पितृत्व के लिए डीएनए टेस्ट पत्नी के लिए यह स्थापित करने का सबसे प्रामाणिक तरीका है कि वह बेवफा, व्यभिचारी नहीं है : इलाहाबाद हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
17 Nov 2020 10:49 AM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा है कि डीएनए टेस्ट सबसे वैध और वैज्ञानिक रूप से परिपूर्ण साधन है, जिसका उपयोग पति अपनी बेवफाई के दावे को स्थापित करने के लिए कर सकता है।
न्यायमूर्ति विवेक अग्रवाल की खंडपीठ ने आगे कहा,
''इसी तरह इसे पत्नी के लिए भी सबसे प्रामाणिक, सही और सटीक साधनों के रूप में माना जाना चाहिए, ताकि वह प्रतिवादी-पति द्वारा किए गए दावे का विरोध कर सके और यह स्थापित करने के लिए कि वह बेईमान, व्यभिचारी या बेवफा नहीं है।''
न्यायालय के समक्ष मुद्दा
न्यायालय के समक्ष एकमात्र मुद्दा यह था कि क्या अदालत, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत पति द्वारा दायर तलाक की याचिका में व्यभिचार के आधार पर पत्नी को यह निर्देश दे सकती है कि वह या तो डीएनए टेस्ट कराए या डीएनए टेस्ट कराने से इनकार कर दे?
साथ ही अगर वह डीएनए टेस्ट कराने का चुनाव करती है, तो क्या डीएनए टेस्ट का निष्कर्ष या परिणाम निर्णायक रूप से याचिकाकर्ता-पति द्वारा उसके खिलाफ लगाए गए आरोप की सत्यता का निर्धारण करता है?
इसके अलावा, अगर पत्नी डीएनए टेस्ट कराने से इनकार कर देती है, तो क्या पत्नी के खिलाफ न्यायालय द्वारा कोई अनुमान लगाया जा सकता है यानी यह कहने के लिए कि डीएनए टेस्ट रिपोर्ट सिर्फ विशेषज्ञ साक्ष्य का एक भाग है।
केस की पृष्ठभूमि
भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत एक याचिका, पत्नी (नीलम) द्वारा दायर की गई थी और उसने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट, हमीरपुर द्वारा पारित 22 सितम्बर 2018 के आदेश को चुनौती दी थी।
पति-प्रतिवादी के अनुसार, वह 15 जनवरी 2013 से अपनी पत्नी यानी याचिकाकर्ता के साथ नहीं रह रहा है और तब से उनके बीच कोई संबंध नहीं रहा है।
25 जून 2014 को, पति ने याचिकाकर्ता-पत्नी को प्रथागत तलाक दे दिया था और तब से उसको भरण पोषण का भुगतान कर रहा है। याचिकाकर्ता-पत्नी के अपने मायके में 26 जनवरी 2016 को एक मेल चाइल्ड को जन्म दिया था।
दूसरी ओर, याचिकाकर्ता-पत्नी ने अपनी आपत्तियाँ दर्ज कीं और पति द्वारा दायर अर्जी पर आपत्ति जताते हुए कहा कि डीएनए टेस्ट कराने की मांग करते समय आवेदन में किसी कानूनी प्रावधान का उल्लेख नहीं किया गया है।
उसने इस बात से भी इनकार किया कि 15 जनवरी 2013 से उन दोनों के बीच कोई सहवास नहीं था। उसने दावा किया कि जब वह गर्भवती थी, तो उसे उसके पति द्वारा प्रताड़ित किया गया और उसे वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया। इसलिए, उसने 26 जनवरी 2016 को अपने मायके में एक मेल चाइल्ड को जन्म दिया।
वर्तमान याचिकाकर्ता ने साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत अनुमान निकालने के मामले को भी उठाया था।
न्यायालय का अवलोकन
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि फैमिली कोर्ट ने दीपान्विता रॉय बनाम रोनोब्रोटो रॉय, 2015 (1) एससीसी डी 39 (एससी) मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले का भी हवाला दिया है।
इस मामले में, पति ने व्यभिचार के आधार पर तलाक की याचिका दायर की थी। व्यभिचारी का नाम भी लिया गया था और फिर पति ने स्वंय का व पत्नी से पैदा हुए मेल चाइल्ड का डीएनए टेस्ट करवाने के लिए एक आवेदन दिया था।
फैमिली कोर्ट ने अर्जी खारिज कर दी थी। हालांकि, हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को उलट या रिवस्र्ट कर दिया था।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने पत्नी की उस दलील के बावजूद भी हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा था,जिसमें उसने कहा था कि उसके अपने पति से संबंध थे, जबकि पति ने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया था।
विशेष रूप से, नंदलाल वासुदेव बडविक बनाम लता नंदलाल बडविक व अन्य, 2014 (2) एससीसी 576 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि,
''पति की यह दलील है कि जब बच्चा उत्पन्न/प्रजात हुआ,उस समय उसका अपनी से कोई संबंध नहीं था, डीएनए टेस्ट से सिद्ध हो गया है। ऐसे में हम अपीलकर्ता को एक बच्चे के पितृत्व का भार उठाने के लिए मजबूर नहीं कर सकते हैं, जब वैज्ञानिक रिपोर्ट इसके विपरीत साबित कर रही है।''
शीर्ष अदालत ने आगे कहा था कि,
''हम इस बात से अवगत हैं कि एक मासूम बच्चे को इस आधार पर बैस्टर्डाइज या अवैध नहीं कहा जा सकता हैै क्योंकि उसके जन्म के समय उसकी माँ और पिता के बीच शादी ठीक नहीं चल रही थी, लेकिन डीएनए टेस्ट रिपोर्ट और जो हमने ऊपर उल्लेख किया है, उसे देखते हुए, हम इसके परिणामों पर पहले से ही रोक नहीं लगा सकते हैं। यह सच्चाई को नकारने जैसा होगा। 'सत्य की जीत होनी चाहिए'जो न्याय की पहचान है। इसलिए इस न्यायालय का स्पष्ट रूप से मानना है कि डीएनए टेस्ट के आधार पर सामने आए सबूत भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत एक अनुमान को जगह देने के लिए पर्याप्त होंगे।''
अंत में, हाईकोर्ट ने कहा कि जब उपरोक्त आदेश को सर्वोच्च न्यायालय के कानूनी प्रावधान की कसौटी के आधार पर टेस्ट किया गया तो इसमें कोई गलती नजर नहीं आई है।
इसलिए, अदालत को अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश, फैमिली कोर्ट,हमीरपुर द्वारा पारित 22 सितम्बर 2018 के आदेश में हस्तक्षेप करने के लिए कोई अवैधता, दुर्बलता या मनमानी नजर नहीं आई है।
इस प्रकार, याचिका विफल हो गई और खारिज कर दी गई।
केस का शीर्षक - नीलम बनाम राम आसरे ,अनुच्छेद 227 के तहत मामला नंबर-7442/2019,
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