सशस्त्र बलों के सदस्यों को फेसबुक व इंस्टाग्राम सहित सारे सोशल मीडिया अकाउंट डिलीट करने का आदेश देने का मामला : ड्रैकाॅनियन 'नीति के खिलाफ सेना का जवान पहुंचा दिल्ली हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
13 July 2020 2:06 PM GMT
‘‘सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों से सैनिकों के प्रोफाइल और डेटा को डिलिट करने व इनके उपयोग पर प्रतिबंध लगाने का आदेश सत्तावादी शासन की विशेषता है और यह आदेश भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक आधार के खिलाफ है। यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि संवैधानिक लोकतंत्र में सेवारत किसी भी अन्य प्रोफेशनल आर्मी ने अपने सैनिकों पर इस तरह के अनुचित और नासमझ प्रतिबंध नहीं लगाए हैं।’’
दिल्ली हाईकोर्ट में सैन्य खुफिया महानिदेशक के एक आदेश के खिलाफ याचिका दायर की गई है। इस आदेश के तहत कहा गया है कि आर्मी के सभी कर्मियों को फेसबुक, इंस्टाग्राम और 87 अन्य सोशल मीडिया अप्लीकेशन को डिलिट करना होगा।
यह याचिका एक सेवारत लेफ्टिनेंट कर्नल की तरफ से दायर की गई है। उसने बताया है कि उसका परिवार देश से बाहर रहता है। ऐसे में सोशल मीडिया के अभाव में उसे अपने परिवार से जुड़ने में मुश्किल महसूस होगी।
उसने दलील दी है कि वह समय-समय पर भारतीय सेना द्वारा जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार अपने फेसबुक अकाउंट का उपयोग जिम्मेदारी से करता है। उसने कभी भी भारतीय सेना अधिकारी के रूप में अपनी भूमिका और कर्तव्यों से संबंधित कोई भी वर्गीकृत या संवेदनशील जानकारी फेसबुक या किसी भी अन्य सोशल नेटवर्किंग प्लेटफार्म पर साझा नहीं की है।
याचिका में कहा है कि
'' दूरदराज के स्थानों पर तैनाती के दौरान सैनिक फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म पर भरोसा करते हैं और अपने परिवारों में उत्पन्न होने वाले विभिन्न मुद्दों को दूर करने का प्रयास करते हैं। वह अक्सर अपने और अपने परिवार के बीच मौजूद भौतिक दूरी की भरपाई करने के लिए वर्चुअल तौर पर उनसे जुड़ते हैं।''
दलील दी गई है कि यह प्रतिबंध संविधान के तहत याचिकाकर्ता को मिले विभिन्न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और निजता का अधिकार शामिल है। जबकि सशस्त्र बलों के सदस्यों के मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की शक्ति सिर्फ संसद के पास है।
भारत के संघ बनाम जीएस बाजवा, (2003) 9 एससीसी 630 मामले में दिए गए फैसले पर विश्वास जताते हुए याचिकाकर्ता ने दलील दी है कि,
''अनुच्छेद 33 संसद को कानून द्वारा, सशस्त्र बलों के सदस्यों यानी सैनिकों के मौलिक अधिकारों को संशोधित करने की अनुमति देता है। परंतु प्रतिवादी नंबर 1 संसद नहीं है। इसलिए पाॅलिसी के तहत सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना और अकाउंट को डिलिटि करने का आदेश देना प्रतिवादी नंबर एक द्वारा उन शक्तियों को छीन लेने और ग्रहण करने का प्रयास है जो अनुच्छेद 33 के संदर्भ में विशेष रूप से संसद के पास निहित हैं।''
यह भी प्रस्तुत किया गया है कि Kनीति में निहित प्रतिबंध, विशेष रूप से सोशल नेटवर्किंग प्लेटफार्मों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाने और उन पर बनाए अकाउंट को हटाने के संबंध जो निर्देश जारी किए गए हैं,उनके संबंध में आर्मी एक्ट 1950 की धारा 21 (इस अधिनियम के अधीन आने वाले व्यक्तियों के संबंध में कुछ मौलिक अधिकारों को संशोधित करने के लिए शक्ति) या उक्त प्रावधान के संदर्भ में केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए नियमों में ऐसा कोई प्रतिबंध अपेक्षित नहीं है।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि जहां एक ओर सैनिकों को आदेश दिया जा रहा है कि वे सभी प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का उपयोग करना बंद कर दें और अपने उपयोगकर्ता प्रोफाइल को हटा दें, दूसरी ओर प्रतिवादी सैनिकों को संवेदनशील बनाने और उन्हें सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म पर उचित और सुरक्षित आचरण पेश करने के लिए प्रशिक्षित करने की योजना बना रहे हैं।
याचिकाकर्ता के अनुसार, ''नीति में इस तरह के विरोधाभास इस बात का साक्षी हैं कि इनको बनाते समय दिमाग का उपयोग नहीं हुआ है या दिमाग के गैर-अनुप्रयोग को दर्शा रहे हैं।''
इसके अलावा यह भी तर्क दिया गया है कि यह नीति संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है क्योंकि सिविल प्रशासन और राजनीतिक वर्ग के कई सदस्य ऐसे हैं जिनके पास सैनिकों की तुलना में बहुत अधिक संवेदनशीलता जानकारी रहती हैं। परंतु सोशल मीडिया के उपयोग का कोई प्रतिबंध उक्त व्यक्तियों पर लागू नहीं किया गया है।
इसलिए याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट से प्रार्थना की है कि वह प्रतिवादी को निर्देश जारी करें कि वह 6 जून, 2020 को जारी अपनी ''ड्रैकॉनियन'' नीति को उस हद तक वापस लें,जहां तक सेना के कर्मियों को सोशल मीडिया का उपयोग करने से रोकने व अकाउंट डिलिट करने के संबंध में निर्देश दिए गए हैं।
याचिकाकर्ता ने यह भी घोषणा करने की मांग की है कि सैन्य खुफिया महानिदेशक को संविधान या किसी अन्य कानून के तहत सशस्त्र बलों के सदस्यों के मौलिक अधिकारों को संशोधित करने या निरस्त करने को कोई अधिकार नहीं मिला हुआ है।
अधिवक्ता शिवांक प्रताप सिंह और सानंदिका प्रताप सिंह के माध्यम से यह याचिका दायर की गई है और इसे कल सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है।