इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस गोविंद माथुर को नागरिक स्वतंत्रता के रक्षक के रूप में याद किया जाएगा
LiveLaw News Network
14 April 2021 3:22 PM IST
जस्टिस गोविंद माथुर इलाहाबाद हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पद से सेवानिवृत्त हो गए।
मूल रूप से राजस्थान हाईकोर्ट से संबंद्ध रहे जस्टिस माथुर को नवंबर 2017 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में स्थानांतरित किया गया था। उन्होंने दो साल से ज्यादा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के रूप में कार्य किया।
चीफ जस्टिस के रूप में अपने कार्यकाल के दरमियान उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानवाधिकारों के निडर रक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाई। कल एक वर्चुअल समारोह में दिए अपने विदाई भाषण में, जस्टिस माथुर ने कहा कि वह डॉ बीआर अंबेडकर के आदर्शों से प्रेरित थे, जिनके साथ वह संयोग से अपना जन्मदिन साझा करते हैं।
मौजूदा आलेख में जस्टिस माथुर के नेतृत्व में बेंच द्वारा दिए महत्वपूर्ण निर्णयों की सूची दी गई है:
उत्तर प्रदेश सरकार का धर्म-परिवर्तन अध्यादेश: चीफ जस्टिस माथुर ने सुनवाई टालने से किया इनकार
उत्तर प्रदेश सरकार के विवादास्पद धर्मांतरण अध्यादेश के खिलाफ दायर याचिकाओं को टालने के लिए चीफ जस्टिस के नेतृत्व में बेंच के समक्ष दी गई इस दलील को कि इसी प्रकार की याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं, बेंच ने खारिज़ कर दिया और याचिकाओं पर सुनवाई टालने से मना कर दिया।
उस कानून के तहत उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा दायर एक मुकदमे में नदीम नामक एक व्यक्ति को संरक्षण देते हुए, बेंच ने निडरता से कहा सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित होना, कानून को दी गई चुनौती की सुनवाई करने से हाईकोर्ट को रोकता नहीं है।
बाद में, सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, यह मानते हुए कि हाईकोर्ट "संवैधानिक न्यायालय" हैं, मौलिक अधिकारों और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित मामले को तय करने के लिए पूर्णतया सशक्त हैं।
AMU हिंसा में पुलिस की ज्यादती: मानवाधिकार उल्लंघन
जनवरी 2020 में, चीफ जस्टिस माथुर की अगुवाई में एक डिवीजन बेंच ने मौजूदा केंद सरकार के पायलट प्रोजेक्ट, नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दरमियान अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हुई कथित पुलिस ज्यादतियों की जांच के आदेश दिए।
घटना को 'मानवाधिकारों का उल्लंघन' करार देते हुए अदालत ने कहा, "मानवाधिकार अधिनियम, 1993 की धारा 12 राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के साथ-साथ राज्य मानवाधिकार आयोग को उचित क्रियान्वयन की जिम्मेदारी देती है, और साथ ही साथ प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध मौलिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकती है।
अधिनियम, 1993 के तहत आयोग मानवाधिकार के उल्लंघन या किसी लोक सेवक द्वारा इस प्रकार के उल्लंघन को रोकने में लापरवाही या उकसाने के संबंध में छात्रों की याचिका पर या स्वतः संज्ञान जांच कर कर सकता है। "
इस प्रकार, हाईकोर्ट ने एनएचआरसी की छह सदस्यीय टीम का गठन किया, जिसने सिफारिश की कि घायल छात्रों को मुआवजा देने के अलावा कानून के अनुसार अपराधी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
जिसके बाद, कोर्ट ने उत्तर प्रदेश पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिया कि वे अपराधी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई करें। पुलिस बल को संवेदनशील बनाने और विशेष प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए निर्देश भी दिए गए।
