मध्यस्थ के पक्षपात से संबंधित चुनौती को ए&सी अधिनियम की धारा 14 के तहत नहीं उठाया जा सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

Shahadat

12 Dec 2022 4:56 AM GMT

  • मध्यस्थ के पक्षपात से संबंधित चुनौती को ए&सी अधिनियम की धारा 14 के तहत नहीं उठाया जा सकता: दिल्ली हाईकोर्ट

    दिल्ली हाईकोर्ट ने पूर्वाग्रह के आधार पर मध्यस्थ के जनादेश को दी गई चुनौती पर कहा कि ए एंड सी अधिनियम की धारा 14 के तहत स्वतंत्रता और निष्पक्षता के संबंध में न्यायोचित संदेह नहीं उठाया जा सकता।

    जस्टिस यशवंत वर्मा की खंडपीठ ने कहा कि अधिनियम की धारा 14 न्यायालय को मध्यस्थ के जनादेश को समाप्त करने की शक्ति प्रदान करती है और केवल उन परिस्थितियों में स्थानापन्न मध्यस्थ नियुक्त करती है, जो अधिनियम की 7 वीं अनुसूची के अंतर्गत आती हैं और जो कानूनी रूप से मध्यस्थ अयोग्यता से संबंधित है। हालांकि, पक्षपात का आधार या स्वतंत्रता और निष्पक्षता के रूप में न्यायोचित आधार 5वीं अनुसूची सपठित धारा 12(3) के अंतर्गत आता है, जिसमें केवल ट्रिब्यूनल ही चुनौती पर निर्णय ले सकता है।

    न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 12, 13 और 14 मध्यस्थ के शासनादेश को चुनौती देने और समाप्त करने के लिए समग्र वैधानिक योजना का गठन करने के लिए प्रकट होती है। हालांकि, वे उस चुनौती के लिए अलग हल प्रदान करती हैं, जिसे उठाया जा सकता है।

    तथ्य

    पक्षकारों ने गैस खोजों के विकास और उत्पादन के लिए दिनांक 12.04.2000 को उत्पादन साझेदारी अनुबंध किया। पक्षकारों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ, जिसे मध्यस्थता के लिए भेजा गया।

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि आर्बिटियेटर ट्रिब्यूनल ने कुछ प्रक्रियात्मक आदेश पारित किए, जो इसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता के रूप में स्पष्ट पूर्वाग्रह का संकेत देते हैं। इसलिए अधिनियम की धारा 14 के तहत आवेदन आर्बिटियेटर ट्रिब्यूनल के जनादेश को समाप्त करने के लिए न्यायालय के समक्ष दायर किया गया।

    चुनौती

    याचिकाकर्ता ने मध्यस्थ के आदेश को निम्नलिखित आधारों पर चुनौती दी:

    1. ट्रिब्यूनल ने कई प्रक्रियात्मक आदेश पारित किए, जो यह संकेत देंगे कि इसने उनके साथ गलत व्यवहार किया है, उन्हें उचित अवसर से वंचित किया और प्रतिवादियों का पक्ष लिया है।

    2. ट्रिब्यूनल का आचरण ऐसा है, जो स्पष्ट रूप से उसके पक्ष में पूर्वाग्रह स्थापित करता है। इसलिए इसका शासनादेश समाप्त किया जाना चाहिए।

    3. कार्यवाही को प्रशासित करने में मध्यस्थ के पूर्वाग्रह का मुद्दा अनिवार्य रूप से अयोग्यता के दायरे में आता है। इसलिए न्यायालय अधिनियम की धारा 14 के तहत एक आवेदन पर विचार कर सकता है।

    यदि धारा 14 को पूर्वाग्रह के आधार पर लागू नहीं किया जाता है, तो इसका परिणाम होगा-

    1. पीड़ित पक्ष को उसी ट्रिब्यूनल के सामने चुनौती देने के लिए मजबूर किया जा रहा है, जिसमें पूर्वाग्रह का आरोप लगाया गया है।

