दिशा मामला : न्यायिक आयोग ने क्षेत्राधिकार की कमी का हवाला देते हुए महिला के लापता होने की शिकायत पर एफआईआर दर्ज नहीं करने पर पुलिस को दोषी ठहराया
Avanish Pathak
23 May 2022 12:58 PM IST
26 वर्षीय पशु चिकित्सक (दिशा मामले) के सामूहिक बलात्कार और हत्या के आरोपियों की कथित मुठभेड़ में हत्या के संबंध में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त न्यायिक जांच आयोग ने तेलंगाना पुलिस को एफआईआर रजिस्टर करने से इनकार करने के लिए दोषी पाया है। जब पीड़िता के माता-पिता ने उसके लापता होने की शिकायत की थी तो पुलिस ने एफआईआर रजिस्टर करने से इनकार कर दिया था।
आयोग ने कहा कि पुलिस ने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र की कमी का हवाला देते हुए पीड़िता के माता-पिता को लौटा दिया था। 27 नवंबर, 2019 को लगभग 10.30 बजे, पीड़िता (दिशा, यह दिया गया नाम है) के लापता होने के बाद, उसकी बहन और माता-पिता ने आरजीआईए पुलिस स्टेशन का दरवाजा खटखटाया। पुलिस ने यह दावा करते हुए एफआईआर दर्ज नहीं की कि उनके पास अधिकार क्षेत्र नहीं है और उन्हें शमशाबाद ग्रामीण पुलिस स्टेशन से संपर्क करने का निर्देश दिया। इसके बाद परिजनों ने आस-पास के इलाकों में तलाश किया और शमशाबाद ग्रामीण पुलिस स्टेशन गए, जहां आखिरकार 28 नवंबर 2019 को सुबह 3 बजे महिला के लापता होने का मामला दर्ज किया गया।
आयोग ने निष्कर्ष निकाला है कि दिशा के मामले में आंध्र प्रदेश पुलिस नियमावली के आदेश 409 (3) का पालन नहीं किया गया था।
आदेश 409(3) इस प्रकार है-
-संज्ञेय अपराधों से संबंधित जानकारी दर्ज की जानी चाहिए, भले ही वे किसी ऐसे पुलिस थाने में प्रस्तुत की गई हों, जिसका अधिकार क्षेत्र नहीं है।
-अधिकार क्षेत्र के बिंदु पर इस तरह के रजिस्ट्रेशन से इनकार नहीं किया जाना चाहिए।
-रजिस्ट्रेशन के बाद एफआईआर संबंधित थाने में स्थानांतरित की जानी चाहिए।
यह ध्यान दिया जा सकता है कि 2019 में जब दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई थी, पीड़िता के परिजनों ने कथित तौर पर आरोप लगाया था कि पुलिस ने कीमती समय बर्बाद किया था, जिसका इस्तेमाल उसे बचाने के लिए किया जा सकता था।
साइबराबाद पुलिस आयुक्त ने कथित निष्क्रियता के लिए राजीव गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (आरजीआईए) पुलिस स्टेशन के तीन पुलिसकर्मियों को भी निलंबित कर दिया था, जिनमें एक सब-इंस्पेक्टर भी शामिल था।
आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार ने तब से सर्कुलर जारी कर आदेश 409(3) का सख्ती से पालन करने को कहा है। आदेश का कड़ाई से अनुपालन करने के अलावा आयोग ने सिफारिश की है कि महिलाओं या बच्चों के खिलाफ अपराधों की सूचना के संबंध में एक अपवाद बनाया जाए।
रिपोर्ट में कहा गया है-
"आंध्र प्रदेश पुलिस मैनुअल के आदेश 409 (3) में कहा गया है कि संज्ञेय अपराधों से संबंधित जानकारी दर्ज की जानी चाहिए, भले ही वे किसी ऐसे पुलिस स्टेशन में प्रस्तुत किए गए हों, जिनका अधिकार क्षेत्र नहीं है और इस तरह के रजिस्ट्रेशन को अधिकार क्षेत्र के बिंदु पर अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए और रजिस्ट्रेशन के बाद एफआईआर संबंधित पुलिस थाने को हस्तांतरित की जानी चाहिए।हालांकि यह प्रावधान ऐसे पुलिस थाने को प्रस्तुत अपराध से संबंधित जानकारी की जांच शुरू करने के लिए अधिकृत नहीं करता है।
यह देखा गया है कि दिशा मामले में आदेश 409(3) का पालन नहीं किया गया था। आयोग को सूचित किया जाता है कि सरकार ने तब से आदेश 409 (3) के सख्त अनुपालन को अनिवार्य करते हुए परिपत्र जारी किया है।
आदेश के सख्त अनुपालन के अलावा, आयोग की सिफारिश है कि महिलाओं या बच्चों के खिलाफ अपराध के संबंध में प्राप्त जानकारी के संबंध में एक अपवाद बनाया जाए।
