किशोर की पहचान का खुलासा ना किया जाए: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपनी रजिस्ट्री को याद दिलाया

LiveLaw News Network

1 March 2022 7:21 AM GMT

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट


    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोहराया है कि ऐसे किशोर/बच्चों, जिन्होंने कानून का उल्लंघन किया है, उनकी पहचान का खुलासा नहीं होना चाहिए। कोर्ट ने अपनी रजिस्ट्री को मौजूदा मामले में किशोर आरोपी की पहचान को सभी रिकॉर्डों से हटाने का निर्देश दिया।

    जस्टिस संजय कुमार पचौरी ने कहा,

    "मौजूदा मामले में आक्षेपित फैसले और आदेश में किशोर की पहचान का खुलासा किया गया है। यह किशोर की निजता और गोपनीयता का उल्लंघन है। साथ ही शिल्पा मित्तल बनाम एनसीटी दिल्ली, (2020) 2 एससीसी 787 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय कानून के खिलाफ है, जिसमें यह माना गया था कि किशोर की पहचान का खुलासा नहीं किया जाएगा।"

    शिल्पा मित्तल (सुप्रा) में सुप्रीम कोर्ट ने आगाह किया था कि किशोर की पहचान का खुलासा करना किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 74 (बच्चों की पहचान के प्रकटीकरण पर रोक) के खिलाफ है।

    कोर्ट ने मौजूदा मामले में आदेश दिया,

    "पक्षकारों के मेमो में किशोर के नाम का खुलासा किया गया है। रजिस्ट्री को किशोर के नाम को वाद सूची के साथ-साथ मामले के सभी रिकॉर्डों से छुपाने का निर्देश दिया जाता है ताकि श‌िल्पा मित्तल में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार नाम और पहचान का खुलासा नहीं किया जा सके।"

    कोर्ट ने य‌ह टिप्‍पण‌ियां किशोर की जमानत याचिका को खारिज करने के खिलाफ जेजे अधिनियम की धारा 102 के तहत दायर एक आपराधिक संशोधन याचिका की सुनवाई के दरमियान की।

    पृष्ठभूमि

    मामले में तीन आरो‌पियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप था कि पीड़िता कॉलेज परिसर में खड़ी थी, जहां उसे आरोप‌ियों ने पिस्तौल से गोली मार दी। गोली लगने के बाद उसे अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। यहां किशोर न्याय बोर्ड ने रीविज़निस्ट को किशोर घोष‌ित किया, क्योंकि वह घटना के समय सिर्फ 15 वर्ष 6 महीने 18 दिन का था।

    बाद में जेजे एक्ट की धारा 12 के तहत रीविज़न‌िस्ट की ओर से दायर जमानत आवेदन को किशोर न्याय बोर्ड ने खारिज कर दिया। अपीलीय कोर्ट ने खारिज करने के आदेश को बरकरार रखा। इसलिए, अपीलीय न्यायालय और किशोर न्याय बोर्ड द्वारा पारित आदेशों के खिलाफ रीविज़निस्ट ने मौजूदा याचिका दायर की थी।

    परिणाम

    शुरुआत में, कोर्ट की राय थी कि किशोर न्याय बोर्ड और अपीलीय न्यायालय ने जेजे एक्ट की धारा 12 के अनिवार्य प्रावधानों की उचित रूप से सराहना नहीं की है। न्यायालय ने कहा कि किशोर को कुछ परिस्थितियों में रिहा नहीं किया जाएगा, जिनका उल्लेख प्रावधान के बाद के भाग में किया गया है:

    यदि विश्वास करने के लिए कोई उचित आधार हैं; (ए) कि रिहाई से उसे किसी ज्ञात अपराधी के साथ जुड़ने की संभावना है; (बी) उस रिहाई से उसे नैतिक, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक खतरे में डालने की संभावना है और (सी) किशोर की रिहाई कानून के विपरीत है और न्याय के लक्ष्य को हरा देगी।

    इसके अलावा, राज्य द्वारा उठाए गए इस तर्क को खारिज करते हुए कि कथित अपराध जघन्य है, कोर्ट ने कहा,

