'बेटियां हमेशा बेटियां होती हैं, बेटे तब तक बेटे होते हैं जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती': बॉम्बे हाईकोर्ट ने वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत बेटे को बुजुर्ग माता-पिता का फ्लैट खाली करने का निर्देश बरकरार रखा

LiveLaw News Network

19 Sep 2021 11:15 AM GMT

  • बॉम्बे हाईकोर्ट, मुंबई

    बॉम्बे हाईकोर्ट

    बाॅम्बे हाईकोर्ट ने मुंबई निवासी और उसकी पत्नी को बुजुर्ग माता-पिता का घर एक महीने के भीतर खाली करने का निर्देश देते हुए कहा है कि वरिष्ठ नागरिक अधिनियम यह कहता है कि बच्चे या रिश्तेदार वरिष्ठ नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने के लिए बाध्य हैं ताकि वे बिना किसी उत्पीड़न के 'सामान्य जीवन जी सकें'।

    अदालत ने कहा कि यह व्यक्ति और उसका परिवार उसके माता-पिता की इच्छा के खिलाफ 'जबरन संपत्ति हड़पने' के लिए अपने 90 वर्षीय पिता की संपत्ति (जो कि उसने अपनी बेटी को उपहार में दी है) में रह रहे हैं,जो उत्पीड़न है और माता-पिता के सामान्य जीवन जीने के अधिकार का उल्लंघन भी है। तदनुसार, कोर्ट ने रखरखाव न्यायाधिकरण के आदेश के खिलाफ बेटे की तरफ से दायर उस अपील को खारिज कर दिया, जिसमें उसे परिसर खाली करने के लिए कहा गया था।

    ''..धारा 4 स्पष्ट रूप से प्रदान करती है कि बच्चों या रिश्तेदारों का दायित्व वरिष्ठ नागरिकों की जरूरतों को पूरा करना होगा ताकि वे 'सामान्य जीवन जी सकें' ... इसमें निश्चित रूप से इसके दायरे में, किसी बेटे या रिश्तेदार द्वारा वरिष्ठ नागरिकों के स्वामित्व वाले परिसर में आकर रहने से मिलने वाले उत्पीड़न और यातना से सुरक्षा शामिल है...''

    कोर्ट ने पुरानी कहावत को दोहराया कि बेटियां हमेशा अपने माता-पिता के साथ खड़ी रहती हैं लेकिन बेटे तब तक साथ रहते हैं जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती।

    हाईकोर्ट ने कहा कि, ''यह देखने के बाद कि यह एक ऐसा मामला है जहां बूढ़े माता-पिता इकलौते बेटे और बहू के हाथों पीड़ित हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चित रूप से लोकप्रिय कहावत में सच्चाई का कुछ तत्व है कि 'बेटियां हमेशा बेटियां ही होती हैं' और बेटे तब तक बेटे होते हैं जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती,यद्यपि निश्चित रूप से अनुकरणीय अपवाद होंगे।''

    कोर्ट ने माना कि दोनों पक्षकारों के बीच कई कानूनी कार्यवाही माता-पिता द्वारा सहन की जा रही यातना और उत्पीड़न का प्रमाण है। इसके अलावा, विचाराधीन संपत्ति पैतृक संपत्ति नहीं है जिस पर पुत्र किसी भी कानूनी अधिकार का दावा कर सकता है।

    पृष्ठभूमि

    माता-पिता (90 वर्ष की आयु के पिता और 89 वर्ष की आयु की मां) ने अपने बेटे द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न के खिलाफ रखरखाव न्यायाधिकरण का दरवाजा खटखटाया था। ट्रिब्यूनल ने बेटे और उसके परिवार को उस फ्लैट को खाली करने का आदेश दिया जिसमें उसके बुजुर्ग माता-पिता रह रहे हैं।

    ट्रिब्यूनल के आदेश को चुनौती देते हुए बेटे और उसके परिवार ने हाईकोर्ट में रिट याचिका दायर की।

    शुरुआत में ही, हाईकोर्ट ने कहा कि यह एक ''दुखद मामला'' है और ''माता-पिता के दुख'' पर चिंता व्यक्त की।

    बेटे और उसके परिवार ने दो आधारों पर दलील दी। सबसे पहले, उन्होंने दावा किया कि चूंकि एक स्थानीय अदालत ने घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत 89 वर्षीय मां को घर से बेदखल नहीं करने के पक्ष में पहले ही एक आदेश पारित कर दिया है, इसलिए बुजुर्ग दंपति को वरिष्ठ नागरिक न्यायाधिकरण के पास नहीं जा सकते हैं। इसके अलावा, चूंकि बुजुर्ग माता-पिता ने बेटी को फ्लैट उपहार में दे दिया है, इसलिए अधिनियम की धारा 4 को लागू करने के लिए इसे अपनी संपत्ति नहीं कहा जा सकता है।