जब भी महिलाओं या बच्चों के खिलाफ किए गए संज्ञेय अपराधों से संबंधित सूचना किसी पुलिस थाने का प्राप्त होती है तो जिस थाने का अधिकार क्षेत्र नहीं है, उसे न केवल शिकायत दर्ज करनी चाहिए, बल्कि तुरंत जांच भी शुरू करनी चाहिए। बाद में आगे की जांच नियमित पुलिस स्टेशन को सौंप दी जाएगी।"
आयोग ने यह भी पाया कि मुठभेड़ में हुई हत्याओं का मंचन किया गया था और पुलिस का यह कथन कि चारों आरोपियों ने अधिकारियों से पिस्तौलें छीन लीं और भाग गए, "मनगढ़ंत" था।
इसलिए आयोग ने सिफारिश की है कि 4 आरोपियों की हत्या के लिए 10 पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए, जिनमें से 3 नाबालिग पाए गए थे।
महिलाओं के खिलाफ अपराधों की शिकायतों के रजिस्ट्रेशन के लिए पुलिस अधिकारियों की ओर से निष्क्रियता से संबंधित हैदराबाद मामला पहला मामला नहीं था।
2012 के सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले के बाद जस्टिस वर्मा समिति ने जीरो एफआईआर के प्रावधान की सिफारिश की थी, जो कि ऐसी एफआईआर है जो उस पुलिस स्टेशन में दर्ज की जाती है जहां एक संज्ञेय अपराध के बारे में जानकारी प्राप्त होती है, चाहे उसके पास अधिकार क्षेत्र हो या नहीं।
वर्तमान मामले में गठित जस्टिस वीएस सिपुरकर आयोग ने सिफारिश की है कि जब भी अधिकार क्षेत्र वाले किसी पुलिस थाने को महिलाओं या बच्चों के खिलाफ किए गए संज्ञेय अपराधों से संबंधित सूचना प्राप्त होती है, तो उसे न केवल शिकायत दर्ज करनी चाहिए, बल्कि तुरंत जांच भी शुरू करनी चाहिए। यह बाद में आगे की जांच नियमित पुलिस स्टेशन को सौंप देगी।
आयोग की अन्य सिफारिशें: आयोग ने आपराधिक न्याय प्रणाली और कानूनी प्रावधानों को लागू करने के संबंध में कुछ अन्य सिफारिशें भी की हैं।
जांच और कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस की अलग शाखा बनाई जाए।
गिरफ्तारी के दौरान संवैधानिक और वैधानिक आवश्यकताओं का अनिवार्य अनुपालन
सभी जांच प्रक्रियाओं की वीडियो रिकॉर्डिंग - गिरफ्तारी, गिरफ्तारी के नोटिस की तामील, अपराध स्थल का अवलोकन, पूछताछ, अपराध स्थल की फोरेंसिक जांच, भौतिक वस्तुओं की बरामदगी, अपराध स्थल की टोपोग्राफी जैसी जांच प्रक्रियाओं की वीडियो रिकॉर्डिंग की जानी चाहिए।
बॉडी वियर कैमरा और डैश कैमरा - आयोग ने सिफारिश की है कि पुलिस को बॉडी वियर कैमरों का उपयोग करना चाहिए जो वास्तविक समय में उनके कार्यों के साथ-साथ उनके परिवेश और नागरिकों और संदिग्धों के साथ उनकी बातचीत को रिकॉर्ड करते हैं। इसी तरह पुलिस वाहनों के डैशबोर्ड पर कैमरे लगाए जाने चाहिए।
सभी अपराधों की जांच के दौरान सीसीटीवी फुटेज का अनिवार्य संग्रह - यह सिफारिश की गई है कि सभी अपराधों की जांच के दौरान सीसीटीवी फुटेज को अनिवार्य रूप से एकत्र किया जाना चाहिए और संरक्षित किया जाना चाहिए।
गवाहों के बयानों की ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग - धारा 161, 164 और 176 (1-ए) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत दर्ज गवाहों के बयान अनिवार्य रूप से ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग उपकरणों के माध्यम से दर्ज किए जाने चाहिए।
फोरेंसिक - अपराध स्थल के पहले उत्तरदाताओं को अपराध स्थल के संरक्षण में प्रशिक्षित और निर्देश दिया जाना चाहिए। "क्लूज टीम" या फोरेंसिक विशेषज्ञों को अपराध स्थल के संरक्षण, अवलोकन, दस्तावेजीकरण, फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी और फोरेंसिक साक्ष्य के संग्रह का पूरा प्रभार दिया जाना चाहिए।
फोरेंसिक साक्ष्य की कस्टडी - आयोग ने जांच के दौरान एकत्र की गई फोरेंसिक सामग्री की कस्टउी में कई खामियां देखीं। कस्टडी में कोई भी चूक फोरेंसिक सामग्री के साक्ष्य मूल्य को नष्ट कर देती है। इसलिए आयोग ने सिफारिश की कि फोरेंसिक साक्ष्य के संग्रह और संरक्षण को उचित रूप से दस्तावेजीकृत किया जाना चाहिए।
