भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम के तहत आरोपों पर अभियोजन के लिए कस्टम एक्ट की धारा 137 के तहत मंजूरी की आवश्यकता नहीं: कर्नाटक हाईकोर्ट

Shahadat

3 Aug 2022 9:56 AM GMT

  • हाईकोर्ट ऑफ कर्नाटक

    कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने माना कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दंडनीय अपराधों के तहत आरोपित कस्टम विभाग के अधिकारी पर मुकदमा चलाने के लिए कस्टम एक्ट की धारा 137 के तहत मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।

    हाईकोर्ट ने कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19 के तहत दी गई मंजूरी पर्याप्त है।

    जस्टिस डॉ. एचबी प्रभाकर शास्त्री की एकल न्यायाधीश पीठ ने जॉर्ज वर्गीज नाम के व्यक्ति द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया। इस याचिका में विशेष सीबीआई अदालत के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया गया था।

    याचिकाकर्ता पर भारतीय दंड संहिता, 1860 (आईपीसी) की धारा 420, 467, 468 और 471 के सपठित धारा 120बी और भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम की धारा 13(2) और 13(1)(डी) के तहत आरोप लगाया गया है।

    सीबीआई द्वारा आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ता ने लोक सेवक के रूप में कार्य करते हुए कस्टम अधीक्षक की हैसियत से कस्टम के निरीक्षक और मेसर्स के सीईओ के साथ आपराधिक साजिश की। जनवरी 2003 के दौरान अमीषा इंटरनेशनल (आरोपी के रूप में भी आरोपित) और उसके बाद भी फर्म द्वारा निर्यात के लिए माल ले जाने वाले कंटेनर को फिजिकल सत्यापित किए बिना मंजूरी दे दी, जिससे भारत सरकार को 26,94,251/- रुपये का नुकसान हुआ।

    याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि कथित अपराधों की तिथि पर वह सीमा शुल्क विभाग में कार्यरत था। इस प्रकार, संज्ञान लेने के लिए कस्टम एक्ट की धारा 137 के तहत एक मंजूरी आदेश अनिवार्य है।

    जांच - परिणाम:

    पीठ ने कस्टम एक्ट की धारा 137 का हवाला दिया और कहा,

    "उपरोक्त अनुभाग को पढ़ने से पता चलता है कि यह प्रधान आयुक्त कस्टम या आयुक्त कस्टम है, जो मंजूरी देने का अधिकार है। हालांकि, कस्टम एक्ट की धारा 137 (1) के तहत उक्त मंजूरी दी गई है। कस्टम एक्ट की धारा 132, धारा 133, धारा 134, धारा 135 या धारा 135-ए के तहत उक्त मंजूरी केवल उन अपराधों के संबंध में आवश्यक है।"

    कोर्ट ने यह भी जोड़ा,

    "मामले में वर्तमान याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोपित अपराध आईपीसी की धारा 120 बी, 420, 467, 468 और 471 और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (2) औप धारा 13 (1) (डी) के तहत दंडनीय हैं। इस प्रकार, वर्तमान याचिकाकर्ता के खिलाफ कस्टम एक्ट की धारा 132, 133, 134, 135 या 135-ए के तहत कोई भी अपराध आरोपित नहीं किया गया है। इसलिए, कस्टम एक्ट की धारा 137 के तहत मंजूरी देने की आवश्यकता नहीं है।"

    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 19(1)(सी) का हवाला देते हुए पीठ ने कहा,

    "भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (1) (डी) सपठित धारा 13 (2) और धारा 19 (1) (सी) के तहत दी गई मंजूरी को कानून की नजर में अवैध मंजूरी नहीं कहा जा सकता है।"

    याचिकाकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि मंजूरी देने वाला प्राधिकारी (आबकारी आयुक्त) मंजूरी देने के लिए सक्षम प्राधिकारी नहीं था, क्योंकि याचिकाकर्ता सीमा शुल्क विभाग में अपराधों की तारीख को सेवा दे रहा था। यह प्रस्तुत किया गया कि दोनों विभागों में अलग-अलग कमिश्नरी हैं और उन दो विभागों के अधिकारियों की सेवाओं को आपस में बदला नहीं जा सकता। इस प्रकार, आबकारी आयुक्त द्वारा दी गई स्वीकृति अमान्य स्वीकृति है।

    पीठ ने याचिकाकर्ता के सेवा रिकॉर्ड को ध्यान में रखा जैसा कि अभियोजन पक्ष ने संकेत दिया कि याचिकाकर्ता को शुरू में आबकारी विभाग में नियुक्त किया गया था, लेकिन कथित अपराधों की तारीख के अनुसार, वह विभाग में अधीक्षक के रूप में कार्यरत था। हालांकि, स्वीकृति की तिथि के अनुसार, उसे वापस आबकारी विभाग में भेज दिया गया, जैसे, यह आबकारी आयुक्त है, जिसके पास याचिकाकर्ता को हटाने की शक्ति/प्राधिकार है। इस प्रकार केंद्रीय उत्पाद शुल्क आयुक्त द्वारा स्वीकृति प्रदान की गई है।

    कोर्ट ने यह कहा,

    "तथ्य यह है कि याचिकाकर्ता वर्ष 1974 में केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग में शामिल हुआ था। वर्ष 2011 में केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग से सेवानिवृत्त हुआ। हालांकि बीच में उसे स्थानांतरित कर दिया गया और कस्टम अधीक्षक के रूप में नियुक्त किया गया। लेकिन उसने उक्त असाइनमेंट या प्रतिनियुक्ति या स्थानांतरण को किसी भी नाम से चुनौती नहीं दी, चाहे वह किसी भी नाम से पुकारा जाए। ​​भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के प्रावधानों के तहत जब उस पर मुकदमा चलाने की मंजूरी का सवाल उठता है तो वह उक्त तर्क को आगे नहीं बढ़ा सकता है कि कस्टम विभाग को एक अलग आयुक्तालय मिला है।"

    सीबीआई और अन्य बनाम प्रमिला वीरेंद्र कुमार अग्रवाल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "मंजूरी के अभाव में निस्संदेह विरोध किया जा सकता है लेकिन ट्रायल के दौरान मंजूरी की अमान्यता को नहीं उठाया जा सकता।"

    केस टाइटल: जॉर्ज वर्गीज बनाम पुलिस अधीक्षक

    केस नंबर: 2012 की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका संख्या 1193

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (कर) 301

    आदेश की तिथि: जुलाई, 2022 का 15वां दिन

    उपस्थिति: सीनियर एडवोकेट किरण एस. जावली, याचिकाकर्ता के लिए एडवोकेट चंद्रशेखर के; प्रतिवादी के लिए विशेष लोक अभियोजक पी. प्रसन्ना कुमार

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