बॉम्बे हाईकोर्ट ने तब्लीगी जमात के विदेशियों पर दर्ज एफआईआर को रद्द किया, कहा-मीडिया ने उनके खिलाफ दुष्प्रचार किया, उन्हें बलि का बकरा बनाया गया
LiveLaw News Network
22 Aug 2020 1:54 PM IST
बॉम्बे हाईकोर्ट ने शुक्रवार को बहुत ही कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए एक फैसले में 29 विदेशी नागरिकों के खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर को रद्द कर दिया। आईपीसी, महामारी रोग अधिनियम, महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, आपदा प्रबंधन अधिनियम और विदेशी नागरिक अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत दर्ज यह एफआईआर टूरिस्ट वीजा का उल्लंघन कर दिल्ली स्थिति निजामुद्दीन में तब्लीगी जमात के कार्यक्रम में शामिल होने के आरोप में दर्ज की गई थी।
पुलिस ने विदेशी नागरिकों के अलावा, उन्हें आश्रय देने के आरोप में छह भारतीय नागरिकों और मस्जिदों के ट्रस्टियों को भी बुक किया था।
औरंगाबाद पीठ के न्यायमूर्ति टीवी नलवाडे और न्यायमूर्ति एमजी सेवलिकर की खंडपीठ ने याचिकाकर्ताओं की ओर से दायर तीन अलग-अलग याचिकाओं को सुना, जो कि आइवरी कोस्ट, घाना, तंजानिया, जिबूती, बेनिन और इंडोनेशिया जैसे देशों से संबंधित हैं।
सभी याचिकाकर्ताओं को पुलिस द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों में संबंधित मस्जिदों में रहने और लॉकडाउन के आदेशों का उल्लंघन कर नमाज अदा करने की कथित गुप्त सूचनाओं बाद बुक किया गया था।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि वे भारत सरकार द्वारा जारी वैध वीजा पर भारत आए थे और वे भारतीय संस्कृति, परंपरा, आतिथ्य और भारतीय भोजन का अनुभव करने आए थे। उनकी दलील थी कि भारत पहुंचने के बाद, हवाई अड्डे पर उनकी COVID-19 की जांच की गई और जब उन्हें नेगेटिव पाया गया, तब उन्हें हवाई अड्डे से बाहर जाने की अनुमति दी गई।
इसके अलावा, उन्होंने अहमदनगर जिले के पुलिस अधीक्षक को आने की सूचना दी थी। 23 मार्च के बाद लॉकडाउन के कारण, वाहनों की आवाजाही बंद कर दी गई। होटल और लॉज बंद कर दिए गए, इसलिए उन्हें मस्जिद ने आश्रय दिया था। वे जिला कलेक्टर के आदेश के उल्लंघन सहित अवैध गतिविधि में शामिल नहीं थे।
उन्होंने कहा कि मर्क़ज़ में भी, उन्होंने सोशल डिस्टेंसिंग के मानदंडों का पालन किया था। उनका तर्क है कि वीजा दिए जाने के दौरान, उन्हें स्थानीय अधिकारियों को अपनी यात्राओं के बारे में सूचित करने के लिए नहीं कहा गया था, लेकिन उन्होंने अधिकारियों को सूचित किया था। इसके अलावा, वीजा की शर्तों के तहत, मस्जिद जैसे धार्मिक स्थानों पर जाने के लिए कोई निषेध नहीं था।
दूसरी ओर, जिला पुलिस अधीक्षक, अहमदनगर ने अपने जवाब में कहा कि याचिकाकर्ताओं को इस्लाम धर्म का प्रचार करने के लिए घूमते हुए पाया गया और इसलिए, उनके खिलाफ अपराध दर्ज किए गए। उन्होंने यह भी कहा कि तीन अलग-अलग मामलों के पांच विदेशी नागरिक वायरस से संक्रमित पाए गए। उन्होंने कहा, क्वारंटीन अवधि समाप्त होने के बाद सभी याचिकाकर्ताओं को औपचारिक रूप से गिरफ्तार किया गया था।
डीएसपी ने कहा कि जिला मजिस्ट्रेट ने निषेधात्मक आदेश जारी कर सभी सार्वजनिक स्थानों को बंद करने के निर्देश दिए थे। हालांकि, प्रतिबंधात्मक आदेशों और वीजा की शर्तों के बावजूद, याचिकाकर्ताओं ने तब्लीग गतिविधि में भाग लिया। इसके अलावा, सार्वजनिक स्थानों पर घोषणा की गई थी कि जो लोग मर्क़ज़ मस्जिद से आए थे, वे COVID-19 परीक्षण के लिए स्वेच्छा से आगे आएं, लेकिन वे स्वेच्छा से आगे नहीं आए और उन्होंने संक्रमण फैलने का खतरा पैदा किया।
