ग्राम पंचायत चुनावों के मध्यवर्ती चरण में नामांकन पत्रों की अस्वीकृति के खिलाफ याचिका के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया नहीं जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

16 Jan 2021 5:40 AM GMT

  • ग्राम पंचायत चुनावों के मध्यवर्ती चरण में नामांकन पत्रों की अस्वीकृति के खिलाफ याचिका के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया नहीं जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति ए.एस. गडकरी और न्यायमूर्ति जी.एस. कुलकर्णी एक पूर्ण पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 226 के तहत दायर की गई रिट याचिका, जिसमें रिटर्निंग अधिकारी द्वारा नामांकन पत्रों की अस्वीकृति को चुनौती दी गई थी। यह चुनाव प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने में एक कदम नहीं है। हाईकोर्ट की खंडपीठ द्वारा याचिका को बरकरार रखने के संबंध में अलग-अलग कोर्ट के दो राय के चलते यह मामला हाईकोर्ट की एक बड़ी बेंच को सौंप दिया गया।

    पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि,

    "संविधान के अनुच्छेद 243-O(b) और अनुच्छेद 226 के तहत याचिकाएं हाईकोर्ट के समक्ष रखा गया। इन याचिकाओं के माध्यम से नामांकन पत्रों को खारिज करने वाले रिटर्निंग अधिकारी द्वारा पारित आदेशों को चुनैती दी गई थी।"

    पृष्ठभूमि

    बॉम्बे हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच उन सभी याचिकाओं पर काम कर रही थी, जिसमें भोस ग्राम पंचायत के रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा पारित आदेशों को चुनौती दी थी। दरअसल, रिटर्निंग ऑफिसर द्वारा याचिकाकर्ताओं के नामांकन पत्र खारिज कर दिए गए थे। इसलिए, याचिकाकर्ता ने रिटर्निंग अधिकारी के थोपे गए आदेशों को अलग करने और और राज्य चुनाव आयोग को निर्देश दिया जाए कि वो ग्राम पंचायत चुनावों को रद्द करके नए सिरे चुनाव कराए। इसके साथ ही कथित रूप से गांव के अधिकारियों द्वारा नामांकन पत्रों की अस्वीकृति के लिए बनाए प्रमाण पत्र के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए प्रार्थना की गई थी।

    दोनों पक्षों ने संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अलग-अलग तर्क दिए. दोनों पक्षों के काउंसल के बाद डिवीजन बेंच द्वारा महसूस किया गया कि इस मामले की सुनवाई के लिए एक बड़ी बेंच के पास भेजा जाना चाहिए।

    राज्य चुनाव आयोग द्वारा विनोद पांडुरंग भरसकडे बनाम रिटर्निंग ऑफिसर, अकोट (2003) मामले में दिए गए फैसले के तर्क पर कहा कि,

    "याचिकाएं बरकरार नहीं रखी गई हैं और बॉम्बे हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने कहा कि चुनाव संबंधी किसी भी विवाद में चुनाव के बाद चुनाव विवाद के बढ़ा चढ़ाकर उठाया जा सकता है।"

    याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील दी गई कि,

    सुधाकर और अन्य और विठ्ठल मिसल बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य 2007 (6) ऑल एमआर 773 और श्रीमती. मायराजू घूघवे बनाम ग्राम पंचायत, धामनगांव के रिटर्निंग अधिकारी और अन्य 2004 (4) ऑल एमआर 258 इन दोनों मामले में सुनाए गए फैसले के आधार पर याचिकाएं कोर्ट के समक्ष अनुरक्षित थी। इसमें याचिकाएं बरकरार रखी गई थीं क्योंकि इसमें चुनाव पर सवाल नहीं उठाया गया था, बल्कि चुनाव लड़ने के अधिकार का मसला था।

    डिवीजन बेंच ने कहा था कि,

    "अनुच्छेद 243-O(b) के तहत रिट याचिकाएं बरकार नहीं हैं और अगर यह चुनाव पूरा करने की सुविधा के संबंध में है, तो याचिकाकर्ताओं को न्यायिक समीक्षा में लगाए गए आदेशों को चुनौती देना चाहिए।"

    हालांकि, तीनों निर्णयों में विवाद के कारण, खंड पीठ ने निम्नलिखित प्रश्नों को बड़ी पीठ के समक्ष संदर्भित किया:

    1. क्या ऐसे मामले में रिट याचिका द्वारा चुनौती दिया जा सकता है कि जिसमें चुनाव लड़ने के लिए नामांकन फार्म की अस्वीकृति किया गया हो और इस तरह के अस्वीकृति के आदेश, हस्तक्षेप की राशि, चुनाव में बाधा या प्रहार को अलग करके राहत प्रदान करने का दावा करे या क्या यह चुनाव प्रक्रिया की सुविधा के लिए एक कदम है और क्या चुनाव पूरा हुआ?

