बेंगलुरु पुलिस एक पत्रकार से उसके स्रोत की जानकारी मांग रही, जबकि कानूनी स्थिति स्रोत के संरक्षण के पक्ष में

Avanish Pathak

11 Jan 2023 4:38 PM GMT

  • बेंगलुरु पुलिस एक पत्रकार से उसके स्रोत की जानकारी मांग रही, जबकि कानूनी स्थिति स्रोत के संरक्षण के पक्ष में

    बेंगलुरु पुलिस ने 5 जनवरी को कर्नाटक एजुकेशन ‌डिपार्टमेंट की एक ई-ऑफिस फाइल नोटिंग संबंधित एक मामले में समाचार पोर्टल द फाइल के फाउंडर और एडिटर जी महंतेश को एक नोटिस जारी किया। पोर्टल फाइल नोटिंग को प्रकाशित किया था।

    पोर्टल ने नवंबर 2022 में फाइल नोटिंग के लीक होने के आधार पर एक स्टोरी की थी। पिछले साल 10 नवंबर को विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी की शिकायत पर दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए बेंगलुरु साइबर क्राइम पुलिस ने महंतेश से पूछा था उस दस्तावेज़ के स्रोत को प्रकट करें जिस पर कहानी आधारित थी। उनसे कथित तौर पर स्रोत की पहचान, नाम, पता और आईडी कार्ड मांगा गया था।

    ई-फाइल नोटिंग कर्नाटक टेक्स्ट बुक सोसाइटी के प्रबंध निदेशक के रूप में शिक्षक भर्ती घोटाले में एक आरोपी की बहाली से संबंधित है। आरोपी को गिरफ्तार कर जमानत पर रिहा कर दिया गया।

    सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 66 के तहत कथित तौर पर विभाग के ई-ऑफिस पोर्टल से दस्तावेज तक पहुँचने और लीक करने के लिए अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी।

    धारा 66 (1) के तहत कोई भी व्यक्ति इरादतन या जानकारी के साथ कि ऐसा कृत्य करता है, जिससे जनता को नुकसान होता है या हो सकता है या कोई व्यक्ति कंप्यूटर में मौजूद किसी जानकारी को नष्ट करता या डिलीट करता है है या तब्दील करता है या उसकी मूल्य या उपयोगिता को कम करता है या उसे हानकारक ढंग से प्रभावित करता है, ऐसा कृत्य हैक है।

    धारा 66 (2) के तहत कोई भी हैकिंग करता है तो उसे तीन साल तक की कैद या दो लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।

    यह आरोप लगाना दूर की कौड़ी प्रतीत होता है कि किसी आधिकारिक पोर्टल से किसी दस्तावेज को एक्सेस करना और लीक करना, जबकि वह वर्गीकृत दस्तावेज नहीं है, सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत हैकिंग है। लेकिन क्या पोर्टल अपने अधिकारों और स्रोत के हितों की रक्षा के लिए बाध्य है?

    सुप्रीम कोर्ट ने राफेल डील मामले में दायर पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 ने भारत में शासन में क्रांति ला दी और आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम (OSA) को पछाड़ दिया।

    राफेल मामले में लीक हुए दस्तावेजों पर द हिंदू में लेखों की एक श्रृंखला लिखने वाले द हिंदू ग्रुप ऑफ पब्लिकेशंस के पूर्व प्रधान संपादक और निदेशक एन राम ने दावा किया था कि वह अपने स्रोतों का खुलासा नहीं करेंगे।

    10 अप्रैल, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने राफेल मामले में लीक हुए दस्तावेजों पर भरोसा करने, विशेषाधिकार का दावा करने के खिलाफ केंद्र की प्रारंभिक आपत्तियों को खारिज कर दिया और गुण-दोष के आधार पर पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई करने का फैसला किया। द हिंदू द्वारा तीन कथित रूप से गोपनीय दस्तावेजों के प्रकाशन पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस तरह के प्रकाशन का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी के अनुरूप है (पैराग्राफ 4)।

    फैसला सुनाने वाली तीन जजों की बेंच ने आगे कहा: "वास्तव में, 'द हिंदू' अखबार में उक्त दस्तावेजों का प्रकाशन कोर्ट को निरंतर उन विचारों की याद दिलाता है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता को रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य और बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य समेत कई फैसलों में हमेशा सर्वोपरि रखा गया है।

    खंडपीठ ने कहा,

    "ऑफिसियल सिक्रेट एक्ट में कोई प्रावधान नहीं है और किसी अन्य कानून में ऐसा कोई प्रावधान हमारे ध्यान में नहीं लाया गया है, जिसके जरिए संसद ने कार्यकारिणी के हाथों में कोई शक्ति दी है कि वो सिक्रेट के रूप में चिन्हित दस्तावेजों के प्रकाशन को रोक दे या न्यायालय के समक्ष ऐसे दस्तावेजों को न रखे, जिन्हें कानूनी मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए पेश करने को कहा गया हो।

    पीठ ने फैसले में एसपीगुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया पर भी भरोसा किया था।

    क्या पत्रकार अनुचित तरीके से और अवैध रूप से दस्तावेज प्राप्त करने के दोषी हो सकते हैं, पीठ ने इस सवाल पर कहा, "पूरन मल बनाम डाइरेक्टर ऑफ इंस्पेक्‍शन (इन्वेस्ट‌िगेशन) इनकम टैक्स, नई दिल्ली में कोर्ट का यह विचार था कि "साक्ष्य की स्वीकार्यता का परीक्षण इसकी प्रासंगिकता में निहित है, जब तक कि संविधान या अन्य कानून में अवैध तरीके से खोजे गए या जब्ती से प्राप्त कानूनी साक्ष्य पर स्पष्ट या आवश्यक रूप रोक ना हो।"

    इसमें कोई संदेह नहीं है कि किसी के सूचना के स्रोत का खुलासा न करने का पत्रकारिता का विशेषाधिकार उस नियम से अलग है, जिसके अनुसार साक्ष्य देना प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है।

    विधि आयोग ने अपनी 93वीं (1983) और 185वीं रिपोर्ट में दो बार इस विशेषाधिकार को संहिताबद्ध करने की सिफारिश की थी। 93वीं रिपोर्ट ने इस विशेषाधिकार को मान्यता देने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में धारा 132ए को शामिल करने की सिफारिश की ‌थी।

    विधि आयोग (2003) ने अपनी 185वीं रिपोर्ट में आईइए में धारा 132A को शामिल करके पत्रकारों के लिए स्रोत सुरक्षा विशेषाधिकार शामिल करने की अपनी सिफारिश को दोहराया।

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