बहू को सीनियर सिटीजन एक्ट के तहत सास को मेंटेनेंस देने के लिए नहीं कहा जा सकता: बॉम्बे हाईकोर्ट

Shahadat

19 May 2022 6:20 AM GMT

  • बॉम्बे हाईकोर्ट, मुंबई

    बॉम्बे हाईकोर्ट

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि बहू को अपनी बीमार सास को गुजारा भत्ता देने का निर्देश नहीं दिया जा सकता। खासकर जब तक महिला की आय का कोई साधन न हो।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    "हमें एसएस (बहू) को सास को मेंटेनेंस अमाउंट का भुगतान करने के लिए इस तरह के निर्देश के बारे में आपत्ति है ... जैसा कि हो सकता है कि मूल रिकॉर्ड को देखने पर हमें एक भी दस्तावेज नहीं मिलता है जिसमें दिखाया गया हो एसएस (बहू) की आय का कोई साधन है।"

    कोर्ट ने नोट किया कि माता-पिता और सीनियर सिटीजन का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 की धारा 2 (ए) जो 'बच्चों' को परिभाषित करती है, इसमें बेटा, बेटी, पोता और पोती शामिल है, लेकिन बहू का उल्लेख नहीं है।

    जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और जस्टिस माधव जामदार की पीठ ने माता-पिता और सीनियर सिटीजन ट्रिब्यूनल के भरण-पोषण और कल्याण के आदेश को रद्द कर दिया।

    हालांकि अदालत ने बेटे और बहू को मां की शिकायत के आधार पर आलीशान जुहू बंगला खाली करने के निर्देश को बरकरार रखा।

    बेंच ने बेटे को निर्देश दिया कि वह ट्रिब्यूनल द्वारा तय की गई 25,000 रुपये की पूरी राशि अपनी मां को हर महीने दे। इसके साथ ही हाईकोर्ट ने बहू को किसी भी मौद्रिक दायित्व से मुक्त कर दिया।

    अदालत ने हीरा व्यापारी पति को अपनी पत्नी और बच्चों के परिवार के घर के बाहर रहने की व्यवस्था करने का भी निर्देश दिया।

    पीठ ने कहा,

    "बेटा, दो बेटों का पिता और अभिभावक होने के नाते कानूनी रूप से उन्हें अपनी स्थिति, आय और संपत्ति के अनुरूप आवास प्रदान करने के लिए बाध्य है।"

    मामले के तथ्य

    77 और 79 वर्ष की आयु के वरिष्ठ नागरिक जोड़े ने ट्रिब्यूनल का दरवाजा खटखटाया था, जिसने बेटे और बहू को अपना बंगला खाली करने और संयुक्त रूप से 25,000 रुपये प्रति माह का भुगतान करने के लिए कहा था। बहू ने 2019 के इस आदेश का विरोध करते हुए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था।

    कार्यवाही के निर्णय के दौरान ससुर का निधन हो गया।

    बहू ने तर्क दिया कि आवासीय परिसर पैतृक संपत्ति है, जो ससुर को विरासत में मिली थी। इसके अलावा, उसका पति परिसर के लिए किराए का भुगतान कर रहा है।

    एडवोकेट यास्मीन तवारिया द्वारा बहू ने तर्क दिया कि 2019 में फैमिली कोर्ट ने आदेश पारित किया। इस आदेश में पति या उसके माध्यम से किसी को भी वैवाहिक घर में प्रवेश करने से रोक दिया गया था।

    उसने यह भी दावा किया कि सीनियर सिटीजन ट्रिब्यूनल का आदेश बिना किसी सबूत के पारित किया गया था।

    सास की ओर से ए़डवोकेट विवेक कांतावाला ने कहा कि उनके मुवक्किल को लगातार मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न किया जा रहा था। इसलिए ट्रिब्यूनल के आदेश को बरकरार रखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि बहू ने अंडे फेंककर उनकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने की कोशिश की, यह अच्छी तरह से जानते हुए कि परिवार जैन धर्म का पालन करता है।

    उन्होंने आगे कहा कि फैमिली कोर्ट का आदेश सास की अनुपस्थिति में पारित किया गया था, क्योंकि वह कार्यवाही का हिस्सा नहीं थीं।

    शुरुआत में अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 3 यह स्पष्ट करती है कि सीनियर सिटीजन एक्ट किसी अन्य अधिनियम के प्रावधानों पर अधिभावी प्रभाव डालेगा, जो उक्त अधिनियम के प्रावधानों के साथ असंगत हैं। वास्तव में इसका मतलब यह होगा कि ट्रिब्यूनल के निर्देश फैमिली कोर्ट के आदेश के बावजूद बने रहेंगे।

    अदालत ने ट्रिब्यूनल की टिप्पणियों को बरकरार रखते हुए कहा,

    "परिवार के सदस्यों, बेटे और बहू को सास के साथ दया और सम्मान के साथ व्यवहार करना चाहिए। उन्हें शांतिपूर्ण जीवन के लिए बुनियादी आवश्यकताएं प्रदान करनी चाहिए। यह भी देखा गया है कि पैसे से दयालुता और सम्मान नहीं खरीदा जा सकता।"

    अदालत ने आगे कहा कि सास की दैनिक जरूरतों पर ध्यान देना और उन जरूरतों को पूरा करने की पूरी कोशिश करना दंपति की जिम्मेदारी है।

    कोर्ट ने कहा,

    "अशांति वृद्ध माता-पिता का मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न है।"

    पीठ ने गौर किया कि कैसे कई मौकों पर मां व्हीलचेयर पर कोर्ट आई।

    सीनियर सिटीजन के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा प्रदान करने वाली अधिनियम की धारा 3 और धारा 23 के आधार पर ट्रिब्यूनल ने निष्कर्ष निकाला कि सीनियर सीटीजन अनुरोध को सूट की संपत्ति से बेटे के नाम को बाहर करने के लिए अनुरोध किया जा सकता है। इस पर हाईकोर्ट ने उसे राहत प्रदान की।

    केस टाइटल: शीतल देवांग शाह बनाम पीठासीन अधिकारी

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