    2. क्या नामांकन फॉर्म की अस्वीकृति भारत के संविधान के अनुच्छेद 243-A(B) के प्रावधानों को प्रभावित करता है?

    3. क्या सुधाकर और अन्य और विठ्ठल मिसल और श्रीमती. मायाराजू घूघवे के मामलों में कोर्ट की तरफ से व्यक्त किए गए विचार सही हैं? क्या विनोद भरसकदे के मामले में सुनाए गए फैसले कानून की दृष्टिकोण से सही है?

    पीठ का अवलोकन

    पीठ ने संविधान के भाग IX के प्रावधानों का विश्लेषण किया जो "पंचायत" से संबंधित है। इसमें पाया गया कि पंचायती राज विधेयक पेश होने के बाद अनुच्छेद 243, अनुच्छेद 243 A से अनुच्छेद 243 O को संविधान में 73 वें संशोधन अधिनियम द्वारा शामिल किया।

    इसके बाद महाराष्ट्र ग्राम पंचायत अधिनियम, 1959 में भी संशोधन किया गया था। इसके धारा 10 A का संशोधन किया गया था जो राज्य चुनाव आयोग के लिए प्रदान किया गया था। इसके साथ ही धारा 15A में भी संशोधन किया गया था जिसके तहत कोर्ट चुनावी मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है।

    प्रावधान के अनुसार:

    "यदि किसी पंचायत के सदस्य के चुनाव की वैधता को लेकर किसी भी उम्मीदवार द्वारा प्रश्न उठाया जाना या ऐसे चुनाव में या किसी व्यक्ति द्वारा चुनाव में मतदान करने के लिए योग्यता पर प्रश्न उठाया जाना, इस तरह के प्रश्न चुनाव के परिणान घोषित होने के पंद्रह दिन के भीतर उठाया जा सकता है। यह, सिविल जज (जूनियर डिवीजन) पर लागू होती है और अगर कोई सिविल जज (जूनियर डिवीजन) नहीं है तो सिविल जज (सीनियर डिवीजन) के पास उस क्षेत्र में कुछ अधिकार है जिसके तहत ऐसे प्रश्न का निर्धारण हो सकात है कि चुनाव होना चाहिए थ या नहीं।"

    यह प्रावधान अनुच्छेद 329 के समान है जो अदालतों को चुनावी मामलों में हस्तक्षेप करने की अनुमति देता है।

    याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया गया था कि,

    "अनुच्छेद 226 के तहत अधिकार क्षेत्र को सही ढंग से लागू किया गया है। आगे कहा गया कि अधिनियम की धारा 15 के तहत तहत चुनाव याचिका दाखिल उन याचिकाकर्ताओं के लिए एक प्रभावशाली उपाय नहीं है जिनके नामांकन फॉर्म खारिज कर दिए गए हैं।"

    एमिकस क्यूरिया का प्रस्तुतिकरण

    अंटुरकर मामले में एमिकस क्यूरिया, शीर्ष न्यायालय के संविधान पीठ के एन.पी. पोन्नुस्वामी बनाम द रिटर्निंग ऑफिसर, नामखल कांस्टिट्यूएंसी (1952) मामले के फैसले पर भरोसा करते हुए कहा कि अनुच्छेद 226 के नामांकन की अनुचित अस्वीकृति को चुनौती नहीं दी जा सकती।

    आगे मोहिंदर सिंह गिल और अन्य बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त (1978) मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा जताते हुए कहा कि रिट याचिका को बरकरार न रख पाना और रिट का मनोरंजक के रूप में उपयोग होना, दोनों से अलग हैं।

    इसके अलावा, उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 226 के तहत याचिका नामांकन पत्रों की अस्वीकृति के लिए दायर किया जा सकता है, यदि अस्वीकृति को बॉम्बे ग्राम पंचायत चुनाव नियम, 1955 के तहत कवर किया गया था या किसी भी वैधानिक प्रावधान के अधीन न आता हो।

