बिना सोचे-समझे इरादे से धार्मिक भावना आहत करने के लिए लापरवाही से किया गया धर्म का अपमान, धारा 295 ए के तहत अपराध नहींः त्रिपुरा हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

6 March 2021 11:44 AM GMT

  • बिना सोचे-समझे इरादे से धार्मिक भावना आहत करने के लिए लापरवाही से किया गया धर्म का अपमान, धारा 295 ए के तहत अपराध नहींः त्रिपुरा हाईकोर्ट

    त्रिपुरा उच्च न्यायालय ने माना है कि धर्म का बिना इरादे के किया गया अपमान या बिना जाने-बूझे और दुर्भावनापूर्ण इरादे से किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना, आईपीसी की धारा 295 ए के तहत अपराध नहीं है।

    चीफ ज‌स्ट‌िस अकील कुरैशी की सिंगल बेंच ने कहा, "धारा 295 ए धर्म और धार्मिक विश्वासों के अपमान या अपमान की कोशिश के किसी और प्रत्येक कृत्य को दंडित नहीं करता है, यह केवल अपमान या अपमान की कोशिश के के उन कृत्यों को दंडित करता है, जिन्हें विशेष वर्ग की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे के साथ किया गया है।"

    "बिना इरादे या लापरवाही से या बिना जाने-बूझे या दुर्भावनापूर्ण इरादे के किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने या धर्म का अपमान करने का कृत्य उक्त धारा के भीतर नहीं आएगा।"

    ऐसा मानने के लिए खंडपीठ ने धारा 295 ए का उल्लेख किया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो कोई भी, "जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे से" भारत के किसी भी वर्ग के नागरिकों की धार्मिक भावनाओं को शब्दों से, या तो बोले हुए या लिखे हुए, या संकेतों से या दृश्य प्रतिनिधित्व या अन्यथा, आहत करता है, उस वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करता है या अपमान करने का प्रयास करता है..तो उसे तीन साल तक कारावास या जुर्माना या दोनों के साथ दंडित किया जा सकता है।

    कोर्ट ने रामजी लाल मोदी बनाम उत्तर प्रदेश, AIR 1957 SC 620, में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के निष्कर्षों का भी उल्लेख किया।

    पृष्ठभूमि

    ज‌स्ट‌िस कुरैशी सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियों के माध्यम से भगवद गीता का अपमान करके हिंदू समुदाय की धार्मिक भावनाओं को कथित रूप से आहत करने के मामले में पिछले साल याचिकाकर्ता के खिलाफ दर्ज प्राथमिकी को रद्द करने की याचिका पर सुनवाई कर रहे थे।

    शिकायतकर्ता के अनुसार, याचिकाकर्ता-अभियुक्त ने यह कहकर हिंदू धर्म पर अभद्र और अश्लील टिप्पणी की, कि पवित्र धार्मिक किताब ठकबाजी गीता" है और इसे फेसबुक पर पोस्ट कर दिया।

    दूसरी ओर याचिकाकर्ता ने दलील दी कि शिकायतकर्ता द्वारा जानबूझकर पोस्ट को जानबूझकर घुमाया गया और गलत तरीके से समझा गया।

    उसने दलील दी कि उसका न तो इरादा था और न ही किसी समुदाय या नागरिकों के वर्ग की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की इच्छा थी। उसने आगे कहा कि केवल उसकी व्यक्तिगत मान्यताओं के आधार पर, उसे एक आपराधिक मामले में निशाना बनाया जा रहा है और झूठा फंसाया जा रहा है।

    इसके अलावा, यह दलील दी गई कि उसकी पोस्ट बंगाली में थी और शिकायतकर्ता ने उसकी पोस्ट का गलत अर्थ निकाला था, जिसका अर्थ वास्तव में यह था कि गीता एक कड़ाही है, जिसमें ठगों को भूना जाता है।

    अतिरिक्त लोक अभियोजक ने हालांकि याचिका का विरोध किया कि याचिकाकर्ता ने पवित्र किताब के बारे में अपमानजनक टिप्पणी करके धार्मिक भावनाओं को आहत करने का स्पष्ट इरादा प्रदर्शित किया था।

    उसने यह भी कहा कि यह अकेला मौका नहीं है, जिस पर याचिकाकर्ता ने धार्मिक भावनाओं को आहत करने की ऐसी प्रवृत्ति दिखाई है और उसकी पोस्ट को उसकी पिछली पोस्टों की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।

    जांच - परिणाम

    अदालत ने शुरु में कहा कि धारा 295 ए केवल धर्म के अपमान के उग्र रूप को दंडित करता है, जब यह उस वर्ग की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करने के लिए जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण इरादे के साथ किया जाता है।

    इस मामले में, यह उल्लेख किया गया कि उक्त पोस्ट के माध्यम से याचिकाकर्ता ने वास्तव में क्या कहा था, इस बारे में विवाद है। कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता द्वारा गढ़े गए शब्द का अर्थ जो कुछ भी हो सकता है या नहीं हो सकता है, लेकिन "यह निश्चित रूप से उस अर्थ को व्यक्त नहीं करता है जो शिकायतकर्ता बताना चाहता है कि भगवद गीता एक कपटपूर्ण दस्तावेज है।"

    खंडपीठ ने कहा, "याचिकाकर्ता अपनी व्यक्तिगत मान्यताओं को धारण कर सकता है और कानून के ढांचे के भीतर भी उन्हें व्यक्त कर सकता है, जब तक कि वह अपने भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रयोग में कानून द्वारा तय किसी भी प्रतिबंध का उल्लंघन नहीं करता है।"

    इस बिंदु पर, अतिरिक्त लोक अभियोजक ने दलील दी कि ऐसी कोई अभिव्यक्ति नहीं है, जैसा कि याचिकाकर्ता ने अपने फेसबुक पोस्ट पर रखा है।

    हालांकि, न्यायालय का मत था कि भले ही इस विवाद को स्वीकार कर लिया जाए, यह न्यायालय या इस मामले के लिए पुलिस की भूमिका नहीं है कि वह फेसबुक पोस्ट का अर्थ निकाले कि इसका कोई अर्थ है या नहीं।

    कोर्ट ने एपीपी के इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता को हिंदू धर्म का अपमान करने की आदत है और उनकी पोस्ट को उनकी पिछली पोस्टों की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए।

    इस सबंध में कोर्ट ने कहा, "न तो शिकायत में और न ही राज्य द्वारा याचिकाकर्ता की आपत्तिजनक प्रकृति की किसी भी पिछली पोस्ट को पेश किया गया है....

    फेसबुक पोस्ट पर कोर्ट ने कहा, किसी पृष्ठभूमि या अग्रभूमि के बिना, किसी भी सामान्य मनुष्य के लिए यह संभव नहीं है कि वह सामान्य ज्ञान और बुद्धिमत्ता के साथ, याचिकाकर्ता द्वारा पवित्र किताब को दिए गए अपमानजनक या अवमाननापूर्ण अर्थ को समझ सके।

    कोर्ट ने याचिका को अनुमति प्रदान की और प्राथमिकी को रद्द कर दिया।

    केस टाइटिल: दुलाल घोष बनाम त्रिपुरा राज्य और अन्य।

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