"यह राज्य को निगरानी की बेलगाम शक्ति देता है और जीवनसाथी चुनने के वयस्कों के पंसद के अधिकार में हस्तक्षेप करता है": लव जिहाद कानून के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दो और जनहित याचिकाएं
LiveLaw News Network
18 Dec 2020 5:22 AM GMT
![Allahabad High Court expunges adverse remarks against Judicial Officer Allahabad High Court expunges adverse remarks against Judicial Officer](https://hindi.livelaw.in/h-upload/2019/06/750x450_03360372-allahabad-hc-1jpg.jpg)
इस साल नवंबर में यूपी सरकार द्वारा 'लव जिहाद' के नाम पर धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए पारित विवादास्पद अध्यादेश के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दो जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं।
इससे पहले अधिवक्ता सौरभ कुमार ने भी एक याचिका दायर की थी, जिसमें उत्तर प्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अध्यादेश, 2020 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई थी। तीनों यचिकाओं को सुनवाई के लिए कल मुख्य न्यायाधीश गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति पीयूष अग्रवाल की खंडपीठ के समक्ष सूचीबद्ध किए जाने की संभावना है।
दो रिट याचिकाओं में से एक को अजीत सिंह यादव ने, एडवोकेट केके रॉय और रमेश कुमार के माध्यम से दायर किया है, जबकि दूसरी याचिका रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी आनंद मालवीय ने एडवोकेट तल्हा अब्दुल रहमान के माध्यम से दायर किया है।
याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया है कि राज्यपाल के पास संविधान के अनुच्छेद 213 के तहत अपनी कानून बनाने की शक्ति का इस्तेमाल करने के लिए कोई आकस्मिक आधार नहीं था।
उन्होंने कहा, "अध्यादेश बनाने की शक्ति राज्यपाल की सबसे महत्वपूर्ण विधायी शक्ति है, जिसे अप्रत्याशित या तत्कालिक परिस्थितियों के निस्तारण के लिए प्रदान किया गया है। लेकिन राज्य आकस्मिकता और तत्कालिका समझाने और दिखाने में विफल रहा है।
ऑर्डिनेंस को लोक कानून और व्यवस्था के उल्लंघन के बहाने परित किया गया है, लेकिन राज्य द्वारा इस संबंध में कोई डेटा / सर्वेक्षण या अध्ययन नहीं किया गया है, जिससे तत्कालिक स्थिति की आकस्मिकता दिखती हो।"
आरसी कूपर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (1970) एससीआर (3) 530 पर भरोस रखा गया है, जहां यह माना गया था कि राष्ट्रपति के अध्यादेश पारित करने के फैसले को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि 'तत्कालिक कार्रवाई' की आवश्यकता नहीं है।
याचिकाकर्ताओं ने बताया कि एक वर्ष में, भारत में लगभग 36,000 अंतर-धाार्मिक विवाह हुए हैं और उत्तर प्रदेश में लगभग 6,000 ऐसे विवाह हुए हैं। हालांकि, राज्य यह उल्लेख करने में विफल रहा है कि इस तरह के कितने मामलों ने कानून-व्यवस्था की स्थिति के लिए खतरा पैदा किया है।
इस पृष्ठभूमि में यह आरोप लगाया गया है कि अनुच्छेद 213 के तहत शक्ति का प्रयोग करना उत्तर प्रदेश सरकार के लिए सामान्य परिघटना बन गई है।
याचिका में कहा गया है, "वर्ष 2019-20 में राज्य सरकार ने 14 अध्यादेशों की उद्घोषण की और फिर से लागू किया गया है। यह अध्यादेश जारी करने की कार्यपालिका की शक्ति के कारण, शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन है, जो शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांतों के खिलाफ जाता है क्योंकि कानून बनाना विधानमंडल का क्षेत्र है।"
याचिकाओं में एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि अध्यादेश को 'अवैध रूप से 'घोषित किया गया है, क्योंकि यह सलामत अंसारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में, उच्च न्यायालय के आधिकारिक घोषणा के खिलाफ है, जिसमें उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने एकल पीठ के फैसले को खारिज कर दिया था, जिसने शादी के लिए धार्मिक रूपांतरण को अस्वीकार कर दिया था।