    माता-पिता के वकील ने तर्क दिया कि यह एक स्पष्ट मामला है जहां माता-पिता को उनके जीवन के इस चरण में याचिकाकर्ता नंबर 1 व 2 द्वारा प्रताड़ित और परेशान किया जा रहा है। उन्होंने फ्लैट हड़पने के लिए माता-पिता के साथ किए जा रहे अमानवीय व्यवहार के उदाहरणों का हवाला दिया।

    कोर्ट ने कहा कि वरिष्ठ नागरिकों को किसी भी तरह से ट्रिब्यूनल के पास जाने से नहीं रोका जा सकता है, क्योंकि अधिनियम की धारा 4 में भरण-पोषण के सभी पहलू शामिल हैं। इसके अलावा, पिता घरेलू हिंसा के तहत चली कार्यवाही में पक्षकार नहीं थे।

    ''इस प्रकार वरिष्ठ नागरिकों के हित में ऐसे प्रावधान बनाने में विधायिका की मंशा स्पष्ट है,जो वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों के उस व्यापक स्पेक्ट्रम को शामिल करते है, जो उनके जीवित रहने और/ या उनके बुढ़ापे में आजीविका के लिए मौलिक या जरूरी हैं। निश्चित रूप से उक्त अधिनियम के दायरे में आने वाली वरिष्ठ नागरिकों की शिकायतों के लिए वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में न्यायालय का दृष्टिकोण संकीर्ण और आडंबरी नहीं हो सकता है।''

    वरिष्ठ नागरिक अधिनियम के तहत ''सामान्य जीवन'' का गहरा अर्थ है

    धारा 4 स्पष्ट रूप से प्रदान करती है कि बच्चों या रिश्तेदारों का दायित्व वरिष्ठ नागरिकों की जरूरतों को पूरा करना होगा ताकि वे 'एक सामान्य जीवन जी सकें'। इन प्रावधानों में प्रयुक्त शब्द ''सामान्य जीवन'' की अवधारणा कहीं अधिक गहरी और व्यापक है, जिसका अर्थ है और इसका संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत वरिष्ठ नागरिकों को गारंटीकृत आजीविका के मौलिक अधिकारों पर असर पड़ता है।

    कोर्ट ने यह भी नोट किया कि धारा 2 (एफ) के तहत ''संपत्ति'' शब्द का अर्थ किसी भी प्रकार की संपत्ति है, चाहे वह चल या अचल, पैतृक या स्वयं अर्जित, मूर्त/वास्तविक या अमूर्त हो और जिसमें ऐसी संपत्ति में अधिकार या हित भी शामिल हैं।

    यह तर्क कि माता-पिता फ्लैट में अधिकार का दावा नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने इसे अपनी बेटी को उपहार में दे दिया है, अदालत ने इसे खारिज करते हुए कहा कि उनके पास इसमें अधिकार और हित हैं।

    अदालत ने कहा कि बेटा संपन्न है और उसकी अपनी संपत्ति हैं। इसके बावजूद, वह अपने बुजुर्ग माता-पिता को परेशान कर रहा है, जो सिर्फ एक शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं।

    कोर्ट ने कहा कि,''वर्तमान मामला हताश माता-पिता की एक दुखद कहानी है, जो जीवन में इस चरण में शांति से रहने का इरादा रखते हैं। क्या एक समृद्ध पुत्र द्वारा उनको इतनी छोटी सी अपेक्षा और आवश्यकता से भी वंचित किया जाना चाहिए, यह एक विचार है जिस पर याचिकाकर्ताओं को विचार करना चाहिए।''

    कोर्ट ने पाया कि बेटा अपने बूढ़े और जरूरतमंद माता-पिता की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपने दायित्वों का निर्वहन करने में अंधा प्रतीत होता है और इसके विपरीत उन्हें मुकदमे में घसीट रहा है।

    कोर्ट ने दुख के साथ कहा कि,

    ''बेटे और माता-पिता के बीच जो भी संबंध हैं, परंतु यह कल्पना करना दर्दनाक है कि क्या भौतिक लाभ के लिए बेटे को अपने वृद्ध माता-पिता को त्याग देना चाहिए?''

    केस का शीर्षक- आशीष विनोद दलाल व अन्य बनाम विनोद रमनलाल दलाल व अन्य

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