    "अपराध की गंभीरता किशोर को जमानत देने से इनकार करने के लिए प्रासंगिक विचार नहीं है। एक किशोर को जमानत की रियायत से वंचित किया जा सकता है यदि "जेजे एक्ट, 2015" की धारा 12 (1) के तहत निर्दिष्ट तीन आकस्मिकताओं में से कोई भी उपलब्ध है।"

    सामाजिक सूचना रिपोर्ट (एसआईआर) का अवलोकन किया और पाया कि किशोर पर माता-पिता के नियंत्रण की कमी है। पीठ ने "जेजे अधिनियम, 2015" की धारा 12 के अनिवार्य प्रावधानों के संबंध में उस किशोर न्याय बोर्ड के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय के दृष्टिकोण की आलोचना की और रीविज़निस्ट को जमानत दी और कहा कि -

    "किशोर न्याय बोर्ड के साथ-साथ अपीलीय न्यायालय ने "जेजे अधिनियम, 2015" की धारा 12 के अनिवार्य प्रावधानों के साथ-साथ किशोर 'एक्स' के संबंध में अन्य प्रावधानों की उचित रूप से सराहना नहीं की है और केवल इस निराधार आशंकाओं के आधार पर जमानत देने से इनकार कर दिया है। किसी भी सामग्री या उचित आधार के सबूत के अभाव में, यह नहीं कहा जा सकता है कि उसकी रिहाई न्याय के लक्ष्य को हरा देगी और र‌ीवज़निस्ट को जमानत को अस्वीकार करने के लिए तीन आकस्मिकताओं पर कारण देने में विफल रही है। किशोर न्याय बोर्ड और अपीलीय न्यायालय द्वारा दर्ज निष्कर्ष अपराध की जघन्यता पर आधारित हैं।"

    बच्चों की देखभाल और संरक्षण के मौलिक सिद्धांत (धारा 3, जेजे अधिनियम)

    कोर्ट ने वर्तमान आपराधिक संशोधन के निस्तारण के दरमियान बच्चों की देखभाल और संरक्षण के मौलिक सिद्धांतों पर प्रकाश डाला, जिन पर ऐसे मामलों का फैसला करते समय ध्यान देने की जरूरत होती है:

    "(i) निद्रोषिता की धारणा का सिद्धांत: किसी भी बच्चे को अठारह वर्ष की आयु तक किसी भी दुर्भावनापूर्ण या आपराधिक इरादे से निर्दोष माना जाएगा।

    (ii) गरिमा और मूल्य का सिद्धांत: सभी मनुष्यों के साथ समान गरिमा और अधिकारों के साथ व्यवहार किया जाएगा।

    (iii) सर्वोत्तम हित का सिद्धांत: बच्चे के संबंध में सभी निर्णय इस प्राथमिक विचार पर आधारित होंगे कि वे बच्चे के सर्वोत्तम हित में हैं और बच्चे को पूर्ण क्षमता विकसित करने में मदद करते हैं।

    (iv) परिवार की जिम्मेदारी का सिद्धांत: बच्चे की देखभाल, पोषण और संरक्षण की प्राथमिक जिम्मेदारी जैविक परिवार या दत्तक या पालक माता-पिता की होगी, जैसा भी मामला हो।

    (v) गैर-कलंककारी भाषा का सिद्धांत: बच्चे से संबंधित प्रक्रिया में प्रतिकूल या आरोप लगाने वाले शब्दों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

    (vi) निजता और गोपनीयता के अधिकार का सिद्धांत: प्रत्येक बच्चे को अपनी निजता और गोपनीयता की सुरक्षा का अधिकार हर तरह से और न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से होगा।

    इसलिए, रीविज़निस्ट द्वारा दायर वर्तमान पुनरीक्षण याचिका को कोर्ट ने अनुमति दी थी और रीविज़निस्ट को कुछ शर्तों के अधीन जमानत दे दी।

    केस शीर्षक: किशोर 'एक्स' अपने पिता के माध्यम से बनाम यूपी राज्य और अन्य।


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