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गरीबी, बेरोजगारी या भूख के कारण गोपनीयता में बीफ काटना 'सार्वजनिक व्यवस्था' का मुद्दा नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एनएसए के तहत हिरासत रद्द की

LiveLaw News Network
13 Aug 2021 4:38 AM GMT
गरीबी, बेरोजगारी या भूख के कारण गोपनीयता में बीफ काटना सार्वजनिक व्यवस्था का मुद्दा नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एनएसए के तहत हिरासत रद्द की
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में तीन लोगों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, 1980 के तहत पारित हिरासत आदेश को रद्द कर दिया, जिन पर एक घर में गुप्त रूप से बेचने के उद्देश्य से बीफ के छोटे टुकड़े काटने का आरोप लगाया गया है।

न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति सरोज यादव की खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ताओं / बंदियों के अपने ही घर में गोपनीयता से गोमांस के टुकड़े करने के मामले को कानून और व्यवस्था को प्रभावित करने वाले मामले के रूप में वर्णित तो किया जा सकता है, लेकिन सार्वजनिक व्यवस्था प्रभावित करने वाले मामले के रूप में नहीं।

कोर्ट ने कहा,

"...याचिकाकर्ता और सह-अभियुक्तों को उस समय चुपचाप गिरफ्तार कर लिया गया था, जब वे अपने घर में तड़के गोमांस काटते हुए पाए गए। हम यह भी नहीं जानते कि क्या इसका कारण गरीबी, रोजगार की कमी या भूख थी, जिसने याचिकाकर्ताओं और अन्य सह-आरोपियों को ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर किया हो।"

संक्षेप में तथ्य

पांच लोगों (बंदियों सहित) द्वारा गोमांस को बेचने के उद्देश्य से काटने की सूचना मिलने पर, प्रभारी निरीक्षक ने अन्य पुलिसकर्मियों के साथ बंदियों / याचिकाकर्ताओं के घर पर छापा मारा।

उसमें दो बंदियों (परवेज और इरफान) को बीफ बीफ और उसे काटने वाले हथियारों के साथ मौके पर ही गिरफ्तार किया गया था, हालांकि, उनके साथी रहमतुल्लाह, करीम और रफी मौके से भाग गए थे (जिन्हें बाद में पकड़ा गया और गिरफ्तार कर लिया गया)।

बरामद गोमांस की पशु चिकित्सक द्वारा जांच की गई और यह सत्यापित किया गया कि बरामद मांस बीफ था।

इसके बाद उत्तर प्रदेश गोहत्या रोकथाम अधिनियम, 1955 की धारा 3/5/8 और आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 की धारा सात के तहत याचिकाकर्ताओं/बंदियों तथा सह-आरोपियों – करीम और रफी- के खिलाफ सीतापुर जिले के तलगांव पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज की गई थी।

तत्पश्चात, एसपी, सीतापुर और एसएचओ की रिपोर्ट से संतुष्ट होने पर और आगे इस बात से संतुष्ट होने पर कि सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए और याचिकाकर्ताओं/बंदियों को जमानत पर रिहा किए जाने की संभावना को देखते हुए हिरासत में लेने वाले प्राधिकारी ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, 1980 की धारा 3(2) के तहत याचिकाकर्ताओं/बंदियों को हिरासत में लेने का आक्षेपित आदेश पारित किया।

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यह आरोप लगाया गया था कि जब उक्त खबर क्षेत्र में फैली, तो हिंदू समुदाय के ग्रामीण याचिकाकर्ताओं/बंदियों के घर के पास जमा हो गए और वे सभी उत्साहित हो गए और सांप्रदायिक एकता भंग हो गई।

यह भी तर्क दिया गया कि पुलिस बड़े प्रयासों के बाद आम जनता को समझाने और सार्वजनिक व्यवस्था बहाल करने के लिए कदम उठाने में सफल रही और उसके बाद, हिरासत आदेश इस आधार पर पारित किया गया कि बंदियों और सह-अभियुक्तों के कृत्यों के परिणामस्वरूप, हिंदू समुदाय की भावनाएं आहत हुईं और हिंदू-मुस्लिम सद्भाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा तथा भय एवं आतंक का माहौल पैदा हुआ, सार्वजनिक व्यवस्था भंग हुई और भीड़ लड़ने-झगड़ने के लिए उतारू हो गई।

न्यायालय की टिप्पणियां

शुरुआत में, कोर्ट ने कहा कि इस सवाल का जवाब कि क्या मामला सार्वजनिक व्यवस्था से जुड़ा है, या केवल कानून और व्यवस्था को प्रभावित करने वाला है, गुणवत्ता और डिग्री पर निर्भर करता है कि क्या यह कार्य सार्वजनिक नजर में और दूसरे समुदाय की भावनाओं के संबंध में आक्रामक तरीके से किया गया है या क्या यह गुप्त तरीके से किया गया है?

इस पृष्ठभूमि में, कोर्ट ने कहा कि यह घटना याचिकाकर्ताओं/बंदियों के घर की गोपनीयता में सुबह 5.30 बजे हुई थी और यह लोगों की नज़रों से दूर गोमांस को काटने की एक अकेली घटना थी।

कोर्ट ने कहा,

"जब याचिकाकर्ता/बंदियों परवेज और इरफान और अन्य सह-आरोपियों को उस समय पुलिस द्वारा गिरफ्तार किया जा रहा था, तब कोई विरोध नहीं हुआ था।"

न्यायालय ने इस प्रकार फैसला सुनाया:

"गरीबी या रोजगार की कमी या भूख के कारण तड़के अपने ही घर की गोपनीयता में एक गाय को मारने के कार्य में शायद केवल कानून और व्यवस्था का मुद्दा शामिल होगा और इसे उसी पायदान पर खड़ा नहीं कहा जा सकता है जहां कई मवेशियों को लोगों की नजरों के सामने ही वध किया गया हो और गोमांस को ट्रांसपोर्ट किया जा रहा हो या ऐसी घटना जहां वध करने वालों द्वारा शिकायत करने वाली जनता के खिलाफ आक्रामक हमला किया जाता है, जिसमें सार्वजनिक व्यवस्था का उल्लंघन शामिल हो सकता है।"

नतीजतन, कोर्ट ने कहा कि उनके खिलाफ नजरबंदी आदेश यह साबित करने वाली किसी सामग्री के बिना पारित किया गया था कि याचिकाकर्ताओं/बंदियों का कोई आपराधिक इतिहास था।

अदालत ने यह भी देखा कि यह बिना किसी सामग्री या सबूत के आधार पर केवल एक अनुमान है कि याचिकाकर्ता/बंदी पहले भी इस तरह की घटना में शामिल हो सकता है और अगर वे जमानत पर रिहा हो जाते हैं तो वह इस तरह की घटना को दोहरा सकते हैं।

इसके साथ, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं सफल हुईं और उन्हें स्वीकार कर लिया गया और निरोध आदेश और आक्षेपित परिणामी आदेशों को रद्द कर दिया गया।

केस का शीर्षक - परवेज (अपने भाई इमरान के जरिये) प्रतिवादी :- उत्तर प्रदेश सरकार गृह सचिव, लखनऊ एवं अन्य संबंधित याचिकाएं

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