साथ ही फोरेंसिक साक्ष्य को फोरेंसिक साइंस लैब में भेजना और लैब में किए गए विश्लेषण के साथ-साथ रिपोर्ट और सामग्री को जांच अधिकारी या अदालत को वापस भेजना उचित रूप से डॉक्यूमेंट होना चाहिए। इस संबंध में उपयुक्त मानक प्रक्रियाएं विकसित की जानी चाहिए।
कार्यपालक दंडाधिकारी द्वारा अभियुक्त की रिमांड - आयोग ने सिफारिश की है कि किसी भी उद्देश्य के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय के प्रभारी के रूप में कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को रखना पूरी तरह से टाला जाना चाहिए। आगे यह अनुशंसा की कि एक असाधारण स्थिति के मामले में जहां कार्यकारी मजिस्ट्रेटों को धारा 167 (2-ए) सीआरपीसी के तहत शक्तियों का प्रयोग करने के लिए बुलाया जाना आवश्यक है, वहां संबंधित कानून और प्रक्रिया के ज्ञान और व्यक्ति के अनुभव को ध्यान में रखते हुए सावधानीपूर्वक चयन किया जाना चाहिए।
पुलिस हिरासत देते समय आरोपी को पेश करना - आयोग ने सिफारिश की है कि सीआरपीसी की धारा 167 (2) के प्रावधान (बी) के मद्देनजर यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि हर बार पुलिस हिरासत के लिए एक आवेदन दायर किया जाए, मजिस्ट्रेट को निर्देश देना चाहिए कि उक्त आवेदन की सुनवाई के समय आरोपी को उसके समक्ष पेश किया जाए।
जेल में अभियुक्तों पर पुलिस द्वारा दायर आवेदनों के नोटिस की तामील -यह सिफारिश की गई है कि जेल में रहते हुए अभियुक्त को नोटिस तामील करना किसी भी आवेदन में पर्याप्त नोटिस नहीं माना जाना चाहिए यदि ऐसा नोटिस न्यायालय के समक्ष आवेदन दाखिल करने से पहले दिया गया हो।
यहां तक कि अगर ऐसा नोटिस प्रभावी होता है, तो अदालत को नए नोटिस का आदेश देना चाहिए, जिस तारीख को सुनवाई के लिए आवेदन सूचीबद्ध किया गया है और यह निर्दिष्ट करना चाहिए कि आरोपी को अदालत के समक्ष पेश किया जाना चाहिए।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 176 (1-ए) के तहत मजिस्ट्रियल जांच - आयोग ने सिफारिश की है कि पुलिस हिरासत में मौत के मामलों में धारा 176 (1-ए) आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत मजिस्ट्रेट जांच केवल न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा की जानी चाहिए।। जिस मजिस्ट्रेट के अधिकार क्षेत्र में घटना हुई है, उसे पुलिस हिरासत में मौत होने पर तुरंत सूचित किया जाना चाहिए।
ऐसी सूचना मिलने पर न्यायिक मजिस्ट्रेट जिले के प्रभारी प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश को उचित सूचना देने के बाद तुरंत हिरासत में मौत के स्थान पर जांच के लिए जाएंगे। न्यायिक मजिस्ट्रेट की देखरेख में जांच और अन्य कार्यवाही की जानी चाहिए।
इसके अलावा, जब तक न्यायिक मजिस्ट्रेट ने इसका निरीक्षण और दस्तावेज नहीं किया है, तब तक शवों और घटना के दृश्य को छेड़ा नहीं जाना चाहिए। राज्य हिरासत में हुई मौतों के मामलों में धारा 176(1-ए) के तहत जांच करने के लिए एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट की नियुक्ति नहीं करेगा।
पुलिस अधिकारियों द्वारा प्रेस कांफ्रेंस - यह सिफारिश की गई है कि कोई भी पुलिस अधिकारी जांच के तहत अपराध के संबंध में तब तक प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं करेगा जब तक कि जांच पूरी नहीं हो जाती और संबंधित अदालत में अंतिम रिपोर्ट दाखिल नहीं हो जाती। एक पुलिस स्टेशन जांच के बारे में अपडेटेड जानकरी देते हुए एक प्रेस नोट जारी कर सकता है, लेकिन जांच के दौरान एकत्र की गई जानकारी का खुलासा नहीं करेगा।
झूठी गवाही - झूठी गवाही पर मुकदमा चलाने की वर्तमान प्रक्रिया कठिन है और इसलिए झूठी गवाही की कार्यवाही वांछित के रूप में प्रभावी नहीं है। झूठी गवाही के लिए कार्रवाई की प्रक्रिया को सरल बनाया जाएगा