    प्रतिवादी ने निम्नलिखित आधारों पर याचिका की सुनवाई योग्य होने पर आपत्ति की:

    अधिनियम की धारा 14 को केवल तभी लागू किया जा सकता है जब न्यायिक अयोग्यता का प्रश्न शामिल हो। हालांकि, निष्पक्षता के रूप में न्यायोचित संदेह का प्रश्न अधिनियम की धारा 12 (3) सपठित चौथी अनुसूची के अंतर्गत आता है। इसलिए केवल ट्रिब्यूनल ही इस तरह की चुनौती पर निर्णय ले सकता है और अगर ट्रिब्यूनल चुनौती को खारिज कर देता है तो पक्ष के लिए उपलब्ध एकमात्र उपाय अवार्ड के पारित होने की प्रतीक्षा करना और अधिनियम की धारा 34 के तहत इसे चुनौती देना है।

    न्यायालय द्वारा विश्लेषण

    न्यायालय ने माना कि अधिनियम की धारा 12 मध्यस्थ के अधिकार क्षेत्र को चुनौती से संबंधित है, जो पांचवीं या सातवीं अनुसूची पर आधारित हो सकती है। जहां तक न्यायोचित आधारों का सवाल है, वह पांचवीं अनुसूची के दायरे में आता है और केवल ट्रिब्यूनल के पास ही इससे उत्पन्न होने वाली चुनौती पर निर्णय लेने की शक्ति है।

    न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थ के आदेश को केवल अधिनियम की धारा 14 के तहत चुनौती दी जा सकती है, यदि सातवीं अनुसूची के तहत उल्लिखित आधार चुनौती का आधार है और अनुसूची के तहत कोई प्रावधान नहीं है, जो मध्यस्थ के पूर्वाग्रह से संबंधित है। इसने माना कि अधिनियम की धारा 12 और 13 आरोपों के ट्रायल के उद्देश्य के लिए पूर्ण और स्वतंत्र कोड का गठन करती है, जो मध्यस्थ की स्वतंत्रता और निष्पक्षता के रूप में न्यायोचित संदेह देता है, जिसमें पूर्वाग्रह का आरोप भी शामिल होगा।

    न्यायालय ने यह भी कहा कि अधिनियम की धारा 14 जो विचार करती है वह कानूनी रूप से अयोग्यता है और ऐसे मामलों में विस्तृत जांच की कोई आवश्यकता नहीं है। हालांकि, न्यायोचित आधार में तथ्यात्मक जांच शामिल है, जो आवश्यक रूप से की जानी चाहिए। इसलिए केवल ट्रिब्यूनल ही उन चुनौतियों का फैसला कर सकता है।

    न्यायालय ने यह भी पाया कि आर्बिटियेटर ट्रिब्यूनल को अपने शासनादेश को चुनौती से निपटने के लिए सशक्त होने का तथ्य अधिनियम की धारा 16 के तहत निहित कोम्पेटेन्ज़-कोम्पेटेन्ज़ के सिद्धांत के अनुरूप है।

    तदनुसार, अदालत ने याचिका को बनाए रखने योग्य नहीं होने के कारण खारिज कर दिया।

    केस टाइटलः यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, OMP (T) (COMM) 125/2022

    दिनांक: 09.12.2022

    याचिकाकर्ता के वकील: ए.के. गांगुली, शैलेंद्र स्वरूप, बिंदु सक्सेना, किरीट जावली, ममता तिवारी, अरुणव गांगुली और चारू अंबवानी।

    प्रतिवादी के वकील: हरीश एन. साल्वे, समीर पारेख, शोनाली बसु, इशान नागर, प्रतीक खंडेलवाल, अभिषेक ठकराल और चेतना राय। आर-1 के लिए के.आर. शशिप्रभु, एड. आर-2 के लिए महेश अग्रवाल, ऋषि अग्रवाल, नियति कोहली, प्राणजीत भट्टाचार्य और प्रथम वीर अग्रवाल, आर-3 के लिए।

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