सीआरपीसी की धारा 239 के तहत डिस्चार्ज आवेदन में साक्ष्य के विन्यास और मूल्यांकन में प्रवेश नहीं कर सकते: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दोहराया

LiveLaw News Network

15 March 2022 11:51 AM IST

  • इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट


    इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक बार फिर कहा है कि सीआरपीसी की धारा के तहत आरोप मुक्त करने संबंधी अर्जी पर विचार करते समय, कोर्ट को केवल यह देखने की जरूरत होती है कि क्या अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। इस स्तर पर विस्तृत जांच की आवश्यकता नहीं है और आरोप निराधार होने पर आरोपी को आरोप मुक्त किया जा सकता है।

    न्यायमूर्ति सुरेश कुमार गुप्ता ने कहा,

    "आरोप के स्तर पर कोर्ट को मामले के अच्छे-बुरे पर विचार करने और सच्चाई का पता लगाने के लिए जांच करने की आवश्यकता नहीं है। उस बिंदु पर साक्ष्य का विन्यास (मार्शलिंग) और मूल्यांकन कोर्ट के अधिकारि क्षेत्र में नहीं है। कोर्ट के लिए केवल यह जरूरी है कि वह इस सीमित उद्देश्य के वास्ते उपलब्ध तथ्यों को छाने और तौले कि क्या आरोपी के खिलाफ आरोप तय करने के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं।"

    पीठ ने आगे कहा कि कोर्ट को मामले की व्यापक संभावनाओं, सबूतों के कुल प्रभाव और बुनियादी कमजोरियों सहित पेश किए गए दस्तावेजों, यदि कोई हो, पर विचार करना होगा।

    "यदि रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री के आधार पर, कोर्ट यह राय बना सकता है कि आरोपी ने अपराध किया है, तो वह आरोप तय कर सकता है, लेकिन कोर्ट को सबूतों को इस तरह नहीं तौलना चाहिए जैसे कि वह मुकदमा चला रहा हो। आरोपी को आरोप मुक्त किया जा सकता है, केवल आरोप निराधार होने पर ही... गंभीर या मजबूत संदेह की स्थिति में भी आरोप तय किए जा सकते हैं।"

    मौजूदा मामला संपत्ति के रिकॉर्ड में फर्जी नाम से दाखिल खारिज कराने और फर्जी जाति से जुड़ा है। याचिकाकर्ताओं के खिलाफ सह-आरोपी के रूप में मामला दर्ज किया गया था और उन्होंने आरोप लगाया था कि अपराध का मुख्य पटकथा लेखक सह-अभियुक्त नायब तहसीलदार ध्रुव नाथ हैं जिन्होंने संबंधित गांव के लेखपाल से रिपोर्ट बुलाए बिना राजस्व रिकॉर्ड में प्रविष्टि की। याचिकाकर्ताओं द्वारा आगे यह तर्क दिया गया कि उन्होंने भू-राजस्व अधिनियम की धारा 34 की कार्यवाही के तहत नाम परिवर्तन के लिए तहसीलदार के समक्ष कोई आवेदन या सबूत नहीं दिया है।

    याचिकाकर्ताओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 167 (नुकसान पहुंचाने के लिए लोक सेवक द्वारा फर्जी दस्तावेज तैयार करना), 218 (किसी व्यक्ति को सजा या संपत्ति को जब्ती से बचाने के इरादे से लोक सेवक द्वारा गलत रिकॉर्ड तैयार करना या लिखना), 466 ( कोर्ट के रिकॉर्ड या लोक पंजी में जालसाजी), 467 (मूल्यवान प्रतिभूति, वसीयत, आदि की जालसाजी), 468 (धोखाधड़ी के उद्देश्य से जालसाजी), 471 (फर्जी दस्तावेज़ या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का वास्तविक के तरह उपयोग करना), 420 (धोखाधड़ी) और 120-बी (आपराधिक साजिश) के तहत अपराध के लिए मामला दर्ज किया गया था।

