मामले की सुनवाई अन्य राज्य के न्यायाधीश से करवाने का मामला-'अगर चीफ जस्टिस भी यह कहें कि वह कर्नाटक से हैं, तो आप कहां जाएंगे?' मुख्य न्यायाधीश ओका ने याचिकाकर्ता से कहा

LiveLaw News Network

14 Jan 2021 2:45 PM GMT

  • मामले की सुनवाई अन्य राज्य के न्यायाधीश से करवाने का मामला-अगर चीफ जस्टिस भी यह कहें कि वह कर्नाटक से हैं, तो आप कहां जाएंगे? मुख्य न्यायाधीश ओका ने याचिकाकर्ता से कहा

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को एक वी गुरुराज द्वारा दायर उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उसने मण्डामस की रिट जारी करने की मांग करते हुए कहा था कि एक याचिका जिसमें वह एक प्रतिवादी है और एकल न्यायाधीश पीठ के समक्ष लंबित है, को मुख्य न्यायाधीश की पीठ द्वारा सुना जाना चाहिए या किसी अन्य ऐसी पीठ द्वारा,जिसमें न्यायाधीश कर्नाटक के बजाय किसी अन्य राज्य से संबंध रखता हो।

    मुख्य न्यायाधीश अभय ओका और न्यायमूर्ति सचिन शंकर मगदुम की खंडपीठ ने याचिका को खारिज कर दिया और याचिकाकर्ता पर एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगा दिया है। जुर्माने की राशि का भुगतान कर्नाटक राज्य कानूनी सहायता सेवा प्राधिकरण को एक महीने के भीतर करना होगा। इस राशि का उपयोग उन बच्चों के लाभ के लिए किया जाएगा, जो बेंगलुरु में सिग्नल और सड़कों पर खिलौने और अन्य सामान बेचने के लिए मजबूर हैं।

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया था कि रोस्टर जज याचिकाकर्ता को न्याय नहीं देगा (डब्ल्यूपी नंबर 15239), (जो कि जस्टिस कृष्ण एस दीक्षित के समक्ष लंबित है) क्योंकि इस मामले में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश का अत्यधिक हस्तक्षेप है,जिनके नाम का उल्लेख विशेष रूप से याचिका में किया गया था (हालांकि न्यायालय ने आदेश में सेवानिवृत्त भारत के मुख्य न्यायाधीश के नाम का उल्लेख नहीं किया)।

    यह भी आरोप लगाया गया था कि कर्नाटक बार से संबंध रखने वाले अधिकांश न्यायाधीश किसी न किसी तरह से भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के प्रति अपनी निष्ठा दिखाते हैं। अंतरिम राहत मांगते हुए यह आरोप भी लगाया गया था कि इस अदालत के सभी न्यायाधीश जो कर्नाटक की अदालतों में प्रैक्टिस कर चुके हैं, वे पूर्व सीजेआई से प्रभावित हो सकते हैं और इसलिए इस अदालत के मुख्य न्यायाधीश को या तो मामले को स्वयं सुनना चाहिए या मामले को उस जज को सौंपना चाहिए (डब्ल्यूपी नंबर 15239/2020),जिसने कर्नाटक की अदालतों में प्रैक्टिस न की हो।

    सुनवाई के दौरान पीठ ने कहा कि ''कुछ अन्य उच्च न्यायालयों में इस तरह की याचिकाएं दायर करने की प्रथा शुरू हो गई है, हम चाहते हैं कि कर्नाटक हाईकोर्ट इससे मुक्त रहे।''

    अपने आदेश में अदालत ने कहाः

    ''इस तरह के आरोप कर्नाटक हाईकोर्ट को अपमानित करते हैं और इस अदालत के अधिकार को कम करते हैं। इसके अलावा, इस तरह के आरोप न्यायिक कार्यवाही के दौरान हस्तक्षेप का कारण बनते हैं,वहीं इस तरह के आरोप न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करते हैं।''

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया है कि कर्नाटक के सभी न्यायाधीश, जो कर्नाटक राज्य में बतौर वकील प्रैक्टिस कर चुके हैं,वो पूर्व सीजेआई से प्रभावित होंगे। इस आरोप पर पीठ ने कहा किः

    ''हमें याचिकाकर्ता को याद दिलाना चाहिए कि माननीय न्यायाधीश संवैधानिक पद धारण करते हैं, वह भी मनुष्य हैं और वे उन लोगों के लिए सम्मान के लिए बाध्य हैं जो वास्तव में सम्मान योग्य हैं और बहुत उच्च बुद्धि रखते हैं। हालांकि, न्यायाधीशों ने संविधान के तहत शपथ ली है, इसलिए वे किसी का सम्मान करते हैं,इसका मतलब यह नहीं है कि जब वह न्यायाधीश के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं तो उक्त व्यक्ति के निर्देशों के तहत काम करते हैं। इस तरह के आरोप लगाते हुए याचिकाकर्ता ने सेवानिवृत्त सीजेआई को बदनाम करने का प्रयास किया है। याचिकाकर्ता ने खुद रिटायर्ड सीजेआई की बुद्धि के बारे में बात की है। इस अदालत को बदनाम करने के इस तरह के गंभीर प्रयास की कड़ी शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। "