    राज्य निर्वाचन आयोग का प्रस्तुतिकरण

    राज्य चुनाव आयोग की ओर से पेश हुए एडवोकेट शेट्टी ने कहा कि,

    "चुनाव क़ानून के तहत होता है। चुनाव लड़ने के अधिकार के रूप में मतदान का अधिकार भी वैधानिक अधिकार हैं और वर्तमान मामला एमवीपी अधिनियम और बॉम्बे ग्राम पंचायत चुनाव नियम 1959 द्वारा के अंतर्गत है।"

    इसलिए, उन्होंने कहा कि यह याचिकाकर्तओं न तो नागरिक अधिकार है और न ही मौलिक अधिकार है। यहां तक कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कोर्ट से संपर्क करके एक शिकायत करना भी नहीं है।

    आगे कहा गया था कि,

    "रिटर्निंग अधिकारी दोष के आधार पर किसी भी नामांकन पत्र को अस्वीकार नहीं करने के लिए एक जनादेश के अधीन है, जो पर्याप्त चरित्र नहीं है। उन्होंने कहा कि वर्तमान में 14,244 गांव हैं जो चुनाव प्रक्रिया के अंतिम चरण पर हैं। इसलिए कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 226 के तहत की गई याचिकाओं को स्वीकार करना एन.पी. पोन्नुस्वामी मामले में कोर्ट द्वारा सुनाए गए फैसले के विपरीत है।"

    कोर्ट का अंतिम अवलोकन

    पीठ ने एन.पी. पोन्नुस्वामी मामले में दिए गए निर्णय का विश्लेषण किया। इसमें देखा गया कि अगर चुनाव में सवाल उठाया जाए तो रिट याचिका पर रोक लगाई जा सकती है, लेकिन अगर चुनाव के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से मतदान करने की सुविधा के लिए अदालत का रुख है, तो इस तरह का दृष्टिकोण वर्जित नहीं होगा।

    पीठ ने कहा कि,

    "चुनावी प्रक्रिया की आसन्नता एक कारक है जिसे उच्च न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के अभ्यास में आदेशों को पारित करने और मार्गदर्शन करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह की प्रक्रिया जितनी अधिक आसन्न होगी, उतनी ही अधिक कुछ भी करने के लिए उच्च न्यायालय की अनिच्छा होनी चाहिए।" या ऐसा कुछ भी किया जा सकता है, जो उस प्रक्रिया को अनिश्चित काल तक के लिए स्थगित कर देगा, जिसमें राज्य की सरकार के संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं किया जा सकता है।"

    दो ऐतिहासिक निर्णयों के बीच के विवाद को निबटाने के लिए अर्थात् एन.पी. पोन्नुस्वामी और मोहिंदर सिंह गिल, मामले में पीठ ने लक्ष्मीबाई बनाम कलेक्टर, नांदेड़ (2020) में दिए गए फैसले का उल्लेख किया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि चुनाव मामले में विशेष रूप से चुनावों के परिणामों की घोषणा के बाद हाईकोर्ट द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना एक विवेकपूर्ण कार्य है। लेकिन क़ानून के तहत किए गए विचार के लिए पक्षों को रहत मिलना चाहिए।

    इन निर्णयों का विश्लेषण करते हुए पीठ ने कहा कि,

    "चुनाव के परिणाम से पहले चुनावी प्रक्रिया या किसी भी कदम से जुड़े चुनौती को संविधान के भाग XV के तहत माना जाता है। यदि मांगा गया कोई आदेश प्रदान किया गया है जो एक उचित आसन्न चुनाव को बाधित करने या रोकने की प्रवृत्ति या प्रभाव है, तो हाईकोर्ट का क्षेत्राधिकार बंद हो जाएगा।"

    पीठ ने आगे कहा कि,

    "अनुच्छेद 243- O(b) स्प्रिंग होता है जब भाग IX और अनुच्छेद 226 के तहत चुनाव के संबंध में नामांकन पत्रों की अस्वीकृति की जांच के लिए हाईकोर्ट से संपर्क किया जाता है। नामांकन की अस्वीकृति का कारण जो भी हो, इसकी गुणवत्ता उप-मानक या अन्य। यह किसी भी तरह से सही नहीं है कि चुनाव के मध्यवर्ती चरण में चुनौती दी जाती है और जो इच्छुक उम्मीदवार द्वारा चुनाव में भाग लेने है उनके द्वारा न्यायालय से आदेश मांगा जाता है। यह इसलिए क्योंकि रिटर्निंग ऑफिसर ने उनके नामांकन को अस्वीकार कर दिया है। "

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