'जनहित याचिका की आड़ में अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने को लेकर सरकार पर हमला: जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट ने कानून स्नातक पर 10 हजार रुपए का जुर्माना लगाया
LiveLaw News Network
25 Sep 2021 9:33 AM GMT
![Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K Consider The Establishment Of The State Commission For Protection Of Child Rights In The UT Of J&K](https://hindi.livelaw.in/h-upload/2021/01/03/750x450_386705-378808-jammu-and-kashmir-high-court.jpg)
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में राज्य मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग और जवाबदेही आयोग को फिर से खोलने की मांग वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि याचिका राजनीति से प्रेरित है और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने पर सरकार को निशाना बनाया गया है।
चीफ जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस रजनेश ओसवाल ने कहा, "याचिका में दिए गए बयानों से पता चलता है कि याचिकाकर्ता की उक्त संस्थाओं की स्थापना में रुचि नहीं है, बल्कि जम्मू कश्मीर को दिए गई विशेष दर्जे के खात्मे पर सरकार पर हमला करने की।"
कोर्ट ने कहा, "उन्होंने केंद्र शासित प्रदेश में सेना की बर्बरता, कठोर कानूनों की प्रयोज्यता, अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद अज्ञात बंदूकधारियों की संस्कृति में वृद्धि, कश्मीर को युद्ध क्षेत्र बनाना, और युवा में बढ़ी बेचैनी के कथित आरोपों के साथ केंद्र सरकार पर हमला किया है।"
यह देखते हुए कि इस तरह के बयान अदालत को बदनाम करते हैं, बेंच ने याचिकाकर्ता पर 10 हजार रुपए की टोकन लागत लगाई।
कोर्ट ने कहा, "उपरोक्त सभी तथ्य जैसे कहे गए हैं, सरकार के लिए अत्यंत आलोचनात्मक हैं, मानों कि याचिकाकर्ता कानूनी मंच नहीं बल्कि राजनीतिक मंच के समक्ष मौजूद हो। याचिकाकर्ता की उपरोक्त बयानों के जरिए अदालत को बदनाम करने का कोशिया है, ताकि राजनीतिक लाभ अर्जित किया जा सके।"
पृष्ठभूमि
उक्त याचिका कानून का छात्र होने का दावा कर रहे निखिल पाधा ने दायर की थी। उन्होंने राज्य मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग और जवाबदेही आयोग को लंबित मामलों के निपटारे के लिए फिर से खोलने की मांग की थी। याचिका में कहा गया था कि राज्य मानव आयोग के समक्ष 765 मामले लंबित हैं, जिनमें से 267 मामले सेना, अर्ध-सैन्य और पुलिस बलों के खिलाफ हैं।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद से उपरोक्त संस्थानों को बंद कर दिया गया है।
नतीजा
याचिका में इस्तेमाल की गई भाषा पर ध्यान देते हुए कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि इसे एक से अधिक व्यक्तियों ने तैयार किया है क्योंकि एकमात्र याचिकाकर्ता को याचिकाकर्ता एक के रूप में दिखाया गया है और याचिकाकर्ता को संदर्भित करने के लिए बहुवचन रूपों का उपयोग किया गया है। कोर्ट ने नोट किया कि शुरू में याचिका एक से अधिक लोगों की ओर से थी, लेकिन जल्द ही अन्य याचिकाकर्ताओं के नाम अज्ञात कारणों से हटा दिए गए।
याचिकाकर्ता ने खुद को जम्मू विश्वविद्यालय का कानून स्नातक बताया है, जिस पर अदालत ने नोट किया, "हम यह समझने में विफल हैं कि एक कानून के छात्र या जिसने हाल ही में कानून की परीक्षा पास की है, उसे कैसे एक उत्साही मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में पहचाना जा सकता है, जैसा कि याचिकाकर्ता ने घोषित किया है। याचिकाकर्ता ने अपनी किसी भी गतिविधि का खुलासा नहीं किया है जो यह संकेत दे कि वह वास्तव में नागरिकों के मानवाधिकार के संरक्षण में शामिल है या कि वह कम उम्र के बावजूद प्रशंसित मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं।"
अदालत ने टिप्पणी की कि ऐसा प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ता एक वास्तविक व्यक्ति नहीं है और जनहित में इस मुकदमे को शुरू करने के लिए किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रॉक्सी के रूप में पेश किया गया है।
कोर्ट ने आगे कहा कि याचिका में किए गए बयानों से पता चलता है कि याचिकाकर्ता की दिलचस्पी उपरोक्त मंचों की स्थापना में नहीं है, बल्कि जम्मू-कश्मीर को दिए गए विशेष दर्जे को हटाने पर सरकार पर हमला करने की है।
सीमा उपाध्याय बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2018) का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा कि "पीआईएल हर बीमारी के लिए एक दवा नहीं है" और अगर व्यक्तियों की प्रामाणिकता संदिग्ध है तो इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने मनोहर लाल शर्मा बनाम संजय लीला भंसाली (2018) का उल्लेख करते हुए कहा कि कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग करने के लिए जनहित याचिका दायर करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।
विश्वनाथ चतुर्वेदी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2007) में सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्धारित सिद्धांत को दोहराते हुए कोर्ट ने कहा कि जब एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दूसरे राजनीतिक दल या व्यक्ति के खिलाफ शिकायत करता है तो यह प्रतिद्वंद्वी के इशारे पर वास्तविक मुकदमा नहीं होगा और कि जनहित में ऐसी याचिकाओं पर विचार नहीं किया जाना चाहिए।
परमादेश जारी करने की प्रार्थना पर कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता को अपनी शिकायतों को पूरा करने के लिए पहले संबंधित सक्षम अधिकारियों से संपर्क करना चाहिए और फिर किसी भी शिकायत के मामले में, हाईकोर्ट के असाधारण विवेकाधीन अधिकार क्षेत्र का उपयोग करना चाहिए।
राज्य मानवाधिकार आयोग के समक्ष लंबित मामलों के पर कोर्ट ने कहा, "यह ध्यान देने योग्य हो सकता है कि लंबित मामलों के किसी भी शिकायतकर्ता ने जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग के समक्ष लंबित अपने मामलों के निर्णय के लिए न्यायालय से संपर्क नहीं किया है।"
कोर्ट ने अंत में कहा कि राज्य-प्रतिवादियों को उपरोक्त संस्थानों के पुनरुद्धार के लिए जल्द से जल्द उचित कदम उठाने चाहिए।