निर्धारित वैधानिक सीमा के अभाव में भी पक्षकारों से 'उचित समय' के भीतर अदालत का दरवाजा खटखटाने की उम्मीद: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

30 March 2022 2:24 PM GMT

  • निर्धारित वैधानिक सीमा के अभाव में भी पक्षकारों से उचित समय के भीतर अदालत का दरवाजा खटखटाने की उम्मीद: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

    पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने दोहराया है कि किसी भी निर्धारित सीमा के अभाव में, एक उचित समय होना चाहिए, जिसके भीतर पीड़ित पक्ष को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़े।

    कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 226/227 के तहत दायर एक याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें 20.09.2012 के आक्षेपित अवॉर्ड को रद्द करने के लिए प्रमाण पत्र जारी करने की मांग की गई थी, जिसमें याचिकाकर्ता के पति की सेवा की समाप्ति का जवाब श्रम कोर्ट ने उसके खिलाफ दिया था।

    जस्टिस राजबीर सहरावत की पीठ ने यह कहते हुए याचिका को खारिज कर दिया कि नीचे की अदालत द्वारा पारित आदेश में कोई अवैधता या अनौचित्य नहीं है और यह भी कहा कि कानूनी कार्यवाही एक उचित समय के भीतर दायर की जानी चाहिए थी।

    प्रतिवादी-विभाग द्वारा याचिकाकर्ता के पति को रोजगार से बर्खास्त करने के परिणामस्वरूप मामला सामने आया।

    याचिकाकर्ता का पति विभाग का नियमित कर्मचारी था। उसकी सेवाएं 1985 में नियमित कर दी गई थी। उसे बर्खास्त कर दिया गया था, जबकि उससे कनिष्ठों को बरकरार रखा गया था। याचिकाकर्ताओं का यह मामला था कि 16 साल की देरी के आधार पर उनके मामले को खारिज करके लेबर कोर्ट ने कानूनन गलत किया है।

    दोनों पक्षों को सुनने के बाद, अदालत ने श्रम कोर्ट के निर्णय के संबंध में प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि सीमा ही एकमात्र कारण नहीं है जिस पर श्रम कोर्ट का निर्णय आधारित था।

    कोर्ट ने कहा,

    याचिकाकर्ता के वकील ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि कर्मचारी के खिलाफ अवॉर्ड का जवाब केवल उस सीमा के कारण दिया गया है, जो श्रम कोर्ट को नहीं करना चाहिए था। हालांकि, इस अदालत ने पाया कि यह श्रम कोर्ट द्वारा जोर दिए गए आधारों में से केवल एक है। यह रिकॉर्ड में आया है कि कार्यकर्ता 01.02.1988 के बाद सेवा में नहीं था और डिमांड नोटिस वर्ष 2002 में किया गया था। इस लंबी देरी के लिए बिल्कुल कोई स्पष्टीकरण नहीं है।

    याचिकाकर्ता द्वारा दिए गए एक अन्य तर्क पर आते हुए कि काम करने वाले को किसी भी छंटनी मुआवजे का भुगतान नहीं किया गया था और न ही उसे सेवा समाप्त करने से पहले कोई नोटिस दिया गया था, अदालत ने माना कि उसे टर्मिनेट नहीं किया गया था, बल्कि उसने खुद अपनी नौकरी छोड़ दी थी।

    कोर्ट ने आगे कहा कि कामगार 240 दिनों के लिए उसकी सेवाओं के संबंध में कोई सबूत दिखाने में विफल रहे हैं और न ही उचित समय के भीतर दावा किया गया था।

    इसलिए, न तो कर्मचारी ने वर्ष 2001 में कथित रूप से सेवा समाप्त करने की तारीख से पूर्ववर्ती 12 कैलेंडर महीनों में 240 दिनों के लिए काम किया है और न ही इस तरह का दावा उचित समय के भीतर किया गया था जैसा कि वर्ष 1988 से गिना गया था।

    कोर्ट ने अंततः निष्कर्ष निकाला कि कर्मचारी को अपनी चूक पर प्रीमियम लेने की अनुमति नहीं दी जा सकती है और उसे उचित समय के भीतर अदालत का दरवाजा खटखटाना चाहिए था। इसलिए, अदालत ने वर्तमान याचिका में कोई योग्यता नहीं पाई और इसे खारिज कर दिया।

    केस शीर्षक: श्रीमती खज़ानी देवी बनाम पीठासीन अधिकारी, औद्योगिक न्यायाधिकरण-सह-श्रम कोर्ट और अन्य


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