'अगर डिटेन्यू कस्टडी में था तो वह पथराव करने में लिप्त कैसे हो सकता है?'- जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने डिटेंशन ऑर्डर रद्द किया

LiveLaw News Network

29 Sep 2020 5:26 AM GMT

  • अगर डिटेन्यू कस्टडी में था तो वह पथराव करने में लिप्त कैसे हो सकता है?- जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने  डिटेंशन ऑर्डर रद्द किया

    J&K&L High Court

    डिटेनिंग अथॉरिटी द्वारा एक डिटेन्यू को प्रिवेन्टिव डिटेंशन में रखने का आदेश के खिलाफ दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने मंगलवार (22 सितंबर) को कहा कि डोजियर के साथ-साथ हिरासत में रखने के लिए दिए कारणों से यह स्पष्ट है कि इस मामले में आदेश पारित करने के समय डिटेन्यू कस्टडी में था।

    न्यायालय ने कहा कि इसके बावजूद डिटेंशन के आधारों में यह दर्ज किया गया था कि ''वर्तमान में डिटेन्यू अलगाववादी तत्वों के कार्यक्रमों को जमीनी धरातल पर लागू करने में सक्रिय भूमिका निभा रहा है और अवैध गतिविधियों का सहारा ले रहा है, जैसे कि पथराव आदि।''

    इस संदर्भ में, न्यायमूर्ति संजय धर की खंडपीठ ने कहा कि,

    ''अगर वह हिरासत में था तो उसके लिए यह संभव नहीं था कि वह पथराव करने जैसी गतिविधियों में लिप्त हो सके। यह तथ्य याचिकाकर्ता की तरफ से पेश वकील की दलीलों को मजबूत करते हैं कि इस मामले में डिटेंशन में रखने का आदेश मैकेनिकल मैनर (यांत्रिक तरीके) से पास किया गया था।''

    क्या था न्यायालय के समक्ष आया मामला

    इस मामले में दायर याचिका में जिला मजिस्ट्रेट, श्रीनगर (for brevity "Detaining Authority") द्वारा जारी किए गए आदेश नंबर डीएमएस/ पीएसए/ 144 दिनांक 30 नवम्बर 2019 को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत मलिक मोहल्ला हब्बाक,चनपोरा जिला श्रीनगर के निवासी नासिर अहमद मीर पुत्र अब्दुल रशीद मीर श्रीनगर (संक्षेप में 'डिटेन्यू'के लिए) को प्रिवेंटिव डिटेंशन के तहत केंद्रीय जेल, श्रीनगर में रखने का निर्देश दिया गया था।

    दलीलें

    याचिकाकर्ता के वकील ने उक्त आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए विभिन्न आधारों का हवाला दिया,जिनमें से कुछ मुख्य आधार निम्नलिखित थे-

    (ए) डिटेंशन का आधार डोजियर की एक शब्दशः प्रतिलिपि है, जो यह दर्शाता है कि डिटैनिंग अथॉरिटी ने खुद से डिटेंशन या नजरबंदी के आधारों को तैयार नहीं किया है। जबकि कोई भी डिटेंशन का आदेश पारित करने से पहले इस तरह के आधार तैयार किया जाना एक जरूरी शर्त है। इस प्रकार डिटेंशन का आदेश पारित करने से पहले इस तरह के आधारों को डिटैनिंग अथॉरिटी द्वारा तैयार न करने के कारण ,उक्त आदेश कानून की नजर में गलत है।

    (बी) वहीं डिटेन्यू को उसकी डिटेंशन के खिलाफ एक प्रभावी प्रतिनिधित्व या अपना पक्ष रखने में अक्षम कर दिया गया था क्योंकि उसे डिटेंशन के आधारों की अनुवादित प्रति उपलब्ध नहीं कराई गई थी।

