[अनुच्छेद 300 ए] कानूनी अधिकार के बिना कार्यकारी आदेश के जरिए वेतन और पेंशन पर रोक नहीं लगाई जा सकती हैः आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने लॉकडाउन में कर्मचारियों के भुगतान रोकने के सरकारी आदेश को रद्द किया
LiveLaw News Network
17 Aug 2020 11:28 AM IST
आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने मंगलवार को, "इक्विटी जुरिस्डिक्शन" के प्रयोग में, राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वह अपने कर्मचारियों को वेतन और पेंशन के विलंबित हिस्से को 12% की दर से ब्याज के साथ वितरित करे। अदालत ने भुगतानों को विलंबित करने के सरकारी आदेशों को रद्द कर दिया और उन्हें अनुच्छेद 14, 15, 16, 21 और 300-ए का उलंघन बताया। अदालत ने निर्देशों को मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 25 (1) के तहत गारंटीकृत आजीविका के अधिकारों के खिलाफ भी बताया।
उल्लेखनीय है कि लॉकडाउन और वित्तीय संकट के कारण, प्रदेश सरकार ने एक सरकारी आदेश के जरिए मार्च और अप्रैल, 2020 के महीनों के लिए सरकारी कर्मचारियों के वेतन के एक हिस्से की अदायगी विलंबित कर दी थी और सेवानिवृत्त कर्मियों की पेंशन के एक हिस्से को मार्च, 2020 के महीने के लिए स्थगित कर दिया था।
जस्टिस एम सत्यनारायण मूर्ति और ललिता कान्नेगान्ती ने कहा, "इसमें कोई संदेह नहीं है, जब राज्य में वित्तीय आपातकाल की घोषणा की जाती है, संविधान का अनुच्छेद 360 (4) (ए) (i), सभी या किसी एक वर्ग कर्मचारियों के वेतन और भत्ते में कटौती की अनुमति देता है।
हालांकि, आंध्र प्रदेश में, मार्च और अप्रैल, 2020 की अवधि में कोई वित्तीय आपात स्थिति लागू नहीं हुई थी और कोई अन्य कानून वेतन या पेंशन इत्यादि के अतिक्रमण की अनुमति नहीं देता..."
यह मानते हुए कि लॉकडाउन के कारण, देश के साथ-साथ राज्य में कोई व्यावसायिक गतिविधि नहीं हो रही है, सरकार ने राज्य की आय या कर को न्यूनतम सीमा तक कम कर दिया है, खंड पीठ ने कहा कि केवल इसलिए कि सरकार के पास, कर्मचारियों को पूर्ण वेतन या पेंशन का भुगतान करने की देयता को पूरा करने के लिए संसाधन नहीं है, राज्य कर्मचारियों को, कानून के किसी अधिकार के अभाव में, संपत्ति के अपने अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
संपत्ति का अधिकार एक मानव अधिकार
पीठ ने कहा, "संपत्ति शब्द में चल और अचल दोनों प्रकार की संपत्तियां शामिल हैं। एक कर्मचारी के लिए देय पेंशन और वेतन को दोनों संपत्ति का हिस्सा कहा जा सकता है",
सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर भरोस रखा गया, जिसने कहा है कि किसी व्यक्ति की आजीविका का अधिकार है, संपत्ति का अधिकार है, और अनुच्छेद 300-ए के तहत 'पैसा', वेतन अर्जित पेंशन, और सरकार द्वारा प्रतिवर्ष देय नकद अनुदान संपत्ती में शामिल हैं; सरकारी सेवा नियमों के तहत पेंशन; बोनस आदि सपत्ति में शामिल हैं।
डिवीजन बेंच ने आगे कहा कि संपत्ति के अधिकार को अब न केवल एक संवैधानिक या वैधानिक अधिकार माना जाता है, बल्कि यह एक मानव अधिकार भी है- "हालांकि, यह संविधान की बुनियादी विशेषता या मौलिक अधिकार नहीं है, मानवाधिकार को व्यक्तिगत अधिकारों दायरे में गिना जाता है, जैसे कि स्वास्थ्य का अधिकार, आजीविका का अधिकार, आश्रय और रोजगार का अधिकार आदि। अब, मानवाधिकारों को भी अधिक बहुआयामी आयाम प्राप्त हो रहा है।"
पीठ ने कहा कि निजी व्यक्ति की संपत्ति का अधिकार को, हालांकि छीनने की अनुमति है, लेकिन कानून सम्मत होना चाहिए।
