'सुप्रीम कोर्ट के फैसले को प्रभावहीन बनाने का प्रयास', उत्तर प्रदेश पेंशन हेतु अर्हकारी सेवा और विधिमान्यकरण अध्यादेश 2020 के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया

LiveLaw News Network

7 Jan 2021 4:37 AM GMT

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    Supreme Court of India

    उत्तर प्रदेश पेंशन हेतु अर्हकारी सेवा और विधिमान्यकरण अध्यादेश 2020 के खिलाफ दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को नोटिस जारी किया। अध्यादेश को पिछले साल 21 अक्टूबर को पारित किया गया था।

    जस्टिस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ, उत्तर प्रदेश ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट नॉन गजेटेड इम्प्लॉइज एसोसिएशन की याचिका पर सुनवाई कर रही थी। याचिका में कहा गया है है कि अध्यादेश को कार्य-प्रभारित कर्मचारियों के खिलाफ शोषणकारी भेदभाव का उपचार किए बिना पारित किया गया है, जिसे सुप्रीम कोर्ट भी अस्वीकृत कर चुका है।

    जस्टिस अरुण मिश्रा के साथ ज‌स्टिस नज़ीर और जस्टिस एमआर शाह की पीठ ने सेवा के अंतिम दिनों में नियमित हुए हजारों कार्य-प्रभारित कर्मचारियों के पेंशन के अधिकार पर सुनवाई करते हुए प्रासंगिक नियमों को रद्द कर दिया था, और पेंशन के लिए अर्हकारी सेवा की गणना के प्रावधानों को पढ़ा था और यह निर्धारित किया था कि उत्तर प्रदेश राज्य में कार्य-प्रभारित कर्मचारियों की सेवा की अवधि को पेंशन के लिए अर्हक सेवा की अवध‌ि की ओर गिना जाना चाहिए। (प्रेम सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य; 2019) इस फैसले को स्वीकार कर लिया गया था और हजारों प्रभावित कर्मचारियों को पेंशन प्रदान की गई थी।

    याचिका में कहा गया है, "हालांकि, सितंबर 2020 में जब जस्टिस अरुण मिश्रा सेवन‌िवृत्त हुए, उत्तर प्रदेश सरकार उपरोक्त फैसले को प्रभावहीन करने के लिए एक अध्यादेश लाई और अब तीसरी और चौथी श्रेणी के इन गरीब कर्मचारियों को दी गई पेंशन की वसूली की मांग कर रही है...यह अध्यादेश माननीय सुप्रीम कोर्ट की महिमा को चुनौती है, और अध्यादेश के समय (अक्टूबर 2020) से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वे जस्टिस अरुण मिश्रा की सेवानिवृत्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे।

    सीनियर एडवोकेट पल्लव शिशोदिया ने कहा कि अध्यादेश इस तथ्य के मद्देनजर अध‌िकारतीत है कि अधिनियमित अध्यादेश को पूर्वव्यापी स्तर पर प्रभावी बनाया गया है, और सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून को प्रभावहीन बनाता है। यह न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में अतिक्रमण करने के समान है। जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा कोई कानून घोषित किया जाता है, तो इसे विधायिका को छोड़कर कोई अन्य शून्य नहीं बना सकता है। विधाय‌िका संशोधन लागू करके अदालत के फैसले के प्रभाव को कम कर देती है। उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रेम सिंह बनाम यूपी राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के प्रभाव को समाप्त करने के लिए उक्त अध्यादेश जारी किया है।

    याचिका में कहा गया है, "प्रतिवादी राज्य द्वारा विधायी अधिनियम को पूर्वव्यापी स्तर पर लागू करना, सप्रीम कोर्ट तीन न्यायाधीशों द्वारा दिए गए निर्णय के प्रभाव को खत्म करने के अलावा कुछ भी नहीं है और यह कानून में बुरा है।"

    एडवोकेट राजीव दुबे और शिल्पा लिजा जॉर्ज के माध्यम से याचिका में दलील दी गई है कि अध्यादेश के माध्यम से, सरकार ने प्रावधान किया है कि "अर्हकारी सेवा" के तहत पद के ‌लिए सरकार द्वारा निर्धारित सेवा नियमों के प्रावधानों के अनुसार अस्थायी या स्थायी पद पर प्रदान की गई सेवा शामिल होगी। यह प्रस्तुत किया गया है कि अध्यादेश नॉन-ऑब्‍स्टेंट क्लॉज प्रदान करके कोर्ट के निर्णय, डिक्री या आदेश को भी रद्द कर देता है।

    याचिका में कहा गया है, "इसलिए, अध्यादेश के माध्यम से, प्रेमसिंह के फैसले को कमजोर करने की कोशिश की गई है क्योंकि सरकार द्वारा पद के लिए निर्धारित सेवा नियमों के प्रावधानों के अनुसार किसी भी अस्थायी या स्थायी पद पर कार्य-प्रभारी कर्मचारियों को नियोजित नहीं किया गया है। इसलिए, इस तरह की सेवाएं 'अर्ह सेवाओं' का हिस्सा नहीं बनेंगी।"

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