दिल्ली हाईकोर्ट ने कोर्ट फीस (दिल्ली संशोधन) अधिनियम, 2010 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया

Shahadat

7 July 2022 10:36 AM GMT

  • दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने गुरुवार को न्यायालय शुल्क (दिल्ली संशोधन) अधिनियम, 2010 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर नोटिस जारी किया। उक्त अधिनियम के तहत कोर्ट फीस अधिनियम, 1870 में संशोधन किया गया, जो दिल्ली के क्षेत्र में लागू होता है।

    चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद की खंडपीठ ने कानून, न्याय और विधायी मामलों के विभाग के माध्यम से कानून और न्याय मंत्रालय और दिल्ली सरकार के माध्यम से केंद्र से जवाब मांगा।

    मामले की सुनवाई अब आठ सितंबर को होगी।

    याचिका वकील प्रवीण कुमार अग्रवाल ने वकील काजल सुबोध गुप्ता, वकील अभिषेक ग्रोवर और वकील कुणाल शर्मा के माध्यम से दायर की गई।

    दिल्ली विधानसभा की विधायी क्षमता की कमी के आधार पर इस कानून को चुनौती दी गई है। याचिका में कहा गया कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 239AA दिल्ली विधानसभा को कोर्ट फीस अधिनियम, 1870 में संशोधन करने का अधिकार नहीं देता है, जोकि केंद्रीय कानून है।

    याचिका में कहा गया,

    "अनुच्छेद 239AA(3)(b) में अभिव्यक्ति 'केंद्र शासित प्रदेश' दिल्ली को संदर्भित करती है, इसलिए अनुच्छेद 246(4) के जनादेश के अनुसार, दिल्ली से संबंधित किसी भी मामले के संबंध में कानून बनाने की क्षमता अकेले संसद के पास है। यह प्रावधान करता है कि संसद को किसी भी केंद्र शासित प्रदेश के लिए किसी भी मामले के संबंध में कानून बनाने की शक्ति है, भले ही वह संविधान की अनुसूची VII की सूची II के अंतर्गत आता हो।"

    याचिका में इस घोषणा के लिए प्रार्थना की गई कि कोर्ट-फीस (दिल्ली संशोधन) अधिनियम 2010 में दिल्ली एक्ट, 1870 के तहत जोड़ी गई धारा 16ए असंवैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद 14 के खिलाफ है।

    याचिका में कहा गया कि धारा 16ए लोगों के दो वर्ग बनाती है, पहला यह कि पहला वर्ग कोर्ट-फीस एक्ट, 1870 की धारा 16 के तहत रिफंड की मांग करता है और दूसरा वर्ग कोर्ट-फीस एक्ट, 1870 की धारा 16ए के तहत रिफंड मांगता है।

    यह तर्क दिया गया कि इस तरह के अंतर का एकमात्र कारण यह है कि पहला वर्ग न्यायालय पक्षकारों को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 89 में निर्दिष्ट विवाद के किसी भी तरीके के लिए सूट के लिए संदर्भित करता था और दूसरा वर्ग अपने मामलों को स्वयं या अदालत के हस्तक्षेप से सुलझाने के लिए पक्षकारों को संदर्भित करता है।

    याचिका का तर्क दिया गया,

    "ऐसी स्थिति जिसमें मध्यस्थता केंद्र या सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 के तहत अन्य वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धति के माध्यम से अपने विवाद का निपटारा करने वाले पक्ष अपने कोर्ट फीस की पूर्ण वापसी का दावा करने के हकदार होंगे, जबकि वे पक्ष जो विवादों को निजी तौर पर स्वयं या अदालत के हस्तक्षेप से केवल आधा कोर्ट फीस वापस किया जाएगा। दो समान रूप से स्थित व्यक्तियों के बीच इस तरह का अंतर व्यवहार भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा, इसलिए उक्त संशोधन असंवैधानिक है।"

    केस टाइटल: प्रवीण कुमार अग्रवाल बनाम भारत संघ और अन्य।

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