कर्नाटक हाईकोर्ट ने गैर-सहायता प्राप्त प्राइवेट स्कूलों के लिए फीस को विनियमित करने की राज्य सरकार की शक्ति समाप्त की

Shahadat

17 Jan 2023 5:32 AM GMT

  • हाईकोर्ट ऑफ कर्नाटक

    कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना कि राज्य सरकार प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों की फीस स्ट्रक्चर में हस्तक्षेप और नियंत्रण नहीं कर सकती। इस प्रकार इसे कर्नाटक शिक्षा अधिनियम 1983 की धारा 48 के विरुद्ध घोषित किया गया, जो प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को राज्य सरकार द्वारा निर्धारित के अलावा किसी भी तरीके से फीस एकत्र करने से रोकता है।

    जस्टिस ई एस इंदिरेश की एकल न्यायाधीश पीठ ने टीएमए पई फाउंडेशन मामले का उल्लेख किया और सहमति व्यक्त की कि फीस स्ट्रक्चर पर निर्णय प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों पर छोड़ दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे शैक्षणिक संस्थान सरकार से किसी भी धन की मांग नहीं करते हैं या उस पर निर्भर नहीं हैं। यह भी माना कि आरटीई के माध्यम से छात्रों को एडमिशन देने से उनके वित्तीय मामले प्रभावित हो रहे हैं।

    पीठ ने इस प्रकार देखा कि प्रतिवादी-राज्य द्वारा प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों द्वारा फीस तय करने के मामले में हस्तक्षेप संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

    पीठ ने अधिनियम की धारा 2(11-ए) और 124-ए को भी संविधान के अनुच्छेद 14 को अधिनियम की धारा 124-ए धारा 48 के उल्लंघन के लिए दंड के संबंध में विपरीत घोषित किया।अधिनियम की धारा 2(11-ए) इन संस्थानों की निगरानी के लिए जिला शिक्षा नियामक प्राधिकरण का गठन से संबंधित है।

    अदालत ने अधिनियम की धारा 5-ए और 112-ए (धारा 5-ए के उल्लंघन के लिए दंड) को भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 (1) (जी) के विपरीत घोषित किया। आगे यह घोषित किया कि उक्त धाराओं और नियमों के तहत राज्य सरकार द्वारा जारी की गई कोई भी अधिसूचना असंवैधानिक है और वे प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों पर लागू नहीं होती।

    कोर्ट ने हालांकि संस्थानों को 'लक्ष्मण रेखा' पार नहीं करने की चेतावनी दी।

    कोर्ट ने कहा,

    "मुख्य नियम यह होगा कि फीस स्ट्रक्चर तैयार करते समय उचित और निष्पक्ष कार्य किया जाए, जिससे भारत के संविधान निर्माताओं के सपनों को पूरा करने के लिए इस कल्याणकारी राज्य में कोई भी बच्चा प्रारंभिक शिक्षा से वंचित न रहे।

    याचिकाकर्ताओं का तर्क:

    याचिकाकर्ताओं प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों ने मुख्य रूप से तर्क दिया कि वे वित्तीय पहलुओं के मामले में सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों से अलग हैं और इसलिए इन प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों की फीस स्ट्रक्चर अलग होनी चाहिए और प्रतिवादी राज्य द्वारा लगाए गए फीस स्ट्रक्चर द्वारा नियंत्रित नहीं की जा सकती है।

    इसके अलावा, टीएमए पाई के मामले में फैसले पर भरोसा करते हुए यह आग्रह किया गया कि इन प्राइवेट शिक्षण संस्थानों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकार प्राप्त है, विशेष रूप से संस्थानों में प्रवेश के संबंध में। इसलिए इन संस्थानों को अपनी स्वयं की फीस स्ट्रक्चर रखने की स्वायत्तता और स्वतंत्रता है।

    इसके अलावा, ये संस्थान राज्य सरकार द्वारा सहायता प्राप्त या वित्त पोषित नहीं हैं और राज्य सरकार के फीस स्ट्रक्चर आरटीई अधिनियम के दायरे में आने वाले संस्थानों द्वारा निर्धारित फीस से कम है। इसलिए नियम 1995 के नियम 10, जो फीस संग्रह करने का अधिकार प्रावधान करता है, गैर-सहायता प्राप्त प्राइवेट शिक्षण संस्थानों पर लागू नहीं किया जा सकता। तदनुसार, नियम 1995 के नियम 10 और नियम 1999 के नियम 4 को अमान्य करने की मांग की गई, जैसा कि भारत के संविधान के विपरीत घोषित कानून के विपरीत भी टी.एम.ए. पीएआई फाउंडेशन केस में कहा गया है।

    राज्य ने याचिकाओं का विरोध किया

    राज्य सरकार ने 18 मई, 2018 की उस अधिसूचना को सही ठहराने की मांग की, जिसके द्वारा प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों में फीस को विनियमित करने की मांग की गई। इसने प्रस्तुत किया कि अधिसूचना बच्चों के हित को ध्यान में रखते हुए और शिक्षण संस्थानों को कैपिटेशन फीस लेने और लाभ का मकसद बनने से नियंत्रित करने के लिए जारी की गई।

    जांच - परिणाम:

    पीठ ने कर्नाटक के गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों बनाम कर्नाटक राज्य पर भरोसा किया, जिसके तहत पिछले साल हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने अधिनियम की धारा 5, 7(5)(बी), 7(1)(ई) और 38(1)( a) और नियम 18(2 और 3), नियम 1995 के नियम 19(3), और नियम 1999 के नियम 4 को भारत के संविधान के अधिकार से बाहर और TMA पई के निर्णय के विपरीत है।

