोर्ट ने कहा कि बचाव पक्ष इतनी मजबूती से स्थापित किया गया था कि पीड़िता से जिरह के दौरान कुछ सवाल इस हद तक भी पूछे गए थे-''क्या मोहम्मद अशरफ मीर (ए -5) के साथ संभोग करते समय, वह (पीडब्लू-1) उसे संतुष्ट करने में सक्षम थी ", जिसका उसने जवाब दिया। ''

    उससे एक और सवाल भी पूछा गया कि दो व्यक्तियों में से यानी मोहम्मद अशरफ मीर (ए-5) और एक (सी-20) में से पहले उसके साथ संभोग किसने किया था? इसके बाद फिर से पीडब्ल्यू-1 (डब्ल्यू-1) ने इसका जवाब दिया कि मोहम्मद अशरफ मीर (ए -5) ने पहले सेक्स किया था।''

    पीठ ने इस बात पर भी अचंभा जाहिर किया कि

    '' प्रति परीक्षण के बाकी हिस्से को देखने के बाद पता चलता है कि बचाव पक्ष के वकील ने विभिन्न सवाल पूछकर पीड़िता के चरित्र पर भी आरोप लगाने की कोशिश की थी। उसे सुझाव दिया गया था कि कई अन्य व्यक्तियों के साथ उसने अपनी मर्जी से संबंध बनाए थे क्योंकि वह देह व्यापार में लिप्त थी।''

    अपने फैसले में, एकल न्यायाधीश ने 'पंजाब राज्य बनाम गुरमीत सिंह'' मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के कुछ ऑपरेटिव पार्ट को उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है-

    ''हाल ही में, अदालतों में यौन उत्पीड़न की पीड़ितों से जिरह के दौरान किए जाने वाले व्यवहार की काफी आलोचना की गई है। तथ्यों की प्रासंगिकता के संबंध में साक्ष्य अधिनियम के प्रावधान होने के बावजूद भी कुछ बचाव पक्ष के वकील बलात्कार के विवरण के रूप में पीड़िता से लगातार सवाले पूछने की रणनीति अपनाते हैं।

    पीड़िता से बार-बार बलात्कार की घटना का विवरण पूछा जाता है। लेकिन ऐसा तथ्यों को रिकॉर्ड पर लाने के लिए या उसकी विश्वसनीयता का चेक करने के लिए नहीं बल्कि उसकी कहानी में विसंगतियों को खोजने के लिए किया जाता है ताकि उसके द्वारा बताई गई घटना की व्याख्या को तरोड़ा-मरोड़ा जा सकें और यह दिखाया जा सकें कि वह अपने आरोपों में अस्थिर है या परस्पर-विरोधी तथ्य पेश कर रही है।

    इसलिए, जब बचाव पक्ष पीड़िता से प्रति परीक्षण कर रहा हो उस समय अदालत को मूक दर्शक के रूप में नहीं बैठना चाहिए। अदालत को साक्ष्य की रिकॉर्डिंग को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना चाहिए। जब भी अभियुक्त को प्रति परीक्षण या जिरह के जरिए पीड़िता के पक्ष की सत्यता और विश्वसनीयता को चेक करने की अनुमति दी जाए तो अदालत को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इस प्रति परीक्षण को पीड़िता का उत्पीड़न करने या उसे अपमानित करने का साधन न बनाया जाए।

    यह याद रखना चाहिए कि एक बलात्कार की पीड़िता पहले ही एक दर्दनाक अनुभव से गुजरना पड़ता है। ऐसे में अगर अपरिचित परिवेश में बार-बार उसके साथ हुई घटना के बारे में पूछा जाएगा तो वह बहुत शर्मिंदा हो सकती है। इतना ही नहीं ऐसी स्थिति में वह नर्वस भी हो सकती है या बोलने में भ्रमित हो सकती है। वहीं उसकी चुप्पी या उसके एक भ्रमित वाक्य की गलत तरीके से व्याख्या की जा सकती है और उसे उसकी गवाही की ''विसंगतियों और विरोधाभासों'' के रूप में माना जा सकता है।''

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