    इन दलीलों के खंडन में, प्रतिवादियों के लिए वकील ने उक्त आदेश को सही ठहराने का पूरा प्रयास किया। दलील दी कि डिटेन्यू एक आदतन पत्थरबाज था क्योंकि उसके खिलाफ पहले से ही दो एफआईआर लंबित हैं। इन्हीं तथ्यों के आधार पर डिटैनिंग अथॉरिटी ने अपने अधिकार क्षेत्र के तहत उक्त आदेश पारित किया था क्योंकि याचिकाकर्ता का फिर से इसी तरह की गतिविधियों में शामिल होने की हर संभावना थी।

    यह भी दलील दी गई कि डिटेनिंग अथॉरिटी ने जिन भी दस्तावेजों पर भरोसा किया था, उनकी काॅपी डिटेन्यू को उपलब्ध करा दी गई थी और इनको प्राप्त करने के बाद डिटेन्यू ने रसीद पर हस्ताक्षर भी किए थे।

    यह भी बताया गया था कि दस्तावेजों की सामग्री को पढ़ा गया था और डिटेन्यू को उसके द्वारा समझी जाने वाली भाषा में समझाया गया था।

    कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

    न्यायालय का विचार था कि,

    ''प्रिवेंटिव डिटेंशन, वास्तव में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर एक आक्रमण है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करता है। हालांकि प्रिवेंटिव डिटेंशन अनुच्छेद 21 का अपवाद भी है, इसलिए यह उचित आधार पर की जाना चाहिए,न कि डिटैनिंग अथॉरिटी के अनुमानों के आधार पर।''

    रेखा बनाम तमिलनाडु राज्य व अन्य (2011) 5 एससीसी 244 और कमलेश्वर ईश्वर प्रसाद पटेल बनाम भारत संघ व अन्य (1995) 2 एससीसी 51, के मामलों में शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए फैसलों का हवाला देते हुए, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि,

    ''जब भी निवारक निरोध या प्रिवेंटिव डिटेंशन पर कानून की अदालत के समक्ष सवाल उठाया जाता है तो न्यायालय के समक्ष पहला और सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह देखना होता है कि क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 22 (5) के तहत गारंटीकृत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय और प्रिवेंटिव डिटेंशन लाॅ का पालन, इस तरह के डिटेंशन को थोपने से पहले किया गया है या नहीं?''

    इसके अलावा, अदालत ने कहा कि जब भी डिटेंशन के आधार तैयार किए जाए,उस समय डिटैनिंग अथॉरिटी को अपने स्वयं के दिमाग का उपयोग करना चाहिए। वह सामान्यतौर पर केवल उसे ही नहीं दोहरा सकते हैं,जो डोजियर में लिखा गया है।

    यह भी ध्यान देने योग्य है कि हाल ही में जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट (जम्मू विंग) ने जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 की धारा 8 के तहत एक सुरिंदर सिंह को हिरासत या डिटेंशन में लेने के आदेश को रद्द कर दिया था।

    उस मामले में न्यायमूर्ति पुनीत गुप्ता की एकल पीठ ने कहा था कि,

    ''व्यक्तिपरक तरीके से मामले का आकलन करते हुए ,डिटेंशन का आदेश पारित करते समय किसी विशिष्ट शब्दांकन को बनाए रखने की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन आदेश से यह दिखना चाहिए कि मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए उचित तरीके से दिमाग का उपयोग किया गया है। परंतु डिटेंशन या निरोध आदेश में डोजियर का पुनरुत्पादन करने से उस आदेश को सही नहीं ठहराया जा सकता है।''

    तत्काल मामले के तथ्यों को स्वीकार करते हुए, अदालत ने कहा कि यह रिकॉर्ड से स्पष्ट है कि डोजियर और हिरासत के आधार में लगभग एकसमान शब्द हैं, जो यह दर्शाता है कि डिटैनिंग अथॉरिटी ने इस आदेश को पारित करते समय अपने दिमाग का उपयोग नहीं किया था।