यह देखते हुए कि मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 25 (1) के तहत संपत्ति के अधिकार को मानव अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है, और यह कि भारत घोषणा में एक पार्टी है, पीठ ने खेद व्यक्त किया कि संपत्ति के अधिकार के कई न्यायालयों द्वारा आज तक मानव अधिकार नहीं माना जाता है।
पीठ ने कहा "इन दो प्रावधानों (संविधान के अनुच्छेद 300 ए और यूडीएचआर के अनुच्छेद 25 (1)) का उदार आशय भी यह है कि कार्यकारी आदेशों से चल या अचल संपत्ति स्वामियों की रक्षा की जाए और राज्य की शक्तियों को सीमित किया जाए।"
पीठ ने कहा कि पेंशनभोगी अपनी आजीविका से वंचित हो जाएंगे, जबकि उन पर विभिन्न खर्चों की जिम्मेदारी हैं, जिनमें उनकी स्वास्थ्य की देखभाल भी शामिल है। अगर वेतन भुगतान को पूर्ण या आंशिक रूप से टाल दिया जाता है तो सेवारत कर्मचारियों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।
पीठ ने कहा, "एक मुद्दे को तय करते समय, कोर्ट को आम आदमी और मध्यम वर्ग की जीवन शैली को ध्यान में रखना होगा और मामले को उचित परिप्रेक्ष्य में तय करना होगा।"
संपत्ति का अधिकार कानून सम्मत तरीके से ही छीना जा सकता है
पीठ ने कहा, "चूंकि वेतन और पेंशन किसी व्यक्ति की संपत्ति का गठन करते हैं, इसलिए इस तरह के अधिकार कानून सम्मत ढंग से छीना जा सकता है।"
पीठ ने कहा, इसका मतलब यह है कि किसी भी नागरिक को संपत्ति से, जब तक राज्य ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं होगा, तब तक वंचित नहीं किया जा सकता है।
यह देखते हुए कि उत्तरदाता, ऐसे किसी भी प्रावधान को पेश करने में असमर्थ हैं, जिसने राज्य को सेवारत, सेवानिवृत्त कर्मचारियों के वेतन/पेंशन के हिस्से के भुगतान को विलंबित करने के लिए अधिकृत किया हो, पीठ ने कहा कि किसी भी वैधानिक नियम के अभाव में वेतन या पेंशन का विलंबन: सेवा या सेवानिवृत्त कर्मचारियों को संपत्ति के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 300-ए के तहत संवैधानिक अधिकार की गारंटी का उल्लंघन होगा।
यह देखते हुए कि सरकारी आदेश में दिए गए संदर्भों में से एक, आपदा प्रबंधन अधिनियम की धारा 23 के तहत निर्धारित राज्य योजना के संबंध में है, पीठ ने दावा किया कि आपदा प्रबंधन अधिनियम के प्रावधानों में से कोई भी, विशेष रूप से अध्याय III,पेंशन में पूर्ण या आंशिक रूप से व विलंबन का अधिकार प्रदान नहीं करते हैं।
याचिकाकर्ता की एक दलील यह थी कि जब चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग, ग्रामीण स्थानीय निकायों/ शहरी स्थानीय निकायों में कार्यरत स्वच्छता कर्मचारियों को पूर्ण वेतन का भुगतान किया जा रहा है, तो अन्य कर्मचारियों को भी वेतन और पेंशन की पूरी राशि का भुगतान किया जाए।
बेंच ने कहा, "तात्कालिक मामले में, निर्विवाद रूप से, GO No.27 दिनांक चार अप्रैल 2020 में चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग, पुलिस विभाग, ग्रामीण स्थानीय निकायों / शहरी स्थानीय निकायों यानी नगर पंचायतों / नगर पालिकाओं / नगर निगमों में कार्यरत स्वच्छता कर्मचारियों का वेतन सीमित किया गया है, जो COVID-19 के संक्रमण को रोकने मे अग्रिम पंक्ति के योद्धा हैं और अन्य कर्मचारियों को पूर्ण वेतन का दावा करने का लाभ नहीं दिया गया है।",
पीठ ने कहा कि अन्य विभागों के कर्मचारियों के वेतन को इस तरह विलंबित करना समान कार्य के लिए समान वेतन की अवधारणा के विपरीत है, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है।
पीठ ने कहा, याचिकाकर्ता, तेलंगाना के सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी होने के बावजूद, देश के नागरिक के रूप में, असंवैधानिक प्रशासनिक कृत्यों पर सवाल उठा सकते हैं।
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