    याचिकाकर्ताओं ने आरोप-मुक्त करने के लिए आवेदन दायर किया था, जिसे सीजेएम ने खारिज कर दिया। एक पुनरीक्षण अर्जी भी खारिज कर दी गयी थी। इसलिए, आवेदक/याचिकाकर्ता द्वारा इस अर्जी को तरजीह दी गयी थी, जिसमें सीजेएम द्वारा डिस्चार्ज आवेदन और पुनरीक्षण याचिका की अस्वीकृति को रद्द करने की मांग की गयी थी।

    याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ रिवीजन कोर्ट का फैसला विवेकपूर्ण नहीं था। वकील ने आगे दलील दी कि जांच अधिकारी द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ ऐसा कोई भौतिक साक्ष्य एकत्र नहीं किया गया है और इसलिए, उनके खिलाफ कोई अपराध नहीं बनता है।

    निष्कर्ष:

    हाईकोर्ट ने यह नोट किया कि धारा 173 के तहत पुलिस रिपोर्ट और उसके साथ भेजे गए दस्तावेजों पर विचार करने और मजिस्ट्रेट के विवेक के अनुरूप आरोपी की जांच, यदि कोई हो, करने के बाद और अभियोजन और आरोपी को सुनवाई का अवसर देने के बाद मजिस्ट्रेट यदि आरोपी के खिलाफ आरोप को निराधार मानता है, तो आरोपी को बरी किया जा सकता है।

    हालांकि, इसमें कहा गया है कि सीआरपीसी की धारा 227 (आरोप मुक्त) के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए न्यायालय का अधिकार क्षेत्र सीमित है।

    'दिलावर बालू कुराने बनाम महाराष्ट्र सरकार (2002) एससीसी 135' मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा जताया गया, जहां यह माना गया था कि धारा 227 सीआरपीसी के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए, न्यायाधीश केवल डाकघर या अभियोजन पक्ष के मुखपत्र के रूप में कार्य नहीं कर सकता है, उसे बल्कि मामले की व्यापक संभावनाओं, सबूतों के कुल प्रभाव और अदालत के सामने पेश किए गए दस्तावेज पर विचार करना होगा, लेकिन मामले के पक्ष और विपक्ष की गहन जांच और सबूतों को वैसे नहीं तौलना चाहिए जैसा कि वह एक मुकदमा चला रहे हों।

    इसी तरह, 'सज्जन कुमार बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो, जेटी 2010(10) एससी 413' मामले में, यह माना गया था कि आरोप तय करते समय, रिकॉर्ड पर सामग्री के संभावित मूल्य को आरोप तय करने से पहले नहीं देखा जा सकता है, लेकिन न्यायालय को रिकॉर्ड में रखी गई सामग्री के मामले में अपने न्यायिक बुद्धिमता का इस्तेमाल करना चाहिए और संतुष्ट होना चाहिए कि अभियुक्त द्वारा अपराध करना संभव था।

    तदनुसार, हाईकोर्ट ने पाया कि आरोपमुक्त करने के लिए एक आवेदन पर विचार करते समय, यह निर्धारित करने के लिए तथ्यों को छानबीन करने और तोलने की आवश्यकता है कि क्या आरोपी के खिलाफ आरोप तय करने के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनाया गया है या नहीं।

    "कोर्ट को मामले की व्यापक संभावनाओं, सबूतों के कुल प्रभाव और बुनियादी कमजोरियों सहित प्रस्तुत दस्तावेजों, यदि कोई हो, पर विचार करना होगा। यदि रिकॉर्ड पर सामग्री के आधार पर, कोर्ट एक राय बना सकता है कि आरोपी ने अपराध किया हो सकता है तो वह आरोप तय कर सकता है, लेकिन कोर्ट को सबूतों को इस तरह नहीं तोलना चाहिए जैसे कि वह मुकदमा चला रहा हो। आरोपी को तभी आरोप मुक्त किया जा सकता है जब आरोप निराधार हो।"

    इस प्रकार, यह व्यवस्था दी गयी कि, जैसा कि मामला एक ऐसा मामला प्रतीत नहीं होता है जिसे आरोप के स्तर पर बंद किया जाना है, कोर्ट ने निचली अदालत को तत्काल मामले में तेजी लाने के लिए प्रयास करने का निर्देश दिया क्योंकि वर्तमान मामला ट्रायल कोर्ट के समक्ष बहुत समय पहले से लंबित है।

    केस शीर्षक: छवि लाल एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य

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