    पीठ ने कहा,

    "यह याचिकाकर्ताओं पर बाध्यकारी है, क्योंकि इनमें से कुछ रिट याचिकाओं में उन प्रावधानों को चुनौती दी गई है।"

    आगे अदालत ने कहा,

    "अधिनियम की धारा 48 फीस और दान का प्रावधान करती है और अधिनियम की धारा 51 अनुदान के अलावा अन्य स्रोतों से प्राप्त धन का प्रावधान करती है। ये दोनों प्रावधान एक-दूसरे के विपरीत चलते हैं। इसलिए अधिनियम की धारा 48 के तहत फीस, दान और अन्य भुगतान लगाने, एकत्र करने और चार्ज करने का अधिकार असंवैधानिक माना जाता है, क्योंकि प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों के प्रशासन में सरकारी अधिकारियों का सीधा हस्तक्षेप है। ”

    इसने यह भी कहा,

    “जब प्रावधानों को सक्षम करना स्वयं असंवैधानिक और अधिकारातीत है तो प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दंडात्मक प्रावधान जारी नहीं रखा जा सकता। इस मामले को देखते हुए संशोधित प्रावधान यानी अधिनियम की धारा 1(2)(iiia) को सीबीएसई/आईसीएसई से संबद्ध स्कूलों तक विस्तारित करना अधिनियम की क्षमता से परे है।

    यह देखते हुए कि हालांकि अधिनियम की धारा 124-ए और धारा 48 के उल्लंघन के लिए दंड का प्रावधान करती है। हालांकि, अधिनियम की धारा 124-ए के बाद धारा 48 के तहत कार्रवाई करने से पहले कोई प्रासंगिक नियम नहीं हैं और न ही अधिनियम में जांच करने, दोषी प्राइवेट गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों को अवसर प्रदान करने का प्रावधान है।

    पीठ ने कहा,

    "अकेले इस आधार पर ये दो प्रावधान यानी अधिनियम की धारा 48 और 124-ए भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं और इसलिए इसे अमान्य माना जाता है।"

    पीठ ने यह भी कहा कि राज्य सरकार ने अदालत को संतुष्ट करने के लिए कोई दस्तावेज पेश नहीं किया कि शिक्षा अधिनियम में लागू की गई अधिसूचना/संशोधन/नियमों को राष्ट्रपति द्वारा अनुमति दी गई और उक्त अधिसूचना/संशोधन/नियमों को राज्यपाल द्वारा सहमति दी गई।

    इसके बाद पीठ ने कहा,

    "मेरा विचार है कि सरकार के दोनों स्तरों (समवर्ती सूची) क्षेत्र में राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त किए बिना अधिनियम में किया गया कोई भी संशोधन, प्रक्रियात्मक अवैधता के बराबर है। इसलिए ऐसा अधिनियम में किए गए संशोधन को सक्षमता के प्रश्न पर असंवैधानिक ठहराए जाने की आवश्यकता है। विवादित अधिसूचना/संशोधन/नियम राष्ट्रपति की सहमति के बिना राजपत्रित है और ये असंवैधानिक हैं।"

    बच्चों की सुरक्षा के नियम सबके लिए होने चाहिए

    अधिनियम की धारा 5ए खारिज करते हुए पीठ ने कहा,

    "प्रतिवादी-सरकार द्वारा ऐसी कोई सामग्री पेश नहीं की गई, जिसमें दिखाया गया हो कि उसने अधिनियम की धारा 5-ए और 112-ए के तहत फ्रेम नियम तैयार किए, न ही माननीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा अविनाश मेहरोत्रा बनाम भारत संघ (2009)6 SCC 398 के मामले में स्कूलों में सुरक्षा मानकों और संबंधित आवश्यकताओं के संबंध में जारी दिशा-निर्देशों को लागू किया।

    इसके बाद कोर्ट ने सरकार से "प्राइवेट स्कूलों में ही नहीं, बल्कि सरकारी स्कूलों में भी इसे लागू करने के लिए सुरक्षा मानकों को बनाए रखने के लिए एक स्वतंत्र नियम तैयार करने का आग्रह किया।"

    इस प्रकार यह आयोजित किया गया,

    "मेरा विचार है कि अधिनियम की धारा 5-ए भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत दुर्बलता से ग्रस्त है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि धारा 5-ए भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के विपरीत है, इसलिए अधिनियम की धारा 112-ए के तहत प्रदान किया गया दंडात्मक प्रावधान भी असंवैधानिक है और इसे रद्द किया जा सकता है।

    केस टाइटल: रश्मी एजुकेशन ट्रस्ट विद्यानिकेतन स्कूल व अन्य बनाम कर्नाटक राज्य व अन्य

    केस नंबर: रिट याचिका नंबर 6313/2017 (ईडीएन) सी/डब्ल्यू रिट याचिका नंबर 33161/2017, 47074/2018, 47077/2018, 5072/2019, 6185/2019, 9149/2019, 11657/2019, 14703/2019, 6396/2020, 15268/2021, 16418/2021, 15268/2021 और 16418/2021

    साइटेशन: लाइवलॉ (कर)14/2023

    आदेश की तिथि: 05-01-2023

    प्रतिनिधित्व: याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट मधुसूदन आर नाइक, एस. बसवराजू, म.प्र. श्रीकांत, जी.आर. मोहन, अभिनव रामानंद और उत्तरदाताओं के लिए एडिशनल एडवोकेट जनरल ध्यान चिनप्पा ए/डब्ल्यू आगा प्रमोधिनी किशन पेश हुए।

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