आजीवन कारावास की सजा को कम करनाः सीआरपीसी की धारा 435 के तहत केंद्र की सहमति आवश्यक, हालांकि बिना किसी कारण इनकार नहीं किया जा सकता

LiveLaw News Network

4 Feb 2021 4:52 AM GMT

  • आजीवन कारावास की सजा को कम करनाः सीआरपीसी की धारा 435 के तहत केंद्र की सहमति आवश्यक, हालांकि बिना किसी कारण इनकार नहीं किया जा सकता

    दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना है कि सीआरपीसी की धारा 435 के तहत किसी कैदी की समय से पहले रिहाई के लिए केंद्र सरकार की "सहमति" आवश्यक है।

    यह प्रावधान राज्य सरकार को कुछ मामलों में सीआरपीसी की धारा 432 (सजा को निलंबित या श‌िथिल करने की शक्ति) और 433 (सजा को कम करने की शक्ति ) के तहत प्रदान की गई शक्तियों का उपयोग करने के लिए प्रतिबंधित करता है, जहां विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 के तहत गठित दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान द्वारा जांच की गई है, या किसी अन्य एजेंसी को, केंद्र सरकार के साथ 'परामर्श' के बाद, किसी अन्य केंद्रीय अधिनियम के तहत, अपराध की जांच करने का अधिकार दिया गया है।

    ज‌स्ट‌िस विभु बाखरू की एकल पीठ ने कहा कि 'परामर्श' शब्द को सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन और अन्य (2016) 7 एससीसी 1 में 'सहमति' के रूप में लिया है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उस फैसले के माध्यम से, सुप्रीम कोर्ट ने केवल सीआरपीसी की धारा 435 के प्रावधानों की व्याख्या की थी और किसी भी कानून ने निर्धारित नहीं किया था, जो संसद द्वारा लागू किए गए कानून से अलग हो।

    इस प्रकार, यह निर्णय कि वी श्रीहरन (सुप्रा) में दिय गया निर्णय उस तारीख से संभावित रूप से लागू होगा, जिस दिन यह निर्णय दिया गया था, में कोई योग्यता नहीं है। खंडपीठ ने कहा, "एक कानून उस तारीख से संचालित नहीं होता है, जिस दिन इसकी व्याख्या की जाती है। यह लागू होने की तारीख से संचालित हो जाता है, जब तक कि अन्यथा निर्दिष्ट नहीं किया जाता है।"

    पृष्ठभूमि

    यह आदेश कार्तिक सुब्रमण्यम की रिट याचिका पर विचार करते हुए पारित किया गया था। केंद्र सरकार ने कार्तिक की सजा पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। याचिकाकर्ता को 2005 में धारा 120 बी, आईपीसी की धारा 364 ए / 365/368/324/506 के साथ पढ़ें, के तहत ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। उसकी सजा को 2007 में ऊपरी अदालत ने बरकरार रखा।

    एसआरबी दिशानिर्देशों के अनुसार, याचिकाकर्ता 7 मई, 2017 को समय से पहले रिहाई का पात्र हो गया। एसआरीबी ने याचिकाकर्ता की समय से पहले रिहाई की सिफारिश की और दिल्ली के उपराज्यपाल चार मौकों पर मंजूरी दी गई थी। हालांकि, केंद्र सरकार ने पहले तीन मौकों पर उक्त निर्णय पर सहमति नहीं जताई और चौथी सिफारिश पर बैठ जाने का आरोप लगाया।

    दलील

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट वारिशा फरासत ने निम्न दलीलें दी-

    (i) याचिकाकर्ता की समय से पहले रिहाई के लिए केंद्र सरकार की सहमति अनिवार्य नहीं है। इस संदर्भ में, याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि 12 दिसंबर, 2015 से पहले, सीआरपीसी की धारा 435 में प्रयुक्त शब्द 'परामर्श' का आथ 'सहमति' नहीं माना जा सकता था। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने वी श्रीहरन मामले में "परामर्श" शब्द को, जिसे सीआरपीसी की धारा 435 में इस्तेमाल किया है, "सहमति" के रूप में माना है, हालांकि उक्त निर्णय 02.12.2015 को दिया गया था और उसे पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता है। उन्होंने दलील दी कि उक्त निर्णय, याचिकाकर्ता के समय से पहले रिहाई के लिए पात्र हो जाने के बाद लिया गया।

    (ii) याचिकाकर्ता ने समयपूर्व रिहाई के लिए एसआरबी की ओर से जारी दिशानिर्देशों में निर्धारित शर्तों का अनुपालन किया था; सजा के दौरान उसका आचरण अनुकरणीय रहा है और उसे संबंधित अधिकारियों ने मान्यता दी थी; एसआरबी ने यह भी पाया था कि उसमें अपराध करने की प्रवृत्ति नहीं थी।