यह आदेश उन छात्रों के लिए बड़ी राहत के रूप में सामने आया था, जो न केवल कार्यपालिका के हाथों गैर-कानूनी बर्बरता का शिकार हुए थे, बल्कि सरकार से असहमत होने के कारण उन्हें राष्ट्र-विरोधी के रूप में पेश किया जा रहा था।
नेम एंड शेम बैनर: निजता के अधिकार का उल्लंघन
उसी वर्ष मार्च में, जस्टिस माथुर की पीठ ने कथित रूप से सीएए विरोधी प्रदर्शनों में शामिल व्यक्तियों की निजता के मौलिक अधिकार की रक्षा के लिए पहल की, जिनकी तस्वीरें और व्यक्तिगत विवरण उत्तर प्रदेश सरकार ने कुख्यात "नेम एंड शेम बैनर" में प्रकाशित किए थे।
कुछ ख़बरों के आधार पर कोर्ट ने मामले का स्वत: संज्ञान लिया और पाया कि सरकार की कार्रवाई का संविधान प्रदत्त अधिकारों पर "हानिकारक प्रभाव" पड़ा है और कोर्ट सार्वजनिक अन्याय पर अपनी आँखें बंद नहीं कर सकती।
ये टिप्पणी बाद में संविधान के मुख्य वास्तुकार डॉ बीआर अंबेडकर की 129 वीं वर्षगांठ के अवसर पर जस्टिस माथुर के भाषण में प्रतिध्वनित हुई।
उन्होंने कहा, "न्यायिक बिरादरी के सदस्य होने के नाते, संवैधानिक आदर्शों और मूल्यों के संवर्धन और संरक्षण को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हमारे कंधों पर उच्च स्तर पर है। ये मूल्य केवल राज्य द्वारा पालन किए जाने के लिए नहीं हैं, बल्कि हमारे जीवन का तरीका होना चाहिए, और हर नागरिक की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में शामिल हो। "
इस मुद्दे की तात्कालिकता को ध्यान में रखते हुए, कोर्ट ने गैर-कार्य दिवस पर मामले की सुनवाई के लिए एक विशेष बैठक आयोजित की थी और यह निष्कर्ष निकाला था कि उत्तर प्रदेश सरकार यह बताने में विफल रही कि कुछ व्यक्तियों के व्यक्तिगत डेटा को बैनरों पर क्यों प्रदर्शित किया गया है और इस प्रकार नागरिकों के निजता के अधिकार के साथ "अवांछित हस्तक्षेप" हुआ।
निस्संदेह, इन बैनरों का बिना किसी ट्रायल के व्यक्तियों पर दायित्व तय करने का प्रभाव था और हाईकोर्ट ने कार्यपालिका की ओर से शक्तियों के इस प्रकार के अभ्यास के खिलाफ व्यापक टिप्पणियां कीं थीं।
प्रवासी मुद्दे: हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान कार्रवाई की
राष्ट्रीय लॉकडाउन के दरमियान, समाज के कमजोर हिस्सों, विशेष रूप से प्रवासी मजदूरों की रही कठिनाइयों पर हाईकोर्ट ने ध्यान दिया। कोर्ट ने आदेश दिया कि 400 प्रवासियों के समूहों पर एक अधिकारी को नियुक्त किया जाना चाहिए, ताकि उनके "स्वास्थ्य और रहने की स्थिति" की नियमित जांच हो सके।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि निर्देश औपचारिकता बनकर ना रह जाएं, हाईकोर्ट ने विशेष रूप से ऐसे अधिकारियों के लिए निर्देश जारी किए:
-मोबाइल नंबर के माध्यम से प्रवासियों के हालचाल के बारे में पूछताछ करें, नंबर की सूची अधिकारी मेंटेन करेंगे।
-दैनिक आधार पर, अपनी सूचियों में दर्ज व्यक्तियों के स्वास्थ्य के बारे में पूछताछ करें।
-यदि वे पाते हैं कि सूची में भोजन किसी को उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है, तो भोजन उपलब्ध कराने के लिए उचित व्यवस्था कराई जाए।
ऐसे प्रवासी जो अन्य राज्यों में फंसे हुए थे/ उत्तर प्रदेश के अपने गृह शहरों की ओर आ रहे थे, अदालत ने उन्हें प्रदान की जा रही सुविधाओं पर एक विस्तृत रिपोर्ट मांगी।
यह निर्देश फंसे हुए श्रमिकों की आवाजाही पर केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी मानक संचालन प्रोटोकॉल के अतिरिक्त था।
