भुगतान रोकने, खाता बंद होने और हस्ताक्षर बेमेल होने के कारण अस्वीकृत चेक के मामले भी धारा 138 एनआई एक्ट के दायरे में आते हैं: जे एंड के एंड एल हाईकोर्ट

Avanish Pathak

23 Aug 2022 1:07 PM GMT

  • Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K

    जम्मू एंड कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि एनआई एक्ट की धारा 138 में निहित प्रावधानों की उदार व्याख्या की जानी चाहिए ताकि उस उद्देश्य को पाया जा सके जिसके लिए यह प्रावधान अधिनियमित किया गया है।

    पीठ ने कहा,

    न केवल धन की कमी या व्यवस्था की अधिकता के कारण बल्‍कि चेक के अनादर के ऐसे मामले, जिनमें "भुगतान रोको", "खाता बंद" और "हस्ताक्षर बेमेल" जैसे मामले शामिल हो, वह भी उक्त प्रावधान के तहत अपराध के दायरे में आते हैं।

    जस्टिस संजय धर की पीठ एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसके तहत याचिकाकर्ता ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपने खिलाफ दायर अपराध को चुनौती दी थी। न्यायिक मजिस्ट्रेट, श्रीनगर की अदालत ने मामले में याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रक्रिया जारी की थी।

    याचिकाकर्ता ने प्राथमिक रूप से शिकायत को इस आधार पर चुनौती दी थी कि ड्रॉअर के हस्ताक्षर में अंतर के कारण चेक का अनादर हुआ था, और इसलिए याचिकाकर्ता के खिलाफ एनआई एक्‍ट की धारा 138 के तहत अपराध नहीं बनता है।

    मामले में पीठ ने कहा कि पहली बार में ऐसा लगता है कि केवल दो स्थितियों में ही एनआई अधिनियम की धारा 138 आकर्षित हो सकती है, पहली यह कि जब उस व्यक्ति के बैंक खाते में अपर्याप्त धन उपलब्ध हो, जो चेक ड्रॉ कर है, दूसरी वह जहां यह व्यवस्था से अधिक हो।

    हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों में इस प्रावधान की व्याख्या इस प्रकार की है कि इसके दायरे में उन मामलों को भी शामिल किया जा सके जहां उपरोक्त दो कारणों के अलावा अन्य कारणों से चेक का अनादर हुआ है।

    इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट की फैसलों की जांच करते हुए पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कंवर सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन, AIR 1965 SC 871 और तमिलनाडु राज्य बनाम एम के कंडास्वामी और अन्य 1974(4) ने स्पष्ट रूप से कहा कि एक दंडात्मक प्रावधान की व्याख्या करते समय, जो प्रकृति में उपचारात्मक भी है, एक ऐसी स्‍थापना जो इसके उद्देश्य को विफल करे या कानून की किताब से इसे बाहर करने का प्रभाव रखे, उससे बचा जाना चाहिए और यदि एक से अधिक स्‍थापना संभव है तो न्यायालय को ऐसी स्‍थापना को अपनाना चाहिए जो कानून की व्यावहारिकता और प्रभावकारिता को बनाए रखे और ऐसी व्याख्या से बचना चाहिए जो प्रावधान को निष्फल कर दे।

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि जब एक चेक को एक ड्रॉअर को "खाता बंद" टिप्पणी के साथ लौटाया जाता है, तो यह एनआई एक्‍ट की धारा 138 के तहत अपराध होगा।

    इस तर्क को निस्तारित करते हुए कि चेक का अनादर ड्रॉअर के हस्ताक्षरों में अंतर के कारण था और एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध नहीं बनता है, पीठ ने लक्ष्मी डाइकेम बनाम गुजरात राज्य और अन्य, (2012) में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों को दर्ज करना उचित पाया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले को निस्तारित किया था, जिसमें बैंक द्वारा चेक इस आधार पर अस्वीकृत कर दिए गए थे कि ड्रॉअर के हस्ताक्षर अधूरे थे...।

    उक्‍त कारणों से पीठ ने याचिका को योग्यता रहित पाया और इसे खारिज कर दिया। अंतरिम आदेश को रद्द कर दिया गया और ट्रायल मजिस्ट्रेट को कानून के अनुसार मामले में आगे बढ़ने का निर्देश दिया गया।

    केस टाइटल: मोहम्मद शफी वानी बनाम नूर मोहम्मद खान

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (जेकेएल) 111

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