न्यायाधीशों को विधायी मंशा को नष्ट करने के लिए क़ानून के सादे शब्दों को विकृत नहीं करना चाहिए: पॉक्सो मामले में 'त्वचा से त्वचा' के फैसले पर जस्टिस रवींद्र भट ने कहा

LiveLaw News Network

19 Nov 2021 5:31 AM GMT

  • न्यायाधीशों को विधायी मंशा को नष्ट करने के लिए क़ानून के सादे शब्दों को विकृत नहीं करना चाहिए: पॉक्सो मामले में त्वचा से त्वचा के फैसले पर जस्टिस रवींद्र भट ने कहा

    न्यायमूर्ति भट के फैसले में कहा गया है कि हाईकोर्ट का मंतव्य बच्चे के प्रति अस्वीकार्य व्यवहार को महत्वहीन और वैध बनाता है।

    सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बॉम्बे हाईकोर्ट के उस विवादास्पद फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें कहा गया था कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न के अपराध के लिए 'त्वचा से त्वचा' (स्किन टू स्किन) का संपर्क आवश्यक है।

    न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ एटर्नी जनरल, राष्ट्रीय महिला आयोग और महाराष्ट्र सरकार की ओर से दायर अपीलों पर फैसला सुनाया।

    न्यायमूर्ति रवींद्र भट ने उस मामले में सहमति का परंतु अलग मंतव्य दिया, जहां वह उन परिस्थितियों के संदर्भ में क़ानून की व्याख्या करने की आवश्यकता की ओर इशारा करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इसका जन्म हुआ। निर्णय में 'भारतीय रिजर्व बैंक बनाम पीयरलेस जनरल फाइनेंस एंड इनवेस्टमेंट कंपनी लिमिटेड एवं अन्य' पर भरोसा जताया गया है, जिसने किसी भी कानून के प्रावधानों को संदर्भित करने की आवश्यकता पर बल दिया था, जिसकी व्याख्या की आवश्यकता होती है, यहां तक कि इसके पाठ पर ध्यान केंद्रित करते हुए भी।

    निर्णय में कहा गया है कि मौजूदा मामला क़ानून की व्याख्या के "अपकार नियम" के इस्तेमाल के लिए एक उपयुक्त मामला होगा। यह जोर देता है कि अदालतों को हमेशा कानून की व्याख्या करनी होगी ताकि अपकार को दबाया जा सके और उपाय को आगे बढ़ाया जा सके। इस आलोक में, निर्णय में कहा गया है कि हाईकोर्ट द्वारा अपनाई गई व्याख्या न केवल कानून के क्रियान्वयन को सीमित करती है, बल्कि इरादे को भी पलट देती है। फैसले में कहा गया है, "इसमें 'युक्ति और परिहार' का प्रभाव है, जिसका मतलब उस अपकार को जारी रखना है, जिसे संसद टालना चाहती थी।''

    संक्षेप में उस कानून के इतिहास का पता लगाना है, जो पॉक्सो अधिनियम से पहले मौजूद था, ताकि उस अपकार को इकट्ठा किया जा सके, जिसे संसद खत्म करना चाहती थी।

    फैसले में कहा गया है:

    "उन परिस्थितियों से कोई भी अनजान नहीं हो सकता है जिसमें इन प्रावधानों को एक औपनिवेशिक शक्ति द्वारा अधिनियमित किया गया था, वह भी ऐसे समय में, जब महिलाओं के प्रतिनिधित्व को ही अस्वीकार कर दिया गया था, या सीमित मान्यता थी। इसके अलावा, उन्नीसवीं सदी के मध्य में आईपीसी के अधिनियमन के समय भारत में महिलाएं अपने पिता, या उनके पति, या अन्य पुरुष रिश्तेदारों की देखभाल के अधीन थीं। अचल संपत्ति में उनका कोई हिस्सा नहीं था; लैंगिक समानता की धारणा अनसुनी थी, या अनुमति नहीं थी। महिलाओं को वोट देने का कोई अधिकार नहीं था। स्वाभाविक रूप से, महिलाओं की गरिमा या वास्तव में उनकी स्वायत्तता उन्हें प्रदान नहीं की गयी थी।" (पैरा 9)

    निर्णय में कहा गया है कि यह संविधान और अनुच्छेद 14, 15 (1) और अनुच्छेद 15 (3) जैसे प्रावधानों के आगमन का परिणाम था, जिसने सरकार को बच्चों और महिलाओं के लाभ के लिए विशेष प्रावधान बनाने में सक्षम बनाया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, निर्णय में कहा गया है कि पॉक्सो जैसे कानून "महिलाओं और बच्चों की गरिमा और स्वायत्तता को कम करने वाले कृत्यों से निपटने वाले कानून की बाधाओं" को दूर करने के लिए बनाए गए थे और केवल अपकार नियम, पृष्ठभूमि और इतिहास को ध्यान में रखने के बाद कानून बनाया गया था। पॉक्सो अधिनियम की धारा सात की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए।

