''बीएमसी ने अपना अमानवीय चेहरा दिखाया है'', बॉम्बे हाईकोर्ट ने शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों का लॉकडाउन का वेतन देने का निर्देश दिया

LiveLaw News Network

29 Oct 2020 8:45 AM GMT

  • बीएमसी ने अपना अमानवीय चेहरा दिखाया है, बॉम्बे हाईकोर्ट ने शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों का लॉकडाउन का वेतन देने का निर्देश दिया

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को बृहन्मुंबई महानगरपालिका को उस सर्कुलर के लिए फटकार लगाई है,जिसके तहत लाॅकडाउन के दौरान निगम के शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को कार्यालय में उपस्थित होने से दी गई छूट को वापिस ले लिया गया था। इसके परिणामस्वरूप इन कर्मचारियों को लॉकडाउन के दौरान की अवधि के वेतन का भुगतान नहीं किया जाएगा क्योंकि इनके काम से अनुपस्थित रहने को अनुमेय छुट्टी के रूप में माना जाएगा।

    मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति जीएस कुलकर्णी की खंडपीठ ने कहा कि बीएमसी का 26 मई का सर्कुलर न्यायिक जांच के तहत सही नहीं पाया गया है। कोर्ट ने कहा-

    ''हम यह सुनिश्चित करने के लिए निगम को निर्देशित करते हैं कि कोई भी शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारी, जिन्होंने महामारी के दौरान ड्यूटी के लिए रिपोर्ट नहीं किया है, को वेतन का लाभ देने से इनकार न किया जाए। जिस मौद्रिक लाभ का प्रत्येक कर्मचारी हकदार हैं, उसकी गणना की जाए और उनके पक्ष में दो समान मासिक किस्तों में जल्द से जल्द जारी किया जाए, जिनमें से पहली किस्त दिवाली से पहले और दूसरी किस्त उन्हें पहली किस्त के भुगतान के 45 दिनों के भीतर दे दी जाए।''

    केस की पृष्ठभूमि

    कोर्ट नेशनल एसोसिएशन ऑफ ब्लाइंड द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही है,जिन्होंने निगम के सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा जारी किए गए 26 मई, 2020 के सर्कुलर को चुनौती दी थी। यह याचिका एडवोकेट डॉ उदय वारुंजिकर के माध्यम से दायर की गई थी। याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि इस अधिसूचना के प्रभाव का असर यह होगा कि उनको मिलने वाले उस लाभ को वापिस ले लिया जाएगा, जो पहले निगम ने शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को दिया था।

    याचिकाकर्ता के अनुसार, निगम के शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों के साथ भेदभाव किया गया है और विशेष रूप से महामारी की स्थिति के कारण लाभ को वापिस लेना मनमानी , संवेदशीलता और करुणा की कमी को दर्शाता है। इस प्रकार, इस मामले में अदालत की न्यायिक समीक्षा की जरूरत है और इसे खारिज किया जाना चाहिए।

    भारत सरकार के कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय ने 27 मार्च, 2020 को एक निर्देश जारी किया था, जिसमें सभी संबंधित मंत्रालयों और विभागों को निर्देश दिया गया था कि कर्मचारी, जो शारीरिक रूप से अक्षम हैं, को उपस्थिति से छूट दी जानी चाहिए जबकि आवश्यक सेवाओं में भाग लेने के लिए कर्मचारियों का रोस्टर तैयार किया गया था।

    इसके परिणामस्वरूप, 21 अप्रैल, 2020 को, महाराष्ट्र राज्य ने एक सरकारी प्रस्ताव जारी किया, जिसमें विकलांगता वाले व्यक्तियों को लॉकडाउन अवधि के दौरान उनके कार्यालयों में उपस्थित होने से छूट दी गई थी। हालाँकि, राज्य सरकार ने 26 मई, 2020 को अपने पहले के सर्कुलर (जिसमें शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को कार्यालयों में उपस्थित होने से छूट दी गई थी) के संशोधित करते हुए लागू किया था, जिसमें कहा गया था कि विकलांगता वाले व्यक्तियों की अनुपस्थिति को उन लोगों के संबंध में अनुमन्य अवकाश के रूप में माना जाएगा, जिन्हें कार्यालय में उपस्थित होना मुश्किल लगता है।

