आरोपी को एससी/एसटी एक्ट 3 (2) (वी) के तहत बिना इस सबूत के दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि पीड़ित की जाति के आधार पर अपराध हुआ : इलाहाबाद हाईकोर्ट

Shahadat

28 July 2022 2:16 PM GMT

  • आरोपी को एससी/एसटी एक्ट 3 (2) (वी) के तहत  बिना इस सबूत के दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि पीड़ित की जाति के आधार पर अपराध हुआ  : इलाहाबाद हाईकोर्ट

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत किए गए अपराध के लिए किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिए यह दिखाने के लिए सबूत होना चाहिए कि आरोपी ने इस आधार पर अपराध किया कि व्यक्ति/पीड़ित अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है।

    उल्लेखनीय है कि अधिनियम की धारा 3 (2) (v) अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं होने वाले व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता के तहत दस साल या उससे अधिक की अवधि के कारावास से दंडित करता है। किसी व्यक्ति या संपत्ति के खिलाफ इस आधार पर कि वह व्यक्ति अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का सदस्य है या ऐसी संपत्ति ऐसे सदस्य की है, आजीवन कारावास और जुर्माने से दंडनीय होगा।

    जस्टिस कौशल जयेंद्र ठाकर और जस्टिस अजय त्यागी की खंडपीठ पिंटू गुप्ता द्वारा दायर आपराधिक अपील पर विचार कर रही थी, जिसमें तीसरे अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, जौनपुर द्वारा आरोपी-अपीलकर्ता पिंटू गुप्ता को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 326 अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम, 1989 की धारा 3 (2) (v) के तहत दोषी ठहराते हुए निर्णय और आदेश को चुनौती दी गई है।

    आरोपी-अपीलकर्ता को 10 वर्ष के कठोर कारावास और 10 हजार रुपये अर्थदंड की सजा सुनाई गई है। इसके अलावा, आईपीसी की धारा 326 के तहत 25,000 / और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत 10,000/- रुपये के जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।

    तर्क-वितर्क

    आरोपी ने तर्क दिया कि एफआईआर में कहीं नहीं कहा गया कि घायल विशेष समुदाय से है और पीड़ित की जाति के बारे में कोई दस्तावेजी सबूत जांच अधिकारी या सत्र न्यायालय के समक्ष पेश नहीं किया गया है।

    आरोपी ने प्रस्तुत किया कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3 (2) (वी) के प्रावधान के तहत मामला नहीं बनाया गया है और आरोपी को बरी कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि एफआईआर में कोई उल्लेख नहीं है कि घटना में घायल अनुसूचित जाति का सदस्य है।

    आगे यह तर्क दिया गया कि आईपीसी की धारा 326 के तहत मामला नहीं बनाया गया, क्योंकि चोटें ऐसी नहीं हैं जो आईपीसी की धारा 326 के दायरे में आती हो। आगे यह प्रस्तुत किया गया कि भले ही यह साबित हो जाए कि आईपीसी की धारा 326 के तहत अपराध बनाया गया है, सजा बहुत ज्यादा है, जिसे संशोधित करने की आवश्यकता है।

    न्यायालय की टिप्पणियां

    अदालत ने कहा कि एफआईआर में कोई आरोप नहीं है कि अपराध इस आधार पर किया गया कि घायल व्यक्ति विशेष समुदाय से है, जो 'अनुसूचित जाति' या 'अनुसूचित जनजाति' शब्द में आते हैं ताकि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(2)(v) के प्रावधान को आकर्षित किया जा सके।

    इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी ध्यान में रखा कि अपराधी और घायल किस जाति का है, यह दर्शाने वाले दस्तावेजी साक्ष्य रिकॉर्ड में नहीं लाए गए।

    अदालत ने टिप्पणी की,

    "अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति अधिनियम की धारा 3(2)(v) के प्रावधानों को आकर्षित करने और यह साबित करने के लिए दस्तावेजी साक्ष्य के माध्यम से पुष्टि की जानी चाहिए कि घायल व्यक्ति 'अनुसूचित जाति' या ' अनुसूचित जनजाति' से संबंधित है।"

    हालांकि, कोर्ट ने कहा कि अगर यह माना जाता है कि घायल उस समुदाय का है जिसे वह बताता है तो क्या यह भी कहा जा सकता कि अपराध किया गया है, क्योंकि वह विशेष समुदाय से संबंधित है।

    प्रश्न का उत्तर देने के लिए कोर्ट ने धर्मेंद्र बनाम यूपी राज्य, 2011 Cri LJ 204 (All) के मामले का उल्लेख किया, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि यह दिखाने के लिए रिकॉर्ड पर कोई सबूत नहीं है कि घटना पीड़ित के अनुसूचित जाति के होने के कारण हुई है, इसलिए यह तथ्य कि पीड़ित स्वयं अनुसूचित जाति का है, मामले को अधिनियम की धारा 3 (2) (v) के दायरे में लाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है।

    अदालत ने टिप्पणी की और आरोपी-अपीलकर्ता की धारा 3 (2) (v) के तहत दोषसिद्धि और सजा को रद्द करते हुए,

    "इस मामले में किसी भी स्वतंत्र गवाह से पूछताछ नहीं की गई जिससे यह साबित होता हो कि आरोपी ने इस आधार पर अपराध किया है कि घायल एससी / एसटी अधिनियम के तहत आने वाले समुदाय से संबंधित है। यह चूक ऐसे महत्वपूर्ण मामले में अभियोजन के लिए घातक साबित होती है। जहां सजा आजीवन कारावास की है।"

    हालांकि, आईपीसी की धारा 326 के तहत आरोप के बारे में अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में यह रिकॉर्ड में आया कि तेजाब से भरी कांच की बोतल को अपराध के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया, इसलिए न्यायालय ने माना कि आईपीसी की धारा 326 के अवयव बने हैं।

    हालांकि, सजा के सुधारात्मक सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए अदालत ने आईपीसी की धारा 326 के तहत सजा को नौ साल की कैद (10 साल की कैद से) और 2000/- रुपये के जुर्माने को कम कर दिया।

    केस टाइटल- पिंटू गुप्ता बनाम यू.पी. राज्य [आपराधिक अपील संख्या - 2017 का 4083]

    साइटेशन: 2022 लाइव लॉ (एबी) 345

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