    'स्पर्श' और 'शारीरिक संपर्क' शब्दों के अर्थ शब्दकोश में समझने के बाद, निर्णय में कहा गया है कि:

    "दूसरी ओर 'संपर्क', जिसका उपयोग दूसरे अंग में किया जाता है, का व्यापक अर्थ है; यह हमेशा सीमित नहीं है। हालांकि यह तुरंत स्पष्ट नहीं है कि 'शारीरिक संपर्क' शब्द का अर्थ दूसरे अंग में उपयोग क्यों किया गया है, इसका उपयोग "किसी भी अन्य कार्य" के साथ 'कंजक्शन' के रूप में किया गया है ("यौन इरादे के साथ व्यापक अभिव्यक्ति द्वारा नियंत्रित"), जो इंगित करता है कि 'शारीरिक संपर्क' का अर्थ कुछ ऐसा है जो छूने की तुलना में व्यापक महत्व का है। इस प्रकार, पेनेट्रेशन के बिना शारीरिक संपर्क में जरूरी नहीं कि स्पर्श शामिल हो।''(पैरा 23)

    यह आगे बताता है कि संसदीय मंशा और जोर इस बात पर है कि आपत्तिजनक व्यवहार (चाहे स्पर्श या शारीरिक संपर्क से जुड़े अन्य कार्य), यौन इरादे से प्रेरित होना चाहिए। (पैरा 24)

    यह बताते हुए कि 'यौन इरादे' शब्द का क्या अर्थ होगा, निर्णय में कहा गया है:

    "जिन परिस्थितियों में स्पर्श या शारीरिक संपर्क होता है, वे इस बात का निर्धारण करेंगे कि क्या यह 'यौन इरादे' से प्रेरित है। ऐसे शारीरिक संपर्क के लिए एक अच्छी व्याख्या हो सकती है जिसमें बच्चे और अपराधी के बीच संबंधों की प्रकृति, सम्पर्क की अवधि, इसकी उद्देश्यपूर्णता के साथ-साथ संपर्क के लिए कोई वैध गैर-यौन उद्देश्य शामिल है। यह भी प्रासंगिक है कि यह कहां होता है और ऐसे संपर्क से पहले और बाद में अपराधी का आचरण कैसा था। इस संबंध में, यह ध्यान में रखना हमेशा उपयोगी होगा कि "यौन आशय" परिभाषित नहीं है, बल्कि तथ्य-निर्भर है।'' (पैरा 25)

    निर्णय यह पर्याप्त तौर पर स्पष्ट करता है कि धारा 7 प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्पर्श दोनों को शामिल करती है और बताती है कि "हाईकोर्ट के फैसले में तर्क काफी असंवेदनशील रूप से महत्वहीन बनाया गया है, साथ ही यह अवांछित अतिक्रमण के जरिये बच्चे की गरिमा और स्वायत्तता को कमजोर करने वाले अस्वीकार्य व्यवहारों की एक पूरी श्रृंखला को कमजोर करती है।"

    न्यायमूर्ति भट ने न्यायिक प्रक्रिया की प्रकृति' से न्यायमूर्ति बेंजामिन कार्डोजो को उद्धृत करते हुए अपनी अलग, सहमतिपूर्ण राय समाप्त की कि महान ज्वार और प्रवाह जो बाकी पुरुषों को घेर लेती है, अपने बहाव से न्यायाधीशों को प्रभावित नहीं कर सकती है।

    उन्होंने कहा :

    "इसलिए, यह किसी भी न्यायाधीश के कर्तव्य का हिस्सा नहीं है कि वह किसी क़ानून के स्पष्ट शब्दों को मान्यता से परे और उसके विनाश के बिंदु तक विकृत करे, जो समय की इस मांग को न ठुकराये कि बच्चों को उनकी स्वायत्तता और गरिमा को सुरक्षित बनाने के लिए बनाये गये कानून के आश्वासन की सख्त जरूरत है, जैसा कि पॉक्सो करती है।"

    केस शीर्षक: भारत के एटर्नी जनरल बनाम सतीश एवं अन्य

    कोरम: न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित, न्यायमूर्ति एस रवींद्र भट और न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी

    साइटेशन : एलएल 2021 एससी 656

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