    याचिकाकर्ता ने निगम के एक नेत्रहीन कर्मचारी जनवर दिलीप गोविंदराम के मामले का जिक्र किया, जिन्हें जुलाई महीने के लिए कुछ भी भुगतान नहीं किया गया था क्योंकि वह काम से अनुपस्थित थे। पीआईएल याचिका के अनुसार, इस तरह के कर्मचारी की लाॅकडाउन के दौरान की अनुपस्थिति को निगम की ओर से वेतन के बिना अवकाश के रूप में मानना अनुचित और मनमाना है और राईट टू पर्सन विद डिसबिलिटी एक्ट के प्रावधानों के विपरीत है।

    दलीलें

    बीएमसी के वकील वरिष्ठ अधिवक्ता एवी बुखारी ने सबसे पहले तो याचिका की अनुरक्षणीयता पर सवाल उठाया क्योंकि यह एक सेवा के मामले के संबंध में एक विवाद को जन्म देती है और जबकि उस संबंध में कोई भी जनहित याचिका दायर नहीं की जाएगी। दूसरा, उन्होंने कहा कि शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को भुगतान करने से महत्वपूर्ण वित्तीय प्रभाव पड़ेगा।

    निगम में विकलांगता वाले 1150 व्यक्तियों को नियुक्त किया गया है, जिसमें से 278 कर्मचारी दृष्टिहीन हैं। यदि शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को वेतन के नुकसान के बिना विशेष अवकाश दिया जाता है, तो निगम को ऐसे कर्मचारियों को भुगतान करने के लिए लगभग 12,22,35,300 रुपये की आवश्यकता होगी,जिसमें से दृष्टिबाधित कर्मचारियों के लिए लगभग 2,75,22,000 रूपये दिए जाएंगे। बुखारी ने तर्क दिया कि वित्तीय संसाधनों की कमी के चलते,निगम के लिए 12,22,35,300 रुपये का भुगतान करना एक अतिरिक्त बोझ होगा। जो इस कठिन समय में निगम के लिए संभव नहीं होगा क्योंकि इस समय निगम की प्राथमिक चिंता नागरिकों की सेहत का ख्याल रखना है।

    इसके अलावा, निगम ने आग्रह किया कि एक जनहित याचिका की आड़ में याचिकाकर्ता ने केवल एक कर्मचारी जनवर दिलीप गोविंदराम का मामला उठाया है,ताकि यह सुनिश्चित किया जा सकें कि वह सेवा विवाद के संबंध में लाभ प्राप्त कर सकें। हालांकि इस तरह की राहत इस कर्मचारी द्वारा रिट कोर्ट से मांगी जाए जो इसका लाभ सबको प्राप्त हो सकता है।

    दूसरी ओर, डॉ उदय वारुंजिकर ने आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के प्रावधानों के साथ-साथ पर्सन विद डिसबिलिटी (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) एक्ट, 1995 को बनाने के कारणों का उल्लेख किया।

    उन्होंने आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के चैप्टर VIII की तरफ अदालत का ध्यान आकर्षित किया और प्रस्तुत किया कि विकलांग लोगों के लिए परिवहन, सूचना और कम्यूनिकेशन तक पहुंच उपलब्ध कराना उपयुक्त सरकार को एक कर्तव्य है। उन्होंने तर्क दिया कि आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम एक सामाजिक कल्याण कानून है, जो विकलांग व्यक्तियों के लिए विशेष रूप से अधिनियमित किया गया है, चाहे कोई भी आर्थिक तंगी हो, परंतु मुख्य फोकस शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के हितों को बढ़ावा देने के साथ-साथ उन उद्देश्य को प्राप्त करने की तरफ होना चाहिए,जिसके लिए इस कानून को अस्तित्व में लाया गया था।

    डॉ वारुंजिकर ने यह भी कहा कि लॉकडाउन की अवधि के दौरान, निगम अपने संबंधित कार्यस्थलों पर शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए परिवहन की उपयुक्त व्यवस्था करने में विफल रहा है और इस तरह की विफलता या उपेक्षा के कारण निगम के शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारी अपनी ड्यूटी पर रिपोर्ट नहीं कर पाए।

    इसके अलावा, केंद्र सरकार द्धारा बनाए गए सोशल डिस्टेंसिंग के मानदंडों के कारण, एक साथी नागरिक के संपर्क में आने का जोखिम बना रहता। इसलिए अगर एक नेत्रहीन कर्मचारी ड्यूटी के लिए रिपोर्ट करना चाहता था, तो वह उस मदद और सहायता से वंचित हो जाता,जो महामारी से पूर्व सामान्य परिस्थितियों में उसने अन्य नागरिकों से मिल जाती थी।

    निर्णय

    इस मुद्दे की जांच करने के बाद, पीठ ने निगम द्वारा याचिका की अनुरक्षणीयता पर उठाए गए सवाल को खारिज कर दिया। कोर्ट ने नोट किया-