    अंत में कोर्ट ने कहा कि एक डिटेन्यू को हिरासत के आधारों की अनुवादित काॅपी दी जानी चाहिए, विशेषकर तब जब एक डिटेन्यू अल्पशिक्षित हो,जैसा कि इस मामले में है। परंतु निष्पादन अधिकारी की तरफ से दायर हलफनामे में खुद यह बताया गया है कि उन्होंने डिटेन्यू को हिरासत के आधार उसकी भाषा में उसे पूरी तरह से समझा दिए थे।

    कोर्ट ने कहा, ''इस मामले में किसी भी आवश्यकता का पालन नहीं किया गया है, कम से कम रिकॉर्ड यही दर्शा रहा है।''

    वास्तव में, डिटेन्यू को डिटेंशन के पेपर उपलब्ध कराने की एवज में ली गई हस्ताक्षर की रसीद (जो कि डिटेंशन रिकॉर्ड का हिस्सा थी) पर निम्नलिखित अभिव्यक्ति थीः

    ''... डिटेंशन वारंट की सामग्री/डिटेंशन के आधारों को पढ़ा गया और डिटेन्यू को कश्मीर/ उर्दू / अंग्रेजी भाषा में समझाया गया, जिसे उसने पूरी तरह से समझा है ...''

    अदालत ने आगे कहा कि उक्त अभिव्यक्ति को देखने के बाद यह स्पष्ट नहीं था कि किस भाषा में नजरबंदी या डिटेन्यू को डिटेंशन के आधार पढ़कर कर समझाए गए, वह कौन सी भाषा थी कश्मीरी, उर्दू या अंग्रेजी।

    न्यायालय ने आगे कहा कि रिकॉर्ड से यह पता चलना चाहिए था कि किस भाषा में नजरबंदी को डिटेंशन के आधार पढ़कर समझाए गए थे,परंतु मामले में यह स्पष्ट नहीं है।

    इसलिए, न्यायालय का विचार था कि डिटेंशन के रिकाॅर्ड के आधार पर, याचिकाकर्ता के उस तर्क को मजबूती मिलती है,जिसमें उसने कहा था कि डिटेंशन के आधार उसके द्वारा समझी जाने वाली भाषा में नहीं समझाए गए थे।

    अंत में, कोर्ट ने कहा,

    ''उपर्युक्त चर्चा का संचयी प्रभाव केवल इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि वर्तमान मामले में, प्रतिवादियों ने याचिकाकर्ता के खिलाफ डिटेंशन आदेश को पारित करते समय कानूनी और संवैधानिक सुरक्षा उपायों का पालन नहीं किया था।''

    इसलिए प्रतिवादी नंबर 2-जिला मजिस्ट्रेट, श्रीनगर द्वारा पारित डिटेंशन आदेश नंबर डीएमएस/ पीएसए/144 दिनांक 30 नवम्बर 2019 ,इस कोर्ट की राय में अरक्षणीय था।

    इस प्रकार इस आदेश को रद्द किया जा रहा है। वहीं अदालत ने डिटेन्यू को प्रिवेंटिव कस्टडी से रिहा करने का भी निर्देश जारी किया है।

    विशेष रूप से, सोमवार (28 सितंबर) को, जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने लश्कर-ए-तैयबा के कथित कार्यकर्ता के रूप में हिरासत में लिए गए एक व्यक्ति को रिहा करने का निर्देश देते हुए कहा था कि डिटैनिंग अथॉरिटी को डिटेंशन के आदेश पारित करने में कानून की आवश्यकताओं के बारे में जानकारी देने के लिए उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

    मामले का विवरण-

    केस का शीर्षक- नासिर अहमद मीर बनाम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर व अन्य

    केस नंबर-डब्ल्यूपी (सीआरएल) नंबर 674/2019

    कोरम- न्यायमूर्ति संजय धर

    प्रतिनिधित्व-एडवोकेट एम अशरफ वानी (याचिकाकर्ता के लिए), सीनियर एएजी बी.ए डार (प्रतिवादियों के लिए)

    आदेश की काॅपी डाउनलोड करें।



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