एससी/एसटी एक्ट के तहत शिकायतकर्ता की जाति बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य शर्तः मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

18 Sep 2021 12:15 PM GMT

  • एससी/एसटी एक्ट के तहत शिकायतकर्ता की जाति बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य शर्तः मध्य प्रदेश हाईकोर्ट

    Madhya Pradesh High Court

    मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने मंगलवार को माना कि अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम के तहत मामले में शिकायतकर्ता की जाति बहुत ही महत्वपूर्ण और अनिवार्य शर्त और यह नहीं माना जा सकता है कि शिकायतकर्ता एफआईआर में यह उल्लेख करना भूल गया होगा कि हमलावरों ने उसकी जाति पर टिप्‍पणी नहीं की होगी।

    इन टिप्पणियों के साथ जस्टिस सुबोध अभ्यंकर की खंडपीठ ने अनुसूचित जाति/जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (5 ए) के तहत एक व्यक्ति के खिलाफ दर्ज मामले को खारिज कर दिया, जिस पर शिकायतकर्ता के खिलाफ जातिगत टिप्पणी करने का आरोप था।

    मामला

    12 अप्रैल 2016 को अपीलार्थी और परिवादी के बीच विवाद हो गया था। शिकायतकर्ता ने एफआईआर में आरोप लगाया था कि मौके पर सभी धर्म के लोग थे और विवाद शुरू हो गया क्योंकि शिकायतकर्ता जगदीश को अपीलकर्ता नंबर एक अलकेश ने भीड़ में धकेल दिया था और शिकायतकर्ता ने अपीलकर्ता नंबर एक अलकेश के खिलाफ आपत्ति जताई ‌थी। मौके पर अलकेश और अन्य आरोपियों ने उसे पीटा भी।

    शुरुआत में आईपीसी की धारा 294, 323, 506 और 34 के तहत मामला दर्ज किया गया था, हालांकि, गवाह द्वारा एक महीने से अधिक समय के बाद दर्ज किए गए बयान के आधार पर, धारा 3 (2) (5ए), 3(1) (डी)(आर) एससी/एसटी एक्ट को भी चार्जशीट में जोड़ा गया।

    हालांकि, आरोप तय करने के समय, धारा 3(1) को हटा दिया गया और आईपीसी की धारा 294, 323, 506(2) और एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(2)(5ए) के तहत आरोप तय किए गए।

    एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(2)(5ए) के तहत आरोप तय करने को चुनौती देते हुए शिकायतकर्ता ने हाईकोर्ट का रुख किया।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    कोर्ट ने कहा, महत्वपूर्ण बात यह है कि घटना के 28 दिन की देरी के बाद पहली बार जातिगत कोण सामने आया और वह भी सीआरपीसी की धारा 161 के तहत पूरक बयान में, जबकि एफआईआर में शिकायतकर्ता की जाति का कोई उल्लेख नहीं था।

    ऐसी परिस्थितियों में न्यायालय ने कहा, "...शिकायतकर्ता की जाति पर आक्षेप के संबंध में आरोप एक बाद का विचार था और बाद में केवल अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के कठोर प्रावधानों का लाभ उठाने की दृष्टि से लगाया गया है, जिसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है।"

    कोर्ट ने कहा, "इस अदालत का सुविचारित मत है कि हालांकि यह सच है कि एफआईआर घटना या घटना के आसपास के तथ्यों का एक एनसाइक्लोपीडिया नहीं है, हालांकि एफआईआर दर्ज करते समय कुछ बुनियादी आवश्यकताएं होती हैं, जिनके अवलोकन के बाद अपराध के सार के बारे में पता लगाने में कोई सक्षम हो सकता है, और शिकायतकर्ता की जाति कुछ ऐसी है, जिसे एफआईआर दर्ज करते समय भूला नहीं जा सकता है, खासकर जब जाति ही मामले का एक महत्वपूर्ण पहलू थी।

    शिकायतकर्ता की जाति एससी / एसटी अधिनियम के तहत एक मामले में सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य शर्त है और यह नहीं माना जा सकता है कि शिकायतकर्ता एफआईआर में यह उल्लेख करना भूल जाएगा कि हमलावरों ने उसकी जाति के खिलाफ भी आरोप लगाए थे।"

    केस शीर्षक - अलकेश और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य

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