    आदेश को पूरा करने के बाद, मुख्य न्यायाधीश ओका, जिनकी मूल कोर्ट बॉम्बे हाईकोर्ट है, ने कहाः

    ''आप ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि मुख्य न्यायाधीश एक बाहरी व्यक्ति हैं, इसलिए उनको आपका मामला सुनना चाहिए। लेकिन मैंने बार-बार कहा है कि मैं खुद को कर्नाटक का हिस्सा मानता हूं, इसलिए आप कहां जाएंगे। यदि मुख्य न्यायाधीश भी यह कहते हैं कि वह कर्नाटक से हैं,तो आप कहां जाएंगे? आपको कहां जज मिलेगा? यदि आप कहते हैं कि कर्नाटक के किसी जज को आपकी बात नहीं सुननी चाहिए, तो हम सभी कर्नाटक के हैं।''

    कोर्ट ने खुद को याचिकाकर्ता के खिलाफ आपराधिक अवमानना कार्यवाही जारी करने से रोक लिया।

    सोमवार को जब याचिका को सीधे-सीधे अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के लिए अदालत के समक्ष सूचीबद्ध किया गया था, तो अदालत ने याचिकाकर्ता द्वारा याचिका में लगाए गए घिनौने आरोपों की तरफ याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता कुमार के.जी का ध्यान आकर्षित किया। मंगलवार को, अधिवक्ता ने अपने आप को इस मामले से हटाने के संबंध में एक ज्ञापन प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने याचिकाकर्ता को सूचित किया था कि वह मामले में अब उसकी तरफ से पेश नहीं होंगे। अदालत ने सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधान की तरफ वकील का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें बताया कि एक वकील को मामले से सेवानिवृत्त होने या न होने की अनुमति देना अदालत के अधीन है। पीठ के अनुसार, ''हम इस अदालत में निहित विवेक का इस्तेमाल करके उक्त अधिवक्ता को सेवानिवृत्त होने की अनुमति नहीं देंगे।''

    जिसके बाद अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा पहले दिए गए बयानों का अवलोकन करने के बाद यह पाया गया है कि अधिनियम 1971 की धारा 2 की उप धारा सी के तीनों खंडों के तहत आपराधिक अवमानना के मामले का गठन होता है। सवाल यह है कि क्या हमें याचिकाकर्ता के खिलाफ स्वत संज्ञान लेते हुए आपराधिक अवमानना का मुकदमा दायर करना चाहिए?

    पीठ ने कहा,''जब हमने आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू करने के बारे में विचार किया, तो हमें एक से अधिक कारणों ने कार्यवाही शुरू न करने के लिए प्रेरित किया। इसका पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि हमें एस मुलगांवकर, 1978 3 एससीसी के मामले में शीर्ष अदालत द्वारा की गई टिप्पणी ने गाइड किया है।''

    यह भी कहा कि,''हमारा मानना है कि अगर उदारशीलता को दिखाना है तो इसे ऐसे लोगों द्वारा दिखाया जाना चाहिए जो संवैधानिक पद पर आसीन हैं।'' कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि ''जब हम कह रहे हैं कि हम स्वत संज्ञान आपराधिक अवमानना कार्यवाही शुरू करने के लिए इच्छुक नहीं हैं, तो हमारी चुप्पी को याचिकाकर्ता ही नहीं बल्कि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भी हमारी कमजोरी न समझा जाए।''

    अदालत ने यह भी कहा कि,''इस तथ्य के अलावा कि याचिकाकर्ता ने याचिका वापस लेने के लिए एक मेमो दायर किया है। मुख्य कारण जो हमें कार्रवाई शुरू नहीं करने के लिए राजी करता है वह शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून है।''

    जिसके बाद अदालत ने कहा,''याचिकाकर्ता को यह नहीं सोचना चाहिए कि इस अदालत के समक्ष मामला खत्म हो गया है। हमने एकल न्यायाधीश के समक्ष दिए गए बयान को नोट कर लिया है। हम उम्मीद करते हैं कि याचिकाकर्ता एकल न्यायाधीश के समक्ष तुरंत जाएं और उक्त सममिशन वापस लें। यदि उक्त सबमिशन को वापिस नहीं लिया गया तो स्वत संज्ञान लेते हुए आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का विकल्प हमेशा खुला रहेगा।''

    इसप्रकार अदालत ने हालांकि मामले का निपटारा कर दिया परंतु जुर्माने के भुगतान के अनुपालन की रिपोर्ट दायर करने के संबंध में सुनवाई के लिए 19 फरवरी की तारीख तय की है।

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