'छात्रों पर किसी विशेष भाषा को थोपा नहीं जा सकता': कर्नाटक हाईकोर्ट ने राज्य को डिग्री कोर्स में कन्नड़ अनिवार्य बनाने की नीति पर पुनर्विचार करने के लिए कहा

LiveLaw News Network

26 Oct 2021 12:44 PM GMT

  • हाईकोर्ट ऑफ कर्नाटक

    कर्नाटक हाईकोर्ट

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने मंगलवार को राज्य सरकार को अपने नीतिगत फैसले पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया, जिसमें राज्य में डिग्री कोर्स में दाखिला लेने वाले प्रत्येक छात्र के लिए कन्नड़ भाषा को एक विषय के रूप में अनिवार्य कर दिया गया है।

    चीफ जस्टिस रितु राज अवस्थी और जस्टिस सचिन शंकर मखदूम की की एक खंडपीठ ने कहा, "हम आज मामले को इस समझ के साथ स्थगित करते हैं कि राज्य नीति पर पुनर्विचार करेगा।"

    मामले में एडवोकेट जनरल प्रभुलिंग के नवदगी ने संस्कृत भारती कर्नाटक ट्रस्ट द्वारा दायर याचिका पर प्रारंभिक आपत्ति जताई।

    उन्होंने कहा, "इस याचिका में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के कार्यान्वयन को चुनौती दी गई है, जिसे राज्य सरकार ने कैबिनेट के फैसले के अनुसार लागू करने का फैसला किया है। इसे जनहित याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई है। अगर कोई एनईपी कोई एनईपी के कार्यान्वयन से नाराज होता तो यह छात्र या शिक्षक होते, जिन्हें अदालत के सामने आना चाहिए था न कि याचिकाकर्ता को जनहित याचिका के माध्यम से।"

    आगे उन्होंने स्पष्ट किया कि, "यह रेगुलर कन्नड़ कोर्स नहीं है, बल्कि एक फंक्‍शनल कन्नड़ कोर्स (शुरुआती छात्रों के लिए) और छह महीने की अवधि के लिए है।"

    इस पर पीठ ने कहा, 'कन्नड़ भाषा पर जोर न दें।

    नवदगी ने दोहराया, "फंक्शनल कन्‍नड़ का उद्देश्य यह है कि अगर किसी को कर्नाटक में अध्ययन करना है और कर्नाटक में रोजगार के अवसर तलाशना है तो उसे फंक्‍शनल कन्नड़ भाषा का ज्ञान होना चाहिए।"

    इसके जवाब में बेंच ने कहा,

    "जरूरी नहीं कि रोजगार का अवसर हो। अगर वह (छात्र) कर्नाटक में पढ़ रहा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसे कन्नड़ सीखनी होगी। किसी भी तरह से, आप बाहर से आने वाले छात्रों के लिए किसी विशेष भाषा को लागू नहीं कर सकते।"

    तब नवदगी ने कहा, "अगर कोई यहां (कर्नाटक) रोजगार चाहता है, तो उन्हें फंक्‍शनल कन्नड़ से परिचित कराया जा रहा है।"

    कोर्ट ने कहा, "रोजगार के लिए आप एक शर्त रख सकते हैं।"

    तब नवदगी ने कहा, "नीति के लिहाज से हमने इसे पेश किया है।"

    अदालत ने कहा, "हम आपको अपनी नीति पर पुनर्विचार करने के लिए समय दे सकते हैं, आप इसे लागू नहीं कर सकते। अन्यथा, हमें इसे रोकना होगा। आप रोजगार के लिए लागू कर सकते हैं कि फंक्‍शनल कन्नड़ भाषा जानना अनिवार्य/आवश्यक है, लेकिन शिक्षा के लिए आप कैसे थोप सकते हैं?"

