ईएसआई अधिनियम, सेक्शन 75 (2) (बी) के तहत तय प्री-डिपॉजिट की शर्त में छूट देने के कारणों को बीमा कोर्ट दर्ज जरूर करेः केरल हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

18 Feb 2020 11:45 AM GMT

  • ईएसआई अधिनियम, सेक्शन 75 (2) (बी) के तहत तय प्री-डिपॉजिट की शर्त में छूट देने के कारणों को बीमा कोर्ट दर्ज जरूर करेः केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट

    केरल हाईकोर्ट ने एक बीमा अदालत द्वारा पारित आदेश इस आधार पर रद्द कर दिया है कि अदालत द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया से कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम की धारा 75 (2 बी) का उल्लंघन हो रहा था।

    जस्टिस राजा विजयराघवन की एकल पीठ ने कहा, "वैधानिक प्रावधान से यह स्पष्ट है कि बीमा अदालत यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि मूल नियोक्ता 50% राशि जमा करे, जब तक कि ऐसा नहीं करने के असाधारण कारण न हों और उन्हें लिखित में दर्ज नहीं किया जाता है, अदालत अपने विवेक का इस्तेमाल करने का विकल्प चुने और पूर्व-जमा को माफ कर दे या उसी को कम कर दे। मौजूदा मामले में, बीमा कोर्ट ने आसान रास्ता चुना है। मात्र एक पंक्ति का आदेश पारित कर मामले के निस्तारण तक पूरी कार्यवाही को रोक दिया गया है। "

    मामले में कर्मचारी राज्य बीमा निगम ने अपने उप निदेशक और रिकवरी अधिकारी के माध्यम से कर्मचारी बीमा न्यायालय, तिरुवनंतपुरम द्वारा पारित अंतरिम आदेश के खिलाफ मूल याचिका दायर की थी।

    मामला शुरुआत में सुरेंद्र दास ने दायर किया था, जो इस मामले में पहले प्रतिवादी थे। उन्होंने याचिकाकर्ताओं द्वारा 10/2014 तक की अवधि के लिए निगम की बकाया राशि 20,02,684 रुपए की रिकवरी के लिए जारी नोटिस को चुनौती दी थी। इसके बाद बीमा न्यायालय ने एक पक्षीय आदेश पारित करते हुए कहा, "याचिकाकर्ता के वकील को सुना। मामले के अंतिम निस्तारण तक स्टे का आदेश दिया जाता है, जैसी कि प्रार्थना की गई है।"

    इस आदेश को चुनौती देते हुए ईएसआई कॉर्पोरेशन ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट में मूल याचिका दायर की।

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए एडवोकेट आदर्श कुमार ने दलील दी कि बीमा न्यायालय द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया ईएसआई अधिनियम की धारा 75 (2 बी) का उल्लंघन है और याचिकाकर्ताओं की सुनवाई किए बिना ही अंतरिम आदेश पारित किया गया था।

    अदालत ने ईएसआई की धारा 75 (2 बी) की जांच की, जहां कहा गया था कि-

    "(2 बी) ऐसा मामला जो प्रमुख नियोक्ता और निगम के बीच किसी योगदान या किसी अन्य देय राशि के संबंध में विवाद में नहीं है, मुख्य नियोक्ता द्वारा कर्मचारी बीमा अदालत में उठाया जाएगा, जब तक कि उसने अदालत में निगम द्वारा दावा की गई उस पर बकाया रा‌शि का पचास प्रतिशत जमा नहीं किया हो।"

    बशर्ते कि, इस उप-धारा के तहत जमा की जाने वाली राशि को, ऐसे कारणों से, जिन्हें लिखित दर्ज किया जाए, न्यायालय माफ कर दे या कम कर दे।"

    यह देखा गया कि धारा 75 की उपधारा (2 बी) यह प्रावधान करती है कि जब तक नियोक्ता निगम द्वारा दावा की गई रा‌श‌ि का 50% बीमा न्यायालय के पास जमा नहीं करता है, वह निगम द्वारा की गई कार्रवाई को चुनौती देने का हकदार नहीं होगा।

    इसके अलावा, यह भी नोट किया गया कि उपधारा अदालत को जमा की जाने वाली राशि में छूट देने या कम करने का अधिकार देती है, लेकिन तभी, जबकि अदालत अपने अधिकार का इस्तेमाल करने के पर्याप्त कारण लि‌खित में दर्ज कराती है।

    अदालत ने टिप्पणी की कि असाधारण मामलों में बीमा अदालत के पास पर्याप्त आधार रिकॉर्ड करने के अधिकार होते हैं, जिनके आधार पर अदालत पूर्व-जमा को माफ करने या कम करने के लिए अपने विवेक का प्रयोक करती है। और इस तरह के आधार का प्रयोग अदालत को तभी करना चाहिए है, जब‌ मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रख लिया गया हो, जिसमें सुविधा का संतुलन, अपूरणीय क्षति आदि शामिल हो सकते हैं।

    अदालत ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम कुलदीप सिंह के मामले पर भरोसा किया, जहां सुप्रीम कोर्ट ने 'विवेक' शब्द के दायरे को समझाया। इस मामले की रोशनी में, अदालत ने उल्लेख किया कि बीमा अदालत ने जनादेश के खिलाफ अपने विवेक मनमाने और काल्पनिक तरीके से इस्तेमाल किया था।

    अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के कई अन्य मामलों पर भी भरोसा किया, जैसे कि राज किशोर झा बनाम बिहार राज्य व अन्य, हिंदुस्तान टाइम्स बनाम यू‌नियन ऑफ इंडिया व अन्य, मनीष गोयल बनाम रोहिणी गोयल।

    मूल याचिका की अनुमति देते हुए और बीमा न्यायालय द्वारा पारित अंतरिम आदेश को रद्द करते हुए, अदालत ने कहा,

    "कोई भी अदालत कानून के विपरीत दिशा-निर्देश जारी करने के लिए अधिकृत नहीं है और न ही अदालत एक प्राधिकरण को वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन कर कार्रवाई करने का निर्देश दे सकती है। (देखें मनीष गोयल बनाम रोहिणी गोयल) अदालतें कानून के शासन को लागू करने के लिए होती हैं न कि उन आदेशों या निर्देशों को पारित करने के लिए होती हैं, जो कानून के विपरीत होते हैं। मुझे लगता है कि बीमा न्यायालय द्वारा पारित आदेश का पालन नहीं किया जा सकता है।"

    साथ ही अदालत ने बीमा न्यायालय को दोनों पक्षों को सुनने के बाद नए सिरे से आवेदन पर विचार करने और क़ानून के अनुसार उचित आदेश पारित करने का भी निर्देश दिया।

    आदेश डाउनलोड करने के लिए क्लिक करें



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