अनिवार्य सेवानिवृत्ति के एक साल बाद ग्रेच्युटी जब्त करना बाद का विचार: गुजरात हाईकोर्ट ने पूर्व कर्मचारी को ग्रेच्युटी भुगतान का आदेश दिया, बैंक ने मौद्रिक नुकसान का आरोप लगाया था

Avanish Pathak

13 Jun 2022 12:24 PM IST

  • गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट

    गुजरात हाईकोर्ट हाल ही में एक रिटायर्ड बैंक मैनेजर के पक्ष में फैसला सुनाया। उस पर नियोक्ता बैंक ने बेतरतीब ढंग से लोन स्वीकृत करने का आरोप लगाया था, जिससे उसे मौद्रिक नुकसान हुआ था। कोर्ट ने अपने फैसले में बैंक को रिटायर्ड बैंक मैनेजर के सेवानिवृत्त के बकायों को चुकाने का आदेश दिया।

    जस्टिस बीरेन वैष्णव ने पाया कि प्रतिवादी-कर्मचारी की ग्रेच्युटी को जब्त करने का आदेश "बाद का विचार" था। वह आदेश बर्खास्तगी के दंड को अनिवार्य सेवानिवृत्ति में संशोधित करने के बाद और जब प्रतिवादी ने ग्रेच्युटी के भुगतान के लिए बैंक से संपर्क किया था, उसके बाद जारी किया गया है।

    इस प्रकार, कोर्ट ने नियंत्रक प्राधिकारी और अपीलीय प्राधिकारी के आदेशों की पुष्टि की जिसने यूनियन बैंक ऑफ इंडिया को ग्रैच्युटी के रूप में 9,77,440 रुपये की राशि का भुगतान करने का निर्देश दिया था। हालांकि इसने ब्याज दर को संशोधित कर 8% कर दिया।

    कोर्ट ने कहा,

    "टाइमलाइन को पढ़ने से पता चलता है कि वर्ष 2011 में चार्ज-शीट जारी होने और 2012 के बर्खास्तगी आदेश के बावजूद, यह दंड जनवरी 2014 में अनिवार्य सेवानिवृत्ति के रूप में संशोधित किए जाने के बाद दिया गया था और प्रतिवादी ने जब बैंक से संपर्क किया, तब बैंक ने (पेमेंट ऑफ ग्रेच्युटी) एक्ट की धारा 4(6)(ए) के प्रावधानों को लागू करना उचित समझा।"

    मामले के संक्षिप्त तथ्य यह हैं कि प्रतिवादी 1984 से याचिकाकर्ता बैंक में एक शाखा प्रबंधक के रूप में कार्यरत था। जब व‌ह कार्यरत था, उस समय बैंक ने एक आरोप पत्र जारी किया था, जिसमें सावधि ऋण आदि के वितरण के संदर्भ में कुछ आरोप लगाए गए थे। विभागीय जांच के बाद, बैंक ने 2012 में बर्खास्तगी का दंड लगाया, जिसे प्रतिवादी ने चुनौती दी थी। अपीलीय प्राधिकारी ने अपील में सजा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति तक कम कर दिया।

    इसके बाद, प्रतिवादी ने ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 की धारा 7 के तहत आवश्यक ग्रेच्युटी का भुगतान न करने की शिकायत की। हालांकि, बैंक ने ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम की धारा 4(6) के तहत कारण बताओ नोटिस जारी किया कि क्यों ग्रेच्युटी को जब्त न किया जाए। प्रतिवादी के उत्तर के अनुसरण में ग्रेच्युटी की राशि रोक दी गई।

    कंट्रोलिंग अथॉरिटी ने माना कि ग्रेच्युटी को रोकना अधिनियम की धारा 7 के उल्लंघन में था, और बाद में अपीलीय प्राधिकारी द्वारा इसकी पुष्टि की गई थी। याचिकाकर्ता-बैंक ने बड़े पैमाने पर विरोध किया कि प्रतिवादी ने बैंक को 4.36 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया था, जिसे सक्षम प्राधिकारी द्वारा निर्धारित किया गया था और इसलिए, ग्रेच्युटी को जब्त करना उचित था।

    इसके विपरीत, प्रतिवादी ने अपीलीय प्राधिकारी के आदेश का समर्थन करते हुए कहा कि अंतिम आदेश में उल्लिखित 4.36 करोड़ रुपये के आंकड़े को छोड़कर बैंक को हुए नुकसान का कोई परिमाण नहीं था। यूको बैंक और अन्य बनाम अंजू माथुर पर यह तर्क देने के लिए भरोसा किया गया कि यदि बैंक को हुए नुकसान की मात्रा निर्धारित करने में विफलता हुई तो ग्रेच्युटी एक्ट की धारा 4 (6) (ए) का उल्लंघन हुआ।

    हाईकोर्ट ने सहमति व्यक्त की कि बैंक को हुए 4.36 करोड़ के नुकसान के संबंध में मात्र एक पंक्ति को छोड़कर, बैंक ने नुकसान की मात्रा कैसे निर्धारित की थी, इस पर रिकॉर्ड में कुछ भी नहीं था। यह आगे कहा गया कि अपीलीय प्राधिकारी ने बैंक की मानसिकता का सही आकलन किया था, खासकर जब बैंक ने प्रतिवादी को दंडित किए जाने के ढाई साल से अधिक समय तक एक्ट की धारा 4 (6) (ए) को लागू किया था।

    केस टाइटल: अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक यूनियन बैंक ऑफ इंडिया और एक बनाम जयकांत आर गोहिल अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक यूनियन बैंक ऑफ इंडिया और एक

    केस नंबर: C/SCA/699/2019

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