इसके अलावा, इस मुद्दे को दीर्घकालिक आधार पर संबोधित करने के लिए, जस्टिस माथुर ने सरकार को प्रवासियों के पुनर्वास के लिए एक योजना तैयार करने और रोजगार के खाके के साथ आने का निर्देश दिया, ताकि उत्तर प्रदेश के मूल निवासियों के प्रवासन को कम किया जा सके।
कफील खान का मामला: न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बरकरार रखा
मुख्य न्यायाधीश माथुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने गोरखपुर के बाल रोग विशेषज्ञ डॉ कफील खान के खिलाफ पारित डिटेंशन ऑर्डर को रद्द कर दिया था। उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980 के तहत, कथित रूप से पिछले साल सीएए विरोधी प्रदर्शन में उत्तेजक भाषण देने के लिए हिरासत में लिया गया था। वह जनवरी 2020 से मथुरा जेल में बंद थे।
हाईकोर्ट ने इस वर्ष फरवरी में एनएसए के तहत निरोध आदेश पारित करने वाले लोकल जिला मजिस्ट्रेट को खान के भाषण के 'चयनात्मक तरीक से पढ़ने' और 'भाषण से कुछ वाक्यांशों के चयनात्मक उल्लेख के लिए" और "सच्चे इरादे की अनदेखी" के लिए फटकार लगाई थी।
डॉ खान ने विवादास्पद सीएए कानून के विरोध के दरमियान एएमयू के छात्रों के एक समूह को संबोधित किया था, जहां अन्य बातों के साथ, उन्होंने 'मोटा भाई' के खिलाफ मानवतावाद के बजाय सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का आक्षेप लगाया था।
चीफ जस्टिस माथुर ने कहा कि डॉ खान की टिप्पणी वास्तव में "नागरिकों के बीच राष्ट्रीय अखंडता और एकता" का आह्वान करती है और इस भाषण में कुछ भी नहीं था जिससे सार्वजनिक शांति प्रभावित हुई।
एक अन्य महत्वपूर्ण फैसले में, जस्टिस माथुर ने लोकल जेल में सुधार के लिए सुधारात्मक कार्रवाई का आह्वान किया था। चीफ जस्टिस की बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा था कि कैदियों के पास भी मानवाधिकार हैं।
COVID संकट: खुद को नुकसान पहुंचाने से लोगों को रोकना
हाईकोर्ट ने COVID 19 के प्रसार को रोकने के लिए स्थानीय अधिकारियों द्वारा उठाए जा रहे कदमों पर भी ध्यान रखा है।
जस्टिस माथुर की खंडपीठ द्वारा राज्य में क्वारंटीन केंद्र की स्थितियों की निगरानी के लिए पंजीकृत स्वतः संज्ञान याचिका अब एक अन्य डिवीजन बेंच को सौंपी गई है, जिसमें जस्टिस सिद्धार्थ वर्मा और जस्टिस अजीत कुमार शामिल हैं।
इस महीने की शुरुआत में दिए गए एक आदेश में, सीजे माथुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने सरकार से 45 साल से कम उम्र के लोगों सहित सभी को COVID टीकाकरण देने पर विचार करने के लिए कहा था।
उन्होंने एटा में एक वकील के खिलाफ पुलिस के अत्याचारों का भी संज्ञान लिया था और न्यायिक जांच का आदेश दिया था।
निष्कर्ष
जस्टिस माथुर द्वारा पारित आदेश संविधान में उनके विश्वास का अमूर्त प्रतिबिंब हैं, जो डॉ बीआर अंबेडकर की जयंती पर उनके द्वारा दिए गए एक भाषण में परिलक्षित होता है:
"भारत का संविधान डूज़ और डोंट्स के लिए एक सरल वसीयतनामा या कानून की किताब नहीं है, बल्कि एक राष्ट्र के रूप में और अपने सभी नागरिकों के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता के साथ अपने नागरिकों के संघीय समाज के रूप में भारत की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक प्रगति के लिए एक अच्छी तरह से तैयार मार्ग है।
हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन के साथ-साथ अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए हमें अपने संवैधानिक मूल्यों के लिए खुद को प्रतिबद्ध करना चाहिए, जिन्होंने हमारे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आकार प्राप्त किया और डॉ बीआर के नेतृत्व में मसौदा समिति द्वारा शब्दों में लिखा गया।"