    जांच - परिणाम

    पहले दलील पर खंडपीठ ने, "यूनियन ऑफ इंडिया बनाम श्रीहरन @ मुरुगन (सुप्रा) के मामले में निर्णय से नीति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। उक्त निर्णय ने केवल वैधानिक अभिव्यक्ति की व्याख्या की है जैसा कि सीआरपीसी की धारा 435 में दिया गया है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता की सजा को कम करने या हटाने के लिए केंद्र सरकार सहमति अनिवार्य है।"

    जहां तक दूसरे मुद्दे की बात है, न्यायालय का मत था कि केंद्र सरकार का दिल्ली सरकार और एसआरबी की सिफारिशों से सहमत नहीं होने का फैसला मनमाना और अनुचित है। पीठ ने कहा, "निर्विवाद रूप से, जेल में याचिकाकर्ता का आचरण अनुकरणीय है। कारावास के दौरान, याचिकाकर्ता के आचरण की प्रशंसा विभिन्न जेल अधिकारियों ने की है, जिन्होंने प्रमाणित किया है कि जेल में उसका आचरण अनुकरणीय रहा है। उन्हें आचरण और जेल में काम के लिए कई प्रमाण पत्र जारी किए गए हैं।"

    पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता की समय से पहले रिहाई की एसआरबी की सिफारिश एक अच्छी तरह से विचार की गई है और जब तक उससे असहमत होने का कोई प्रासंगिक कारण नहीं है, उसी को स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है। इस मामले में, पीठ ने कहा, याचिकाकर्ता की समयपूर्व रिहाई के लिए सहमति देने से इनकार के आदेश अकारण हैं और इसमें कोई संदेह नहीं है कि याचिकाकर्ता के पास समाज का उत्पादक सदस्य बनने की प्रासंगिक योग्यताएं हैं।

    पीठ ने कहा, "हालांकि सीआरपीसी की धारा 432 और 433 के तहत प्रदान की गई शक्तियां विवेकाधीन हैं, लेकिन यह अच्छी तरह से तय है कि जहां भी विवेक प्रदान किया जाता है, जिस प्राधिकरण को यह अधिकार दिया जाता है, इस अध‌िकार का प्रयोग तभी करना चाहिए, जब जिस उद्देश्य के लिए यह अधिकार प्रदान किया गया है, वह पूरा हो गया है। एक सांविधिक शक्ति भी एक कर्तव्य के साथ युग्मित है, जिस उद्देश्य के लिए इसे प्रदान किया जाता है।

    यह अच्छी तरह से तय है कि सभी राज्य के सभी कृत्य उचित कारण के साथ होने चाहिए और मनमाना नहीं हो सकता है। यह देखते हुए कि केंद्र सरकार के इस तरह के फैसले जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार से संबंध‌ित हैं, यह जरूरी है कि इस तरह के निर्णय भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 की कसौटी पर भी खरा उतरे।"

    पीठ ने अंत में, सीबीआई की ओर से दायर जवाबी हलफनामे की जांच की, जिसमें दलील दी गई थी कि याचिकाकर्ता की समयपूर्व रिहाई के लिए केवल यह आपत्ति व्यक्त की गई है, कि दोषी/ याचिकाकर्ता को सक्षम न्यायालय द्वारा दी गई सजा पूरी करनी होगी और दोषी/ याचिकाकर्ता की समय से पहले रिहाई से उम्रकैद की सजा का उद्देश्य बेकार हो जाएगा।

    पीठ ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा, "उपरोक्त कारण पूरी तरह से अस्थिर है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यदि उक्त कारण का पालन किया जाता है, तो कोई भी दोषी, जिसे आजीवन कारावास दिया गया है, को समय से पहले रिहा नहीं किया जा सकता है। और केंद्र सरकार का यह रुख नहीं है कि सीआरपीसी की धारा 435 के तहत किसी भी स्थिति में शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।"

    उपरोक्त के मद्देनजर, यह स्पष्ट है कि याचिकाकर्ता की समय से पहले रिहाई के लिए एसआरबी की सिफारिशों के से सहमत नहीं होने का केंद्र सरकार का निर्णय मनमाना है और किसी प्रासंगिक कारकों पर विचार किए बिना है। यह बिना का दीमाग का उपयोग किए और बिना किसी कारण के है। इस आदेश को बरकरार नहीं रखा जा सकता है "

    केस टाइटिल: कार्तिक सुब्रमण्यम बनाम यूनियन ऑफ इंडिया

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