'विवाह प्रमाणपत्र के बिना कोई मर नहीं रहा है': केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह मान्यता के लिए दायर याचिका पर अर्जेंट सुनवाई का विरोध किया

Shahadat

24 May 2021 7:20 AM GMT

  • विवाह प्रमाणपत्र के बिना कोई मर नहीं रहा है: केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह मान्यता के लिए दायर याचिका पर अर्जेंट सुनवाई का विरोध किया

    दिल्ली हाईकोर्ट में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत भारत में समलैंगिक विवाहों को मान्यता देने की मांग करने वाली याचिकाओं के एक बैच की तत्काल सुनवाई के खिलाफ तर्क देते हुए भारत सरकार ने शनिवार को कहा, "आपको अस्पतालों के लिए विवाह प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। कोई भी मर नहीं रहा है, क्योंकि उनके पास मैरिज सर्टिफिकेट नहीं है।"

    केंद्र ने याचिका पर सुनवाई के स्थगन की मांग करते हुए एक पत्र भी प्रस्तुत किया। इसमें पत्र में कहा गया कि अदालत अभी केवल "अत्यंत जरूरी" मामलों की सुनवाई कर रही है और बेंच के रोस्टर के हिसाब से मुद्दा उठाया जाए।

    उसी को ध्यान में रखते हुए अदालत ने याचिकाओं के बैच की सुनवाई 6 जुलाई तक के लिए स्थगित कर दी है।

    याचिकाकर्ताओं में से एक के लिए पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल ने तर्क दिया कि विषय की तात्कालिकता को तटस्थ तरीके से देखा जाना चाहिए और केवल अदालत द्वारा तय किया जाना चाहिए। वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने अदालत को सूचित किया कि अस्पतालों में प्रवेश पाने और उनके लिए चिकित्सा उपचार में भी मुद्दों का सामना करना पड़ रहा है।

    हालांकि, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने यह कहते हुए ये प्रस्तुतियाँ खारिज कर दीं कि अस्पतालों में प्रवेश के लिए विवाह प्रमाण पत्र आवश्यक नहीं हैं।

    इससे पहले, विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग वाली याचिका का विरोध करते हुए केंद्र ने एक हलफनामे के माध्यम से अदालत में कहा था कि,

    "केवल विपरीत लिंग के व्यक्तियों को ही विवाह की मान्यता देने में राज्य का "वैध हित" है। साथ ही उसने कहा कि विवाह की संस्था केवल एक अवधारणा नहीं है, जिसे किसी व्यक्ति की गोपनीयता के क्षेत्र में आरोपित किया गया है।

    दायर हलफनामे में कहा गया है,

    "एक ही लिंग के दो व्यक्तियों के बीच विवाह की संस्था की स्वीकृति को न तो मान्यता प्राप्त है और न ही किसी असंहिताबद्ध व्यक्तिगत कानूनों या किसी संहिताबद्ध वैधानिक कानूनों में स्वीकार किया गया है।"

    केंद्र ने यह भी कहा कि नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समलैंगिकता को वैध बनाने के लोकप्रिय विचार के विपरीत अदालत ने "केवल एक विशेष मानव व्यवहार को अपराध से मुक्त करने के लिए एक सीमित घोषणा की थी। हालांकि यह आईपीसी की धारा 377 के तहत एक दंडनीय अपराध था। उक्त घोषणा का न तो इरादा था और न ही वास्तव में प्रश्न में आचरण को वैध बनाना था।"

    केंद्र ने तर्क दिया था कि 'पुट्टास्वामी जजमेंट' (निजता से जुड़ा मामला) और 'नवतेज जौहर' मामले (जिसने धारा 377 आईपीसी को रद्द कर दिया) में टिप्पणियां समान-विवाह की मान्यता प्राप्त करने का मौलिक अधिकार प्रदान नहीं करती हैं।

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