    तब नवदगी ने कहा, "यह उन छात्रों के लिए है, जो यहां रोजगार की तलाश कर सकते हैं। कोई भी (छात्र) अदालत के सामने आगे नहीं आया है।"

    जिस पर कोर्ट ने मौखिक रूप से कहा, "छात्रों की चिंता न करें , उन्हें अपना ख्याल रखने दें। हमें छात्रों का हित देखना होगा। ऐसा नहीं है कि छात्रों को केवल अदालत में आना होगा, उसके बाद ही हम विचार कर सकते हैं।"

    कोर्ट ने कहा, "बेहतर है अपनी नीति पर पुनर्विचार करें। अगर आप ऐसा कहते हैं तो ही हम आपको समय दे सकते हैं या हमें इस पर टिके रहना होगा।"

    जिस पर नवदगी ने कहा, "निर्देश के बिना मैं कुछ नहीं कह सकता। मैं अदालत की टिप्पणियों से अवगत कराऊंगा।"

    अदालत ने अपने आदेश में कहा, "‌विद्वान एजी के अनुरोध पर, मामले को आज के लिए स्थगित किया जाता है। छुट्टी के बाद फिर से सूचीबद्ध करें।"

    याचिकाकर्ता ने अंतरिम राहत के माध्यम से दिनांक 7/08/2021 और 15/09/2021 के दो आदेशों के संचालन पर इस हद तक रोक लगाने की मांग की कि कन्नड़ को स्नातक स्तर पर अनिवार्य विषय बना दिया गया है, साथ ही कार्यान्वयन के लिए दिशा-निर्देश भी दिए गए हैं।

    याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता एसएस नागानंद ने कहा था, "इससे लगभग 1,32,000 छात्र प्रभावित हो रहे हैं।"

    उन्होंने कहा, "अगर कोई छात्र दिल्ली से आता है, उसने कन्नड़ का अध्ययन नहीं किया है। अगर वह यहां बीए कोर्स करने के लिए आता है, तो उसे कन्नड़ पढ़ना अनिवार्य है। इसे कर पाना मुश्किल है।"

    उन्होंने यह भी बताया, "यह नीति अगले महीने से शुरू होने वाले वर्तमान शैक्षणिक वर्ष से लागू होगी। इस नीति से शिक्षक भी प्रभावित होने वाले हैं। कई कॉलेज उर्दू, हिंदी, संस्कृत और तेलुगु के शिक्षकों को नियुक्त करते हैं। यदि यह अनिवार्य कर दिया गया है, कोई भी छात्र उन कोर्स नहीं ले पाएगा और स्वाभाविक रूप से, शिक्षक प्रभावित होंगे। वे अपनी आजीविका भी खो सकते हैं।"

    आगे दलील दी गई कि शैक्षणिक वर्ष 2015-16 से कक्षा एक से दस तक के सभी छात्रों के लिए एक भाषा के रूप में कन्नड़ सीखना सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार ने कन्नड़ भाषा शिक्षण अधिनियम, 2015 अधिनियमित किया है। कर्नाटक में कक्षा एक से दस तक के छात्र पहले से ही एक भाषा के रूप में कन्नड़ सीख रहे हैं। यह अधिनियम भी कन्नड़ का अध्ययन अनिवार्य नहीं बनाता है। प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर लागू करने कन्‍नड़ को लागू करने की मांग की गई है, हालांकि उच्च शिक्षा के स्तर पर कन्नड़ को लागू करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है।

    मामले में आगे दलील दी गई है, "राज्य में एनईपी, 2020 के कार्यान्वयन पर टास्क फोर्स और उप-समितियों द्वारा प्रस्तुत की गई सिफारिशों और रिपोर्टों में कन्नड़ को अनिवार्य भाषा बनाने की कोई सिफारिश नहीं है।"

    याचिका में यह भी कहा गया है कि सरकार के आदेश भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विपरीत हैं।

    हाईकोर्ट में लंबित एक और याचिका

    23 सितंबर को ज‌स्टिस आर देवदास ने आईसीएसई से संबद्ध चौथी कक्षा के एक छात्र की याचिका पर एक नोटिस जारी किया था , जिसमें कन्नड़ भाषा शिक्षण अधिनियम, 2018 को पूर्व दृष्टया कठोर, भेदभावपूर्ण और संविधान का उल्लंघनकारी घोषित करने की मांग की गई थी।

    केस शीर्षक: संस्कृत भारती कर्नाटक ट्रस्ट बनाम यूनियन ऑफ इं‌डिया

    केस नंबर: डब्ल्यूपी 18156/2021

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