    ''हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकार ने शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों की वास्तविक स्थिति और उनके सामने आने वाली कठिनाइयों और असुविधाओं को ध्यान में रखते हुए लॉकडाउन अवधि के दौरान अपने संबंधित कार्यस्थलों पर रिपोर्टिंग से छूट दी थी। प्रत्येक नियोक्ता को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि एक सामान्य कर्मचारी जिस तरीके से सार्वजनिक सेवा व आराम का आंनद ले सकता है,एक शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति उस सुविधा का उस तरह उपयोग नहीं कर सकता है। इसलिए ऐसे मामलों को एक अलग परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।

    याचिकाकर्ता का यह तर्क गलत नहीं है कि पूर्व-महामारी के दिनों में, जो लोग अन्यथा शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों की मदद कर देते थे,वो इन दिनों मदद और सहायता की पेशकश करने की हिम्मत नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि कहीं वे स्वयं वायरस से संक्रमित हो सकते हैं। ऐसे परिदृश्य में केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकार ने भी सोचा था कि वह अपने शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को छूट दे। इसके साथ ही उन्होंने उनके अधीन संगठनों में काम करने वाले इस तरह के कर्मचारियों को भी छूट दी थी।''

    इसके अलावा, पीठ ने उल्लेख किया कि यदि, वास्तव में, निगम कार्यालय न आने वाले शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को वित्तीय लाभ की पेशकश करने के लिए इच्छुक नहीं था, तो यह निगम का कर्तव्य था कि वह उनके लिए परिवहन की विशेष व्यवस्था करने के लिए एक मॉडल नियोक्ता के रूप में काम करता या फिर अपने ऐसे कर्मचारियों के लिए ऐसे विशेष प्रबंध करता कि वह अपने कार्यालय आ सकें।

    कोर्ट ने कहा कि-

    ''हमने श्री बुखारी से पूछताछ की थी कि क्या ऐसी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई थीं या नहीं। जिसका हमें एक अस्पष्ट जवाब मिला। इसलिए, हमारे पास निगम के रुख का पता लगाने के उनकी दलीलों पर विचार करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है। निगम की तरफ से दायर दोनों हलफनामों में जनहित याचिका के पैरा 14 के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। इसलिए, हमने नाॅन-ट्रवर्स के सिद्धांत को लागू किया है और माना है कि निगम ने यह सुनिश्चित करने के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं की थी कि उसके शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों बिना किसी बाधा के अपने कार्यालय पहुंच सकें।''

    कोर्ट ने डॉ वारुंजिकर के इस तर्क को भी स्वीकार कर लिया कि निगम की यह कार्रवाई उसके अमानवीय और असंवेदनशील चेहरे को दर्शा रही है, जो शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों के प्रति दुर्भावना और पूर्वाग्रह है।

    पीठ निगम के इस रुख से सहमत नहीं थी कि शारीरिक रूप से विकलांग को भुगतान करने से वित्तीय बोझ पड़ेगा-

    ''हम आगे मानते हैं कि निगम का यह रुख है कि शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को अगर उनके वेतन को प्रभावित किए बिना छुट्टी दे दी जाती है तो उन पर राजस्व का भार पड़ेगा,पूरी तरह से एक गलत दावा है। वहीं उस दलील में भी कोई दम नहीं है कि शरीरिक रूप से अक्षम लोगों को यह छूट देने से 55 वर्ष से अधिक आयु के कर्मचारी भी इसी तरह के लाभ की मांग करेंगे। निगम को ऐसी स्थिति पैदा करने से बचना चाहिए जहां शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को इस अकल्पनीय रूप से कठिन स्थिति में बिना वेतन के छोड़ दिया जाए।

    अपने वैधानिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए, निगम को यह सुनिश्चित करना है कि उनके शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों को उनकी आवश्यकताओं के साथ-साथ आरपीडब्ल्यूडी अधिनियम के तहत दी गई सुविधाएं प्राप्त करने के उचित अवसर प्राप्त हो सकें। वहीं वे किसी अन्य ऐसी विकलांगता के लिए परेशान न हो,जिसके लिए वो उत्तरदायी नहीं है। इसलिए पैसे से संबंधित मामले का ध्यान निगम द्वारा रखा जाए।''

    अंत में, उक्त जनहित याचिका की अनुमति दे दी गई और न्यायालय ने माना कि पूर्वव्यापी प्रभाव से शारीरिक रूप से अक्षम कर्मचारियों के मौद्रिक लाभों को वापस लेने के लिए निगम की कार्रवाई अवैध है।

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