यह प्रस्तुत किया गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार के लिए कार्रवाई का सही तरीका उक्त निर्णय के खिलाफ अपील दायर करना होता, लेकिन राज्य ने संविधान के अनुच्छेद 348 (1) के तहत अपनी शक्तियों का "दुरुपयोग" किया।
यह माना जा रहा है कि अध्यादेश की धारा 3, 5 और 6 के तहत जीवन साथी या धर्म पर नागरिक की पसंद के अधिकार पर राज्य को बेलगाम 'निगरानी की शक्ति' दी गई है, और यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी, व्यक्तिगत स्वायत्तता, निजता, मानव के मौलिक अधिकारों का हनन करता है।
यह आरोप लगाया गया है कि अध्यादेश की घोषणा के बाद, राज्य पुलिस ने विभिन्न जोड़ों के खिलाफ अपनी मर्जी से शादी करने के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्यों की सहमति से मामले दर्ज किए हैं।
"पुलिस ने अनावश्यक रूप से विवाह समारोह में हस्तक्षेप किया है और विवाह करने वालों के पसंद के अधिकार का उल्लंघन किया और उनके परिवार के सदस्यों को परेशान करने और बदनाम किया है।"
यह आरोप लगाया गया है कि अध्यादेश का एक छिपा उद्देश्य महिलाओं की यौनिकता को नियंत्रित करना है और मानव शरीर को अधीन मानना है और यह लैंगिक रूप से पक्षपाती भी है, जो महिलाओं की अपने जीवन साथी का चयन करने की स्वतंत्र इच्छा को खत्म करता है।
यह कहा गया है, "अध्यादेश की धारा 6 का एक सामान्य पाठ यह मानता है कि केवल एक पुरुष केवल एक महिला को धर्मांतरित करेगा और महिलाओं को वस्तु मानता है और समान पायदान पर खड़ी महिलाओं के व्यक्तिगत अभिकरण को मान्यता नहीं देता है।"
अन्य आधार
-अध्यादेश भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह धार्मिक समूहों के दो संप्रदायों के बीच "शत्रुतापूर्ण भेदभाव" पैदा करता है और इस तरह से संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
-अध्यादेश के उल्लंघन के लिए निर्धारित कठोर दंड दंडशास्त्र के न्यायशास्त्र के विरुद्ध है।
-अध्यादेश के तहत अभियुक्त पर सबूत का उल्टा बोझ आपराधिक न्यायिक प्रणाली के सिद्धांत के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के खिलाफ है।
-संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार सभी व्यक्तियों को अंतरात्मा की स्वतंत्रता का पूर्ण अधिकार देता है और किसी भी धर्म को स्वतंत्र रूप से अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार है, लेकिन अध्यादेश द्वारा इस अधिकार का उल्लंघन किया जाता है।
-अध्यादेश में संसद द्वारा अधिनियमित कानून के प्रावधानों को कम करने की विशेषताएं हैं जैसे कि सीआरपीसी, आईपीसी, विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, शरीयत आवेदन अधिनियम 1937, भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम 1872, आदि।
-विवाहों की वैधता की मान्यता का व्यक्ति के धर्मांतरण से कोई संबंध नहीं हो सकता है, और चूंकि अध्यादेश ऐसा करता है, इसलिए यह व्यक्ति के अधीनता और उसकी पसंद की अधीनता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
-अध्यादेश सहमति और विवाह के मुद्दे पर निर्णय लेने से संबंधित फैमिली कोर्ट से न्यायिक विवेक को छीन लेता है और यह आदेश देता है कि ऐसी कोई भी शादी शून्य होगी।
-अध्यादेश अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत भारत के दायित्व का उल्लंघन करता है, जिसे अब सभी भारतीय संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों में पढ़ा गया है। इस तरह के उपकरणों में UDHR, ICCPR, CEDAW आदि शामिल हैं।
-राज्य किसी भी प्रकार के विवाहों या पार्टनरशिप को मान्यता देने में कोई भेदभाव नहीं कर सकता है, और विवाह को शून्य मानना राज्य सरकार की विधायी क्षमता से बाहर है।
यह ध्यान दिया जा सकता है कि उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, 2018 के साथ इस अध्यादेश को अधिवक्ता विशाल ठाकरे, अभय सिंह यादव और प्रणवेश ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती दी है। जनहित याचिका में कहा गया है कि "लव जिहाद" के नाम पर बनाए गए इन कानूनों को शून्य घोषित किया जाना चाहिए क्योंकि "वे संविधान के बुनियादी ढांचे को बिगाड़ते हैं"।