सीआरपीसी की धारा 320 उपयुक्त मामलों में नॉन कंपाउंंडेबल अपराध रद्द करने के लिए धारा 482 के तहत शक्ति पर रोक नहीं लगाती : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

Shahadat

8 Aug 2022 7:25 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 320 उपयुक्त मामलों में नॉन कंपाउंंडेबल अपराध रद्द करने के लिए धारा 482 के तहत शक्ति पर रोक नहीं लगाती : हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट

    हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने दोहराया कि यदि न्याय के उद्देश्य के लिए एफआईआर रद्द करना आवश्यक है तो सीआरपीसी की धारा 320 गैर-शमनीय अपराधों (Non-Compoundable Offences) के लिए संहिता की धारा 482 के तहत शक्तियों के प्रयोग पर रोक नहीं लगाती।

    जस्टिस भूषण बरोवालिया ने कहा:

    "यदि न्याय के उद्देश्य के लिए एफआईआर रद्द करना आवश्यक हो जाता है तो सीआरपीसी की धारा 320 रद्द करने की शक्ति के प्रयोग के लिए बाधा नहीं होगी। यह अच्छी तरह से स्थापित है कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्तियों की कोई सीमा नहीं है। बेशक, जहां अधिक शक्ति हो, वहाँ ऐसी शक्तियों का प्रयोग करते समय अत्यधिक सावधानी बरतना आवश्यक हो जाता है।"

    याचिकाकर्ता ने अपने खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 504 और 506 के तहत दर्ज एफआईआर रद्द करने की मांग की थी। शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता ने अपनी सास के साथ दुर्व्यवहार किया था।

    पक्षकारों ने बाद में समझौता कर लिया। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि कार्यवाही को लंबित रखने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा।

    डिप्टी एडवोकेट जनरल ने तर्क दिया कि अपराध कंपाउंडेबल नहीं है, इसलिए याचिका खारिज की जा सकती है।

    कोर्ट ने बीएस जोशी और अन्य बनाम हरियाणा राज्य और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें यह कहा गया कि यदि न्याय के उद्देश्य के लिए एफआईआर रद्द करना आवश्यक हो जाता है तो सीआरपीसी की धारा 320 रद्द करने की शक्ति के प्रयोग में बाधा नहीं होगी। यह अच्छी तरह से तय है कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत शक्तियों की कोई सीमा नहीं है।

    जितेंद्र रघुवंशी और अन्य बनाम बबीता रघुवंशी और अन्य पर भी भरोसा किया गया, जहां यह माना गया कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की "अंतर्निहित शक्तियां" व्यापक और मुक्त हैं। आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 का प्रयोग किया जा सकता है, जहां विवाद निजी प्रकृति का है और उन पक्षों के बीच एक समझौता किया जाता है जो अपने मतभेदों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने के लिए तैयार हैं।

    कोर्ट ने कहा कि अगर पक्षकारों के समझौता करने के बाद भी मुकदमे को जारी रखने की अनुमति दी जाती है तो न्याय के अंत को सुरक्षित करने के लिए दोषसिद्धि की संभावना बहुत कम है। इस प्रकार, न्याय के हित को पूरा किया जाएगा, क्योंकि पक्षकार पहले ही मामले में समझौता कर चुके हैं।

    केस टाइटल: सुनीता देवी बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य और अन्य

    ऑर्डर डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




    Next Story