याचिकाकर्ताओं पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188, 269, 270, 290 के तहत धारा 37 (1) (3) आर / डब्ल्यू के तहत, महाराष्ट्र पुलिस अधिनियम, 1951 के 135 और महाराष्ट्र COVID-19, उपाय और नियम, 2020 के सेक्शन 11, महामारी रोग अधिनियम, 1897 की धारा 2, 3 और 4, विदेशियों के लिए अधिनियम 1946 की धारा 14(b), आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के सेक्शन 51(b) के तहत अपराध दर्ज किया गया था।
याचिकाकर्ताओं की वीजा शर्तों के अध्ययन के बाद, न्यायमूर्ति नलवाडे, जिन्होंने निर्णय लिखा था, ने कहा,
"रिकॉर्ड पर पेश की गई पूर्वोक्त सामग्री से पता चलता है कि हाल ही में नवीनीकृत कि गए मैनुअल ऑफ वीजा के तहत भी, धार्मिक स्थानों पर जाने और धार्मिक प्रवचनों में शामिल होने जैसी सामान्य धार्मिक गतिविधियों में भाग लेने के लिए विदेशियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। आमतौर पर, एक पर्यटक से, यदि वह धार्मिक विचारधाराओं आदि का प्रचार नहीं करना चाहता है तो पैरा संख्या 19.8 में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने की उम्मीद नहीं है।"
एपीपी एमएम नर्लीकर ने दावा किया कि एक रिट याचिका सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और उस मामले में कुछ समान विदेशियों द्वारा यह घोषित करने के लिए राहत का दावा किया गया है कि 2 अप्रैल के फैसले के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा 950 विदेशियों को ब्लैकलिस्ट किया जाना असंवैधानिक और शून्य है क्योंकि केंद्र सरकार द्वारा ऐसी घोषणा करने से पहले कानून की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। इस प्रकार, वर्तमान कार्यवाही का निर्णय करना वांछनीय नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को इस मुद्दे पर निर्णय लेना बाकी है। हालांकि, कोर्ट ने उक्त विवाद को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
जस्टिस नलवाडे ने कहा-
"रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री से पता चलता है कि तब्लीग जमात मुस्लिमों का अलग संप्रदाय नहीं है, बल्कि यह धर्म के सुधार के लिए आंदोलन है। हर धर्म सालों तक सुधार के कारण विकसित हुआ है क्योंकि समाज में परिवर्तन के कारण और भौतिक दुनिया में हुए विकास के कारण सुधार हमेशा आवश्यक है।
किसी भी मामले में, रिकॉर्ड से भी, यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि विदेशी नागरिक दूसरे धर्म के व्यक्तियों को इस्लाम में परिवर्तित कर इस्लाम धर्म का विस्तार कर रहे हैं। रिकॉर्ड से पता चलता है कि विदेशी भारतीय भाषाओं जैसे कि हिंदी या उर्दू में बात नहीं करते हैं और वे अरबी, फ्रेंच आदि भाषाओं पर बात कर रहे हैं। उपरोक्त चर्चा के मद्देनजर, यह कहा जा सकता है कि विदेशियों का इरादा तब्लीगी जमात के सुधारा में बारे में विचारों को जानने का हो सकता है।
आरोपों की प्रकृति में बहुत अस्पष्ट हैं और इन आरोपों से यह अनुमान लगाना किसी भी स्तर पर संभव नहीं है कि वे इस्लाम धर्म का प्रसार कर रहे थे और धर्मांतरण का इरादा था। यह भी नहीं है कि इन विदेशियों से किसी भी बात पर राजी होने का तत्व है। "
तब्लीगी जमात में भाग लेने वाले विदेशी नागरिकों के मीडिया के चित्रण की आलोचना करते हुए, न्यायमूर्ति नलवाडे ने कहा-
"प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बड़े स्तर पर, मर्क़ज दिल्ली में शामिल होने वाले विदेशी नागरिकों के खिलाफ प्रोपेगंडा किया गया और ऐसी तस्वीर बनाने का प्रयास किया गया कि ये विदेशी भारत में COVID-19 वायरस फैलाने के लिए जिम्मेदार थे। इन विदेशियों का वस्तुतः उत्पीड़न किया गया।
जब महामारी या विपत्ति आती है, तब एक राजनीतिक सरकार बलि का बकरा ढूंढने की कोशिश करती है और हालात बताते हैं कि इस बात की संभावना है कि इन विदेशियों को बलि का बकरा बनाने के लिए चुना गया था। उपरोक्त परिस्थितियों और भारत में संक्रमण के नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान याचिकाकर्ताओं के खिलाफ ऐसी कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए थी। अब विदेशियों के खिलाफ की गई इस कार्रवाई के बारे में पश्चाताप करने और इस तरह की कार्रवाई से हुए नुकसान की भरापाई के लिए कुछ सकारात्मक कदम उठाने के लिए उचित समय है।"
अंत में, पुरानी भारतीय कहावत का 'अथिति देवो भव' का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति नलवाडे ने कहा-
"वर्तमान मामले की परिस्थितिया एक सवाल पैदा करती हैं कि क्या हम वास्तव में अपनी महान परंपरा और संस्कृति के अनुसार काम कर रहे हैं? COVID -19 महामारी के दौरान, हमें अधिक सहिष्णुता दिखाने की आवश्यकता है और हमें अपने मेहमानों के प्रति अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता है विशेष रूप से मौजूदा याचिकाकर्ताओं जेसे मेहमानों के प्रति।
आरोपों से पता चलता है कि हमने उनकी मदद करने के बजाय उन्हें जेलों में बंद कर दिया और आरोप लगाया कि वे यात्रा दस्तावेजों के उल्लंघन के लिए जिम्मेदार हैं, वे वायरस आदि के प्रसार के लिए जिम्मेदार हैं। "
द्वेष की पृष्ठभूमि
न्यायालय ने, महत्वपूर्ण रूप से, पूरे देश में सीएए और एनआरसी के विरोध का उल्लेख किया और कहा-
"जनवरी 2020 से पहले भारत में कई स्थानों पर धरना, जुलूस निकालकर विरोध प्रदर्शन किए गए थे। विरोध प्रदर्शन में भाग लेने वाले अधिकांश मुस्लिम थे। यह उनका तर्क है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 मुसलमानों के खिलाफ भेदभावपूर्ण है। उनका मानना है कि भारतीय नागरिकता मुस्लिम शरणार्थियों और प्रवासियों को नहीं दी जाएगी। वे नागरिकता पंजीकरण (एनआरसी) का विरोध कर रहे थे।
यह कहा जा सकता है कि वर्तमान कार्रवाई के कारण उन मुसलमानों के मन में भय पैदा हो गया था। इस कार्रवाई ने अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय मुसलमानों को चेतावनी दी कि किसी भी रूप में और किसी भी चीज के लिए मुसलमानों के खिलाफ कार्रवाई की जा सकती है। यह संकेत दिया गया था कि अन्य देशों के मुसलमानों के साथ संपर्क रखने के लिए भी, उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। इस प्रकार, इन विदेशियों और मुस्लिमों के खिलाफ उनकी कथित गतिविधियों के लिए की गई कार्रवाई के प्रति द्वेष की बू आ रही है। जब एफआईआर को खत्म करने का दावा किया जाता है, तो द्वेष जैसे हालात महत्वपूर्ण होते हैं और मामला खुद भी।"
इस प्रकार, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि राज्य सरकार ने राजनीतिक मजबूरी के तहत काम किया और विदेशी नागरिकों के खिलाफ कार्रवाई दुर्भावनापूर्ण मानी जा सकती है। इस प्रकार, सभी याचिकाओं की अनुमति दी गई और एफआईआर को रद्द कर दिया गया।
न्यायमूर्ति सेवलीकर ने निर्णय के ऑपरेटिव भाग के साथ सहमति व्यक्त की, लेकिन नोट कि कि राज्य की ओर से किए गए स्टे के अनुरोध को अनुमति नहीं दी जा सकती।
जून में, मद्रास हाईकोर्ट ने तब्लीगी जमात के विदेशियों के खिलाफ एफआईआर को रद्द कर दिया था। कोर्ट ने कहा था कि उन्होंने "पर्याप्त नुकसान" उठाया है और केंद्र से मूल स्थान पर लौटने के उनके अनुरोध पर विचार करने का आग्रह किया था।
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