यूजीसी नियमों में निर्धारित आवश्यक सेवा अवधि को कार्य अनुभव से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता : केरल हाईकोर्ट
Shahadat
1 Sept 2022 11:28 AM IST
केरल हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि जब यूजीसी के मानदंडों में 'प्रोफेसर' पद पर पदोन्नति के लिए पात्र होने के लिए 'रीडर' के पद पर 8 साल की निरंतर सेवा अनिवार्य है तो उस पद पर व्यक्ति के कार्य अनुभव के आधार पर पदोन्नति नहीं दी जा सकती। कोर्ट ने कहा कि यूजीसी के नियमों में पदोन्नति के मानदंड निर्धारित हैं, जिनके आधार पर पदोन्नति देना तय किया गया है।
जस्टिस पी.बी. सुरेश कुमार और जस्टिस मैरी जोसेफ की खंडपीठ ने अपने समक्ष पुनर्विचार याचिका में कहा कि जब यूजीसी द्वारा निर्धारित योग्यताओं को निर्धारित करने वाले मानदंड हैं तो न्यायालय लाभ के लिए अपनी व्याख्या के साथ इसे प्रतिस्थापित नहीं कर सकता।
खंडपीठ ने कहा,
"अनुभव मानदंडों द्वारा निर्धारित सेवा की अवधि को प्रतिस्थापित नहीं कर सकता।"
वर्तमान मामले में पुनर्विचार याचिकाकर्ता को शुरू में एनएसएस में हिंदू कॉलेज, मट्टनूर 03.08.1970 को हिंदी में जूनियर लेक्चरार के रूप में नियुक्त किया गया था। उसके बाद उसे लेक्चरार के रूप में पदोन्नत किया गया। बाद में चयन ग्रेड लेक्चरार (सीनियर वेतनमान) के रूप में पद्दोन्नत किया गया। याचिकाकर्ता का यह मामला है कि उसने 01.11.1994 को वर्तमान यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया और 2 साल 11 महीने बाद उसे वहां से मुक्त कर दिया गया। इसके बाद उसने 17.11.1997 को रीडर के रूप में यूनिवर्सिटी में फिर से प्रवेश लिया और 30.04.2005 को कार्यमुक्त किया, क्योंकि यूनिवर्सिटी के तत्कालीन कुलपति द्वारा की गई सभी नियुक्तियों के खिलाफ चुनौती दी गई, जिसे केरल हाईकोर्ट की अन्य डिवीजन बेंच ने बरकरार रखा।
याचिकाकर्ता द्वारा यह तर्क दिया गया है कि चूंकि उसकी कुल सेवा अवधि 34 वर्ष है, जबकि यूजीसी मानदंड में रीडर को प्रोफेसर के रूप में पदोन्नत करने के लिए केवल 8 वर्ष की सेवा अनिवार्य है, इसलिए याचिकाकर्ता भी उसकी पदोन्नति का हकदार है। उसने आगे केरल सरकार के आदेश दिनांक 19.05.1999 का हवाला दिया, जिसके तहत सरकार ने डिवीजन बेंच के फैसले के अनुसार यूनिवर्सिटी की सेवा से बाहर किए गए सभी शिक्षकों की सेवा की अवधि को वैध मानने की मंजूरी दी है। इसी आधार पर याचिकाकर्ता ने 2008 में रिट याचिका दायर की।
दूसरी ओर, एकल न्यायाधीश के समक्ष रिट याचिका के प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि याचिकाकर्ता एक नवंबर, 1994 को हिंदी में प्रोफेसर के रूप में सेवा में शामिल हुआ था, लेकिन उक्त नियुक्ति को डिवीजन बेंच द्वारा रद्द कर दिया गया। उसके बाद एक नवंबर, 1994 से 30 सितंबर 1997 तक की सेवा की अवधि को 'प्रतिनियुक्ति पर सेवा' के रूप में माना गया, न कि नियमित सेवा के रूप में। इस तरह यह तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता केवल 7 साल, 5 महीने और 15 दिनों के लिए रीडर के रूप में नियमित सेवा में था। इसलिए, पदोन्नति के लिए वह अपात्र है। जब यूनिवर्सिटी ने सरकार से स्पष्टीकरण मांगा तो बाद में यह भी माना गया कि याचिकाकर्ता अपात्र है।
एकल न्यायाधीश ने याचिकाकर्ता के अनुभव को वर्षों की संख्या गिनने में महत्वपूर्ण कारक के रूप में माना और यह देखते हुए रिट की अनुमति दी कि याचिकाकर्ता के पास प्रोफेसर के रूप में 2.5 साल का अनुभव है, जिसे रिट अपील में डिवीजन बेंच ने खारिज कर दिया था।
वर्तमान पुनर्विचार याचिका में याचिकाकर्ता ने एडवोकेट माधवनकुट्टी के वकील द्वारा यह तर्क दिया कि याचिकाकर्ता ने एन.एस.एस. कॉलेज और 13 मार्च 2003 को जारी सर्कुलर पर भरोसा किया, जिसमें यह निर्धारित किया गया कि किसी अन्य मान्यता प्राप्त में एसोसिएट प्रोफेसर/रीडर के रूप में की गई पिछली सेवा को प्रोफेसर के पद पर पदोन्नति के लिए माना जा सकता है। यह तर्क दिया गया कि यद्यपि वही और इस संबंध में 27 मई, 2003 को जारी स्पष्टीकरण सर्कुलर को सरकार द्वारा दिनांक 23 सितंबर, 2003 के सर्कुलर के माध्यम से वापस ले लिया गया। इसे केवल संभावित प्रभाव कहा जा सकता है।
वर्तमान पुनर्विचार याचिका में न्यायालय याचिकाकर्ता द्वारा उठाए गए तर्क से सहमत नहीं हुआ और उसने पाया कि डिवीजन बेंच पहले ही उठाए गए तर्कों से निपट चुकी है।
इसके तदनुसार, कोर्ट ने कहा,
"... अवैध नियुक्ति को देखते हुए याचिकाकर्ता द्वारा की गई सेवा की अवधि ने नियमित सेवा के बजाय 'प्रतिनियुक्ति पर सेवा' के रूप में प्राप्त किया।"
इस संबंध में यह पाते हुए कि याचिकाकर्ता के पास अपेक्षित आठ निरंतर वर्षों की सेवा नहीं है, पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी गई।
वर्तमान मामले में प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटी के सरकारी वकील दिनेश मैथ्यू जे. मुरिकेन और सीनियर सरकारी वकील वी. बिनीता ने किया।
केस टाइटल: डॉ. सी.एस. राजन बनाम रजिस्ट्रार, शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटी और अन्य।
साइटेशन: लाइव लॉ (केर) 466/2022
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