आपराधिक मुकदमा एकतरफा आगे नहीं बढ़ सकता, धारा 299 सीआरपीसी को छोड़कर अभियुक्त की अनुपस्थिति में साक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता: कर्नाटक हाईकोर्ट

Avanish Pathak

1 Jun 2022 1:30 PM GMT

  • आपराधिक मुकदमा एकतरफा आगे नहीं बढ़ सकता, धारा 299 सीआरपीसी को छोड़कर अभियुक्त की अनुपस्थिति में साक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता: कर्नाटक हाईकोर्ट

    Karnataka High Court

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि किसी आरोपी की अनुपस्थिति में आपराधिक मुकदमा तब तक नहीं चलाया जा सकता जब तक कि वैध कारणों से उसे व्यक्तिगत पेशी से छूट नहीं दी जाती। यदि गवाह के साक्ष्य में आपत्तिजनक साक्ष्य दिखाई देते हैं तो धारा 313 आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत किसी आरोपी की परीक्षा का प्रावधान नहीं किया जा सकता है।

    जस्टिस श्रीनिवास हरीश कुमार की सिंगल जज बेंच ने कहा, "स्पीडी ट्रायल का अर्थ यह नहीं है कि आपराधिक मुकदमे में चरणों को लांघ जाया जाए।"

    अदालत ने जीएच अब्दुल कादरी द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिका की अनुमति दी और अतिरिक्त सिविल जज द्वारा पारित एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दोषसिद्धि और सजा के फैसले को रद्द कर दिया। उन्होंने आरोपी को एकतरफा दोषी ठहराया था।

    सीआरपीसी की धारा 273 का जिक्र करते हुए पीठ ने कहा, "यह बहुत स्पष्ट है कि सबूत आरोपी की उपस्थिति में लिया जाना चाहिए और यह आरोपी की अनुपस्थिति में दर्ज किया जा सकता है यदि यह स्पष्ट रूप से सीआरपीसी में प्रदान किया गया है। यदि आरोपी की व्यक्तिगत हाजिरी से छूट दी जाती है, आरोपी के वकील की मौजूदगी में सबूत दर्ज किए जा सकते हैं।"

    इसके अलावा, "आरोपी की अनुपस्थिति में साक्ष्य दर्ज करने का एकमात्र प्रावधान धारा 299 है। इसलिए यह स्पष्ट है कि धारा 299 के अलावा, आरोपी की अनुपस्थिति में किसी अन्य कारण से साक्ष्य दर्ज नहीं किया जा सकता है।"

    विवरण

    याचिकाकर्ता जीएच अब्दुल कादरी ने मजिस्ट्रेट कोर्ट और प्रमुख जिला एवं सत्र न्यायाधीश के आदेशों को चुनौती देते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया था।

    आपराधिक मामलों में आरोपी होने के नाते याचिकाकर्ता को नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए अभियोजन का सामना करना पड़ा, क्योंकि उसके द्वारा प्रतिवादी से प्राप्त किए गए ऋण के संबंध में अपनी देयता का निर्वहन करने के लिए उसके द्वारा जारी किए गए चेक बैंक खाते में पर्याप्त धनराशि के अभाव में अनादरित हो गए थे।

    मजिस्ट्रेट अदालत ने सभी मामलों में कहा कि याचिकाकर्ता को समन की तामील के बावजूद अदालत के समक्ष पेश नहीं हुआ। इसलिए, इंडियन बैंक एसोसिएशन और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया [(2014) 5 एससीसी 590] के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार उसने प्रतिवादी द्वारा सभी मामलों में दायर हलफनामों को स्वीकार कर लिया, धारा 313 सीआरपीसी के तहत आरोपी के बयान से छूट दी और फिर सभी मामलों में याचिकाकर्ता को दोषी ठहराने और सजा देने के लिए आगे बढ़े।

    अपील में सत्र न्यायाधीश ने कहा कि शिकायतकर्ता द्वारा दिए गए साक्ष्य और उसके द्वारा पेश किए गए दस्तावेजों से याचिकाकर्ता/अभियुक्त के खिलाफ मामला बनता है।

    यह देखा गया कि जैसा कि विभिन्न निर्णयों में कहा गया है कि धारा 138 के तहत अपराध एक दस्तावेज आधारित अपराध है और इसलिए आरोपी को अदालत के समक्ष पेश होने की प्रतीक्षा करने की कोई आवश्यकता नहीं है, निचली अदालत का याचिकाकर्ता को सभी मामलों में दोषी ठहराना उचित है।

    परिणाम

    शुरुआत में अदालत ने कहा, "ट्रायल कोर्ट का फैसला इस बात का एक बहुत अच्छा उदाहरण है कि न्याय को कैसे नुकसान होता है अगर जज उन फैसलों में निर्धारित सिद्धांतों के सही अर्थ को समझे बिना कानून के पहले सिद्धांतों की पूरी तरह से अवहेलना केरते हुए केस लॉ पर भरोसा करते हैं।

    कोर्ट ने कहा, इंडियन बैंक एसोसिएशन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले, ट्रायल कोर्ट ने शुरुआत में प्रतिवादी द्वारा दायर हलफनामे को समन चरण के बाद जोड़े जाने वाले साक्ष्य के पर्याप्त अनुपालन के रूप में अपनाया था, और निश्चित रूप से इसमें कोई कानूनी खामी नहीं है।

    कोर्ट ने कहा,

    "लेकिन ट्रायल कोर्ट ने इस आधार पर आगे बढ़ा कि माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इंडियन बैंक एसोसिएशन के मामले में यह माना है कि आरोपी की उपस्थिति को सुरक्षित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ट्रायल कोर्ट ने गलत किया है। यदि उक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट का संपूर्ण निर्णय पढ़ा जाता है, तो यह कहीं नहीं पाया जाता है कि यदि अभियुक्त समन प्राप्त करने के बाद न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने में विफल रहता है, तो उसकी अनुपस्थिति में मुकदमा चलाया जा सकता है।"

    शीर्ष अदालत के फैसले में की गई टिप्पणी का जिक्र करते हुए इसने कहा,

    "यह स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि समन आरोपी के उचित पते पर भेजा जाना चाहिए और समन को आरोपी के ईमेल पते पर भी भेजा जा सकता है; और उपयुक्त मामलों में, पुलिस या निकटवर्ती अदालत की सहायता समन की तामील के लिए मांग की जा सकती है। यह आगे कहा गया है कि यदि तामील किए गए समन को बिना तामील किए वापस प्राप्त किया जाता है, तो तत्काल अनुवर्ती कार्रवाई की जानी चाहिए।"

    सीआरपीसी की धारा 273 पर भरोसा करते हुए पीठ ने कहा,

    "मामले में, यह विवाद में नहीं है कि याचिकाकर्ता अदालत के समक्ष पेश नहीं हुआ। यदि याचिकाकर्ता समन प्राप्त करने पर उपस्थित नहीं हुआ, तो निचली अदालत को वारंट जारी करना चाहिए था और फिर उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए उद्घोषणा जारी करनी चाहिए थी। रिकॉर्ड आरोपी की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए ट्रायल कोर्ट द्वारा किए जा रहे ऐसे किसी भी प्रयास का खुलासा नहीं करते हैं।"

    कोर्ट ने कहा, "यह एक घोर त्रुटि है जिसे ट्रायल कोर्ट के फैसले में देखा जा सकता है।

    फैसले में आगे कहा गया, "इस प्रकार यह स्पष्ट है कि दोनों न‌िचले न्यायालयों ने निर्दिष्ट निर्णयों में निर्धारित सिद्धांतों का गलत उपयोग किया है।"

    तद्नुसार इसने पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लिया और निचली अदालत के फैसले को खारिज करते हुए मामले को फिर से निपटान के लिए मजिस्ट्रेट अदालत में वापस भेज दिया।

    केस टाइटल: जीएच अब्दुल कादरी बनाम मोहम्मद इकबाल

    केस नंबर: Crl.RP.No.1323/2019

    साइटेशनः 2022 